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समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का अँधेरा

भारत आज विश्व में एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है. आर्थिक संभावनाओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है, लेकिन ऊं%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b7%e0%a4%ae%e0%a4%a4%e0%a4%beची विकास दर का लाभ एक छोटे-से वर्ग तक सीमित रहा है. नतीजतन, एक तरफ विकास की चकाचौंध दिखाई देती है तो दूसरी तरफ वंचितों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही है. समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का अँधेरा कड़वी सच्चाई है. आंकड़ों के खेल में देश की वास्तविक तस्वीर को नजरअंदाज किया जाता रहा है. निरंतर यह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत अब विश्व के शक्तिशाली और संपन्न देशों की सूची में शामिल हो गया है. मीडिया के माध्यम से आर्थिक सफलताओं के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं. मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है का स्लोगन खूब सुनाया जा रहा है. एक ओर चमचमाती सड़कें और उनपर दौड़ती महँगी गाड़ियों की तसवीरें हैं तो दूसरी ओर अपनी पत्नी की लाश कांधे पर उठाकर मीलों चलते दाना मांझी और उसकी बिलखती बच्ची की तस्वीर. तेज रफ्तार आर्थिक विकास के बावजूद भारत की 30.35 फीसदी आबादी अब भी गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे गुजर-बसर कर रही है. 22 फीसदी भारतीय बेहद गरीब हैं, जो रोजाना आधे डॉलर से भी कम पर गुजारा करते हैं.

यह सही है कि देश में पहले के मुकाबले समृद्धि आई है. पिछले दो दशकों में भारत की आय में जबरदस्त वुद्धि हुई है. देश में पांच से दस करोड़ प्रतिमाह वेतन पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है. भारत में अरबपतियों की तदाद लगातार बढ़ती जा रही है. आम लोगों का जीवन स्तर पहले से सुधरा है, किंतु इसके साथ आर्थिक विषमता ने भी विकराल रूप ले लिया है. संयुक्त राष्ट्र की सहस्राब्दी वैश्विक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के बेहद गरीब लोगों में करीब एक तिहाई भारत में हैं. रिपोर्ट बताती है कि भारत में 19 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषित हैं. कुपोषण से हर घंटे 60 बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं. दुनिया के हर चार कुपोषित लोगों में एक भारतीय है. इस आर्थिक केंद्रीकरण से लोगों के मन में लोकतंत्र को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और यह धारणा बनती जा रही है कि सारे कायदे-कानून अमीरों के लाभ के लिए बनाए जा रहे हैं. सरकारें उन्हें जनता की कीमत पर कई तरह की छूटें और सहूलियतें मुहैया कराती हैं.

आजादी के समय जितनी आबादी थी, उतने लोग तो अब गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. महानगरों में 40 फीसदी आबादी स्लम के नारकीय माहौल में रहती है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि हम एक स्तर पर हम 1,500 डॉलर प्रति व्यक्ति आयवाली अर्थव्यवस्था हैं. हम अब भी एक गरीब अर्थव्यवस्था वाला देश हैं

संयुक्त राष्ट्र प्रति व्यक्ति वार्षिक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के हिसाब से देशों की एक सूची जारी करता है. इसमें भारत 150वें स्थान पर है. मानवता की बेहतरी में योगदान के लिहाज से जारी अच्छे देशों की ताजा सूची में भारत को 70वें स्थान पर रखा गया है. सूची में 163 देशों को शामिल किया गया है. गुड कंट्री इंडेक्स विभिन्न देशों की राष्ट्रीय नीतियों और व्यवहारों के वैश्विक प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन करता है तथा दुनिया को बेहतर बनाने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके योगदान का आकलन करता है. मानव विकास सूचकांक, प्रसन्नता सूचकांक, सामाजिक प्रगति और आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा की अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों में भी हमारा देश नीचे के पायदानों पर खड़ा है. यूएनडीपी द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत ने मानव विकास सूचकांक में थोड़ी प्रगति की है. भारत का एचडीआई इंडेक्स में 130 वां स्थान है. हालांकि अब भी यह निचले पायदान पर है. मानव विकास सूचकांक के 2014 के लिए तैयार रिपोर्ट में 188 देशों के लिए जारी यह रिपोर्ट मुख्य रूप से लोगों के जीवन स्तर को दर्शाती है. यह सूचकांक मानव जीवन के प्रमुख पहलुओं पर गौर करते हुए तैयार किया जाता है. मोटे तौर पर इसे तैयार करने में औसत जीवन-काल, स्वास्थ्य, सूचना एवं ज्ञान की उपलब्धता तथा उपयुक्त जीवन स्तर को पैमाना बनाया जाता है. वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत का स्थान 118वां है और सोमालिया, चीन, पाकिस्तान, ईरान, फिलस्तीन और बांग्लादेश हमसे ऊपर हैं. वर्ष 2015 के सोशल प्रोग्रेस इंडेक्स में भारत का स्थान 101वां था. इसमें स्वास्थ्य, आवास, स्वच्छता, समानता, समावेशीकरण, सततीकरण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सुरक्षा जैसे आधार होते हैं. ग्लोबल कंपेटीटिवनेस रिपोर्ट में भारत का स्थान 55वां है. यह रिपोर्ट देशों के अपने नागरिकों को उच्च-स्तरीय समृद्धि देने की क्षमता का आकलन करती है. शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, मानवाधिकार, पर्यावरण आदि मामलों में हमारी उपलब्धियां उत्साहवर्द्धक नहीं हैं.

