अप्रैल महीने में स्वतंत्रता, समता और बंधुता और सामाजिक न्याय पर आधारित आधुनिक भारत का सपना देखने वाले दो बड़े विद्वानों-चिंतकों का जन्मदिन है। राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल, 1893) और डॉ. भीमराव अंबेडकर (14 अप्रैल,1891)। राहुल सांकृत्यायन और बाबा साहेब अंबेडकर ने अनेक मुद्दों पर एक जैसे विचार रखे। पृष्ठभूमि और भिन्नताओं के बावजूद दोनों विद्वानों के विचारों, दर्शन और इतिहास दृष्टि में बहुत कुछ समानताएं हैं। दोनों युगपरिवर्तनकार थे। दोनों विचारों में आधुनिकता को पसंद करते थे। दोनों का बाल विवाह हुआ और दोनों ने दूसरी शादी की। दोनों बौद्ध मतावलंबी बने। दोनों सामाजिक न्याय के पक्षधर थे। दोनों ही दलितों के उत्थान, जाति पर आधारित भेदभाव की समाप्ति और मनुष्य की समानता के लक्ष्यों के प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित थे।
राहुल सांकृत्यायन इतिहासविद, पुरातत्ववेत्ता, तत्त्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार, साहित्यकार के साथ-साथ एशियाई नवजागरण के प्रवर्तक-नायक थे। राहुल सांकृत्यायन की सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सक्रियता अप्रतिम है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में पैदा होकर बिना किसी औपचारिक डिग्री के महापंडित की उपाधि से विभूषित हुए थे। वे लगभग 36 भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने 140 किताबें लिखी थीं। राहुल सांकृत्यायन का समग्र जीवन ही एक यायावर की यात्रा और एक रचनाधर्मिता की यात्रा थी। वे जहां भी गए वहां की भाषा और बोलियों को सीखा और इस तरह आम-जन के साथ घुल-मिलकर वहां की संस्कृति,समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद दोनों का मिलाजुला चिंतन उनके पास था। जिसके आधार पर उन्होंने नये भारत का स्वप्न संजोया था। वे सामाजिक क्रांति के अगुआ थे।
राहुल सांकृत्यायन का मूल नाम केदारनाथ पांडे था। 1930 में बौद्ध धर्म से दीक्षित होने पर उन्होंने अपना नाम राहुल रख लिया। सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाए। उनके ज्ञान भंडार के कारण काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी। इस तरह वे केदारनाथ पांडे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गए। धर्म के पाखंड व बाह्य आडंबरों पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगांतकारी है। उन्होंने समस्याओं से भागने की बजाय दुनिया को बदलने की सीख दी। समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के खिलाफ़ उनका मन गहरी नफ़रत से भरा हुआ था। बौद्ध धर्म और दर्शन में उनकी रुचि बढ़ी क्योंकि वह उसकी जातिविहीनता की धारणा के प्रति आकृष्ट थे। बौद्ध धर्म और दर्शन के क्षेत्र में उनके अनुसंधान को आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। उनके लेखन और चिंतन में दलित समस्या और जातिवाद के खिलाफ आक्रोश दीखता है। ‘रामराज्य और मार्क्सवाद’, ‘साम्यवाद ही क्यों?’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘तुम्हारी क्षय’ और ‘बौद्ध संघर्ष’ जैसी कृतियों की रचना की।
ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बावजूद राहुल सांकृत्यायन ने ब्राह्मणवाद के समूल नाश का आह्वान किया था। उनका मानना था कि इनके नाश के बिना नए समाज की रचना नहीं की जा सकती है। अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में वह लिखते हैं कि हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात-पात भी एक है। अछूतों का सवाल, जो इसी जाति-भेद का सबसे उग्र रूप है, हमारे यहाँ सबसे भयंकर सवाल है। कितने लोग शरीर छू जाने से स्नान करना जरूरी समझते हैं। कितनी ही जगहों पर अछूतों को सड़कों से होकर जाने का अधिकार नहीं है। हिन्दुओं की धर्म-पुस्तकें इस अन्याय के आध्यात्मिक और दार्शनिक कारण पेश करती है। वे स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व पर आधारित एक उन्नत समाज का सपना देखते हैं। ‘तुम्हारी क्षय’ में वे साफ शब्दों में घोषणा करते हैं कि जात–पात का क्षय करने से ही हमारे देश का भविष्य उज्जवल हो सकता है।
बिहार के किसान आंदोलन में भी उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी थी। वर्ष 1940 के आसपास इस कारण उन्हें कई माह तक जेल में भी रखा गया था। भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जेल से निकलने पर स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक अखबार ‘हुंकार’ का उन्हें संपादक बनाया गया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि अंग्रेजों की शह पर पल रहे सामंतवाद और पूंजीवाद के गठजोड़ को तोड़े बिना किसानों की दशा नहीं सुधरेगी। विद्रोही चेतना, न्यायबोध और जिज्ञासा वृति ने उन्हें पूरी तरह से ब्राह्मणवादी जातिवादी हिन्दू संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ़ विद्रोह का जीता-जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। राहुल सांकृत्यायन के द्वारा रचित एक-एक पुस्तकों की रचना प्रक्रिया के गहन अध्ययन की जरूरत है। उनके अवदानों का संपूर्णता में मूल्यांकन नहीं हो पाना बड़ी विडंबना है। उन्हें वह मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे।
दूसरी ओर अंबेडकर आधुनिक भारत के सबसे ज्यादा विचारवान और विद्वान राजनेताओं में से हैं। अंबेडकर एक विधिवेत्ता, एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के साथ-साथ भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। अंबेडकर का जन्म हिन्दू जाति में अछूत और निचली मानी जाने वाली महार जाति में हुआ था। वह स्वयं उस वर्ग के थे, जो सामाजिक अन्याय, कुरूपताओं, विषमताओं और वंचनाओं के भुक्तभोगी थे, और इन्हीं विषमताओं ने उन्हें निरन्तर लड़ने और उन्हें दूर करने की शक्ति दी। अंबेडकर जीवनभर सामाजिक समरसता की बात करते रहे। अंबेडकर ने संविधान के जरिये एक मूक क्रांति की नींव रखी। वह क्रांति थी सदियों से चली आ रही दलितों की उपेक्षा, शोषण और उनकी वंचना के इतिहास को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के जरिये बदलने की। अंबेडकर का स्पष्ट मत था कि जातीय व्यवस्था देशविरोधी है और राष्ट्रीयता के लिए ठीक नहीं है। राष्ट्र की परिभाषा बाबा साहब फ्रांस के दार्शनिक अर्नेस्ट रेनन से लेते हैं। रेनन नहीं मानते कि एक नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, भूगोल या साझा स्वार्थ किसी जनसमुदाय को राष्ट्र बना सकते हैं।
अंबेडकर नौ भाषाओं के जानकार थे। उन्हें देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों से पीएचडी की कई मानद उपाधियां मिली थीं। उनके पास कुल 32 डिग्रियां थीं। दलित समाज को जागरूक बनाने के लिये उन्होंने एक अखबार का प्रकाशन-सम्पादन भी किया। 1923 में ’बहिष्कृत भारत’ नाम से अखबार का प्रकाशन आरंभ किया। अंबेडकर का मानना था कि किताबें मनुष्य को विचारवान बनाती हैं। उन्होंने कुछ किताबों का लेखन भी किया जिसमें ‘दी अनटेचेबल्स’,’ हू आर दी शुद्राज’, ‘दस स्पोक अंबेडकर’, ‘इमेनसिपेशन ऑफ दी अनटेचेबल्स’ प्रमुख हैं। उन्होंने ‘जाति का विनाश’ व्याख्यान में वर्णव्यवस्था की कटु आलोचना करते हुए उसे दुनिया की सबसे वाहियात व्यवस्था बताया। उनके अनुसार जाति ही भारत को एक राष्ट्र बनाने के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। अगर भारत को एक राष्ट्र बनाना है, तो जाति को समाप्त करना होगा।
अंबेडकर 1950 के दशक में ही वे बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने श्रीलंका (तब सीलोन) गए। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अंबेडकर जिस सामाजिक न्याय की अवधारणा का प्रतिपादन करते है वे नस्ल भेद, लिंग भेद और क्षेत्रीयता के भेद से मुक्त है। संविधान निर्माण में उनके इस सिद्धांत की भूमिका स्पष्ट देखी जा सकती है। उनका पूरा आंदोलन इस भेदभाव को ही लेकर था और इसीलिए उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किया था। पूना पैक्ट में था कि जिन जातियों के साथ भेदभाव किया गया, उन्हें सामाजिक न्याय मिलना चाहिए। इसी आधार पर मंडल कमीशन ने भी सामाजिक न्याय की मांग की थी। इसी आधार पर दलितों के सामाजिक न्याय की बात की जा रही है।
आज की दलित राजनीति ही नहीं, मुख्यधारा की राजनीति भी अंबेडकर को अपना आइकॉन मानती है। चुनाव आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था ने अंबेडकर को अधिकाधिक प्रासंगिक बनाया है। आज हर दल को अंबेडकर की जरूरत है। देश में कई अंबेडकरवादी पार्टियां हैं, जो उनके विचारों को नहीं, बल्कि उन्हें एक ब्रांड के रूप में अपना रही हैं। इसलिए कि देश की कुल आबादी के चौथाई हिस्से से अधिक वोट अंबेडकर के नाम के साथ जुड़े हैं। अंबेडकर को अपना बनाने की इस होड़ में इसकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है कि इस समाज के लिए अंबेडकर का विजन और रणनीतियां क्या थीं?
सामाजिक न्याय की अवधारणा एक बहुत ही व्यापक शब्द है। सामाजिक न्याय की अवधारणा का मुख्य अभिप्राय यह है कि नागरिक-नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेद न हो। सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। धार्मिक और सामाजिक शोषण के विरुद्ध उनकी जो सामाजिक न्याय की अवधारणा थी, उसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी क्योंकि धर्म, जाति के आधार पर समाज में फैला भेदभाव कभी खत्म नहीं होनेवाला है। भारत में गरीबी और आर्थिक असमानता हद से ज्यादा है। भेदभाव भी अपनी सीमा के चरम पर है, ऐसे में सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय है। भारतीय समाज बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक, बहुजातीय पैटर्न पर आधारित है। यहां सामाजिक न्याय की स्थापना एक कठिन चुनौती है। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जोकि एक चुनौती है। जहां सामाजिक न्याय को हम संविधान की आत्मा कह रहे हैं वहीं इसके विपरित समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है। अमीरों तथा गरीबों की बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो गई है। भू-स्वामी किसानों का प्रतिशत घट रहा है तथा भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज हुई है। सामाजिक न्याय के झण्डे के नीचे नव-सामान्तवाद और पूंजीवाद फल-फूल रहे हैं। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जो कि एक चुनौती है। विडम्बना है कि राहुल सांकृत्यायन और अंबेडकर के विचारों को अपने आचरण में उतारने की कहीं कोई कोशिश नहीं दिखती।
✍ हिमकर श्याम
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