कृषि प्रधान देश होने के बावजूद  किसान की  स्थिति दयनीय है. 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार किसान को अपनी कृषि गतिविधियों से होने वाली आय देश के 17 राज्यों में 20 हजार रुपए सालाना है. इसमें वह अनाज भी शामिल है, जो वह अपने परिवार के लिए निकालकर रख लेता है. दूसरे शब्दों में इन राज्यों में किसान की मासिक आय सिर्फ 1,666 रुपए है. राष्ट्रीय स्तर पर एनएसएसओ ने किसान की मासिक आय प्रति परिवार सिर्फ तीन हजार रुपए आँकी गई है. कृषि की विकास दर में उत्साहजनक वृद्धि होने के बावजूद किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में किसानों की हालत दयनीय है. कर्ज के बोझ, बढ़ती महंगाई और फसल का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर हैं. 1997-2008 के दौरान देशभर में 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं.

दूसरी तरफ़ बोस्टन कंसल्टेटिंग ग्रुप की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में कम-से-कम एक मिलियन डॉलर यानी करीब साढ़े छह करोड़ रुपये की संपत्तिवाले 18.5 करोड़ परिवार हैं, जिनके पास कुल 78.8 खरब डॉलर मूल्य की संपत्ति है. यह धन सालाना वैश्विक आर्थिक उत्पादन के बराबर और कुल वैश्विक संपत्ति का करीब 47 फीसदी है. पिछले साल अक्तूबर में क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट में भी बताया गया था कि सबसे धनी एक फीसदी आबादी के पास दुनिया की करीब आधी संपत्ति है. क्रेडिट स्विस के मुताबिक भारत के एक फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 53 फीसदी तथा 10 फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 76.3 फीसदी संपत्ति है. इसका मतलब यह है कि देश की 90 फीसदी आबादी के हिस्से में एक चैथाई से कम राष्ट्रीय संपत्ति है. देश के सबसे गरीब लोगों की आधी आबादी के पास मात्र 4.1 फीसदी की हिस्सेदारी है. बोस्टन ग्रुप और क्रेडिट स्विस, दोनों की रिपोर्ट बताती है कि भारत में भी धनिकों की संख्या बढ़ी है, पर आर्थिक विकास का लाभ बहुसंख्य आबादी को नहीं मिल पा रहा है. यह भयावह आर्थिक विषमता को दर्शाती है.

ऐसी विकराल आर्थिक विषमता केवल हमारे देश में ही नहीं दुनियाभर में है. ऑक्सफॉम के एक सर्वे के मुताबिक विश्व की आधी संपत्ति पर विश्व के केवल एक प्रतिशत लोगों की मिलकियत है. 2016 में विश्व के एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास बाकी की 99 प्रतिशत आबादी से ज्यादा संपत्ति होगी. दूसरी तरफ आज विश्व में 9 में से एक व्यक्ति के पास खाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं. ऑक्सफैम का आकलन है कि यदि दुनिया के तमाम खरबपतियों पर डेढ़ फीसदी का अतिरिक्त कर लगा दिया जाये, तो गरीब देशों में हर बच्चे को स्कूल भेजा जा सकता है और बीमारों का इलाज किया जा सकता है. इससे करीब 2.30 करोड़ जानें बचायी जा सकती हैं. अगर भारत में विषमता को बढ़ने से रोक लिया जाये, तो 2019 तक नौ करोड़ लोगों की अत्यधिक गरीबी दूर की जा सकती है. यदि विषमता को 36 फीसदी कम कर दिया जाये, तो हमारे देश से अत्यधिक गरीबी खत्म हो सकती है. विषमता व्यापक असंतोष का कारण बन रही है. अगर इस संदर्भ में सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये, तो समाज खतरनाक अस्थिरता की दिशा में जाने के लिए अभिशप्त होगा.

नीति नियंता ऊंची विकास दर को ही आर्थिक समस्याओं का कागरगर हल मान लेते हैं लेकिन जब तक हर पेट को अनाज और हर हाथ को काम नहीं मिलता तब तक आर्थिक प्रगति की बात बेमानी है. भारतीय संविधान में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के सरंक्षण का उपबंध किया गया है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार है. जहां ये सारी चीजे उपलब्ध नहीं होती वहां स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है. एडम स्मिथ के अनुसार आवश्यकताओं का अभिप्रायः जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों से ही नहीं-इनमें समाज की परंपरा के अनुसार जिन चीजों का न्यूनतम वर्ग के लोगों के पास भी नहीं होना बुरा समझा जाता है, वे चीजें शामिल हैं. स्वामी विवेकानंद का यह कथन याद रखने योग्य है कि जिस देश के लोगों को तन ढंकने के कपड़े और खाने की रोटी न हो, वहां संस्कृति एक दिखावा है और विकास दिवालियापन. जरूरत इस बात की है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर अपनी प्राथमिकताओं के निर्धारण में आम आदमी के जीवन में खुशहाली लाने का लक्ष्य शामिल करे तथा उनके अनुरूप नीतिगत निर्णय लेने की इच्छाशक्ति दिखाये. अर्थव्यवस्था में बेहतरी का लाभ अगर आम लोगों तक नहीं पहुंचा. किसानों की आय नहीं बढ़ी और युवाओं को रोजगार नहीं मिला, तो दुनिया में सबसे तेज वृद्धि दर का कोई मतलब नहीं रह जाता है.

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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