Category: समाज

पानी : समाज, सरकार और संकल्प

आज नये साल का पहला दिन है,  कोई संकल्प लेने का दिन है। क्यों न इस साल की शुरुआत हम पानी पर  चिन्तimg-20161226-wa0082न के साथ करें और इसे बचाने का संकल्प लें। साथ ही नदी-तालाबों को प्रदूषित नहीं करने का संकल्प भी लें। जल संरक्षण वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है। सभ्यता काल से ही जल प्रबंधन मानव के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। जल जीवन का पर्याय है, जल के बिना जीवन की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। अमेरिकी विज्ञान लेखक,लोरान आइजली ने कहा था कि ‘हमारी पृथ्वी पर अगर कोई जादू है,तो वह जल है।’ नदियाँ हमारी जीवनदायिनी हैं लेकिन हम नदियों को इसके बदले कुछ लौटाते नहीं हैं। तमाम जल समेत अन्य प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन हो रहा है और हमारा पर्यावरण बिगड़ रहा है, जिससे प्रदूषण और जल-संकट की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। आज भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देश जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है, परंतु दुर्भाग्य से इसका अल्पांश ही पीने लायक है। पीने योग्य मीठा जल मात्र 3 प्रतिशत है, शेष भाग खारा जल है। यह जरूरी है कि भविष्य के लिए जलस्रोतों के बेहतर प्रबंधन के एकजुट होकर प्रयास किया जाये।

आँकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.5 अरब लोगों को पीने का शुध्द पानी नही मिल रहा है। 2030 तक पूरी दुनिया में जरूरत के अनुपात में 40 प्रतिशत पानी कम हो जायेगा। भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। भारत में जल भण्डार वाले इलाकों समेत कई राज्यों में भूजल का स्तर बहुत नीचे पहुँच चुका है। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान समेत कुछ अन्य राज्यों में भूजल का सर्वाधिक दोहन हो रहा है। उत्तर-पश्चिमी , पश्चिमी और प्रायद्विपीय इलाकों की स्थिति भयावह होती जा रही है। 54 फीसदी आबादी पानी की किल्लत से जूझ रही है। शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता और जल संबंधित ढेरों समस्याओं को जानने-समझने  के बावजूद हम जल संरक्षण के प्रति सचेत नहीं हैं । नदियाँ, तालाबें एवं झीलें अमूल्य धरोहरें हैं।  इन्हें बचा कर रखना हमारा दायित्व भी है। पानी के मामले में संतोषजनक समृद्धि चाहिए तो हमें अपने नदियों, तालाबों और अन्य जल स्रोतों पर विशेष ध्यान देना होगा।

नगरीकरण और औद्योगीकरण की तीव्र रफ्तार,बढ़ता प्रदूषण तथा जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि के साथ प्रत्येक व्यक्ति के लिए पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है। नदियों के किनारों पर व्यवसायिक गतिविधियाँ बढ़ जाने से नदियों के जीवतंत्र को क्षति पहुँची है। गंगा के किनारे हज़ारों फैक्ट्रियां हैं जो न केवल इसके जल के अंधाधुंध इस्तेमाल करती हैं, बल्कि उसमें भारी मात्रा में प्रदूषित कचरा भी छोड़तीं हैं।  गंगा के किनारे मौजूद शहरों से रोजाना अरबों लीटर सीवेज का गंदा और विषैला पानी निकलता है जो गंगा में बहा दिया जाता है। प्रदूषण फैलाने वाली फैक्टरियां और गंगा जल के अंधाधुंध दोहन से इस पतित पावनी नदी के अस्तित्व का ही खतरा पैदा हो गया है। गंगा किनारे 118 शहर बसे हैं, जिनसे रोज करीब 364 करोड़ लीटर घरेलू मैला और 764 उद्योगों से होने वाला प्रदूषण गंगा में मिलता है। सैकड़ों टन पूजा सामग्री गंगा में फेंकी जाती है। यमुना, दामोदर, गोमती और महानन्दा का हाल भी इससे अलग नहीं है। नदियों की अपनी पारंपरिक गति और दिशा को इस तरह प्रभावित किया जायेगा, तो जाहिर है कि इससे जल-संकट की स्थिति बढ़ती ही जायेगी। नदियाँ, झरने, ताल-तलैया,एवं जल के अन्य स्रोत सूखते होते जा रहे हैं, जो चिंता का विषय है।

भारतीय उपमहाद्वीप में बहने वाली प्रमुख नदियों में से लगभग 15 प्रमुख नदियों जैसे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, सिंधु, महानदी, तुंगभद्रा इत्यादि न जाने कितने वर्षों से भारत की पावन भूमि को सिंचित करती चली आ रही हैं। ये नदियाँ वाकई भारत एवं भारतीय लोगों की जीवन-रेखा सदृश्य हैं। इनमें गंगा मात्र नदी नहीं हैं, वह संस्कार और संस्कृति भी है। गंगा का धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्व है। गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। गंगा नदी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। गंगा को जीवन देना आसान काम नहीं है। जल की बर्बादी रोकने के लिए रिवर और सिवर को अलग-अलग करना होगा।  कूड़े-कचरे के कारण किसी समय स्वच्छ जल से भरी नदियों की स्थिति दयनीय हो गई है। इस संबंध में सरकार भी गंभीर नहीं है। सरकार को इस दिशा में विशेष योजना बनाकर कार्य करना होगा। जल संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरुकता सबसे ज्यादा जरूरी है।

जल पुरुष राजेंद्र सिंह के अनुसार केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी के पुनर्जीवन की योजना बनाई है, लेकिन हमारी समझ है कि इसके पूर्व गंगा एक्शन प्लान इसलिए सफल नहीं हो सका, क्योंकि इसमें आम लोगों की भागीदारी नहीं थी। लोगों को लगा कि की यह तो सरकार का काम है, जबकि 40-50 साल पहले बिना किसी फंडिंग, प्रोजेक्ट या एक्शन प्लान के हमारी नदियां साफ थीं, निर्मल थीं, अविरल थीं। लोग, नदियों को इस स्थिति में रखने को प्राथमिक जिम्मेदारी मानते थे। गंगा तो मां मानी जाती है। लोगों में फिर से यही सोच विकसित करनी होगी। नदियों के किनारे बसे गांव का समाज अपने सामुदायिक जल प्रबंधन पर उतर आए, तो नदियों भविष्य बेहतर हो सकता है। राजेंद्र सिंह रविवार को पटना में ख्यात पर्यावरणविद गांधीवादी अनुपम मिश्र को समर्पित अक्षधा फाउंडेशन द्वारा आयोजित ‘पानी : समाज और सरकार’ विषयक संगोष्ठी में बोल रहे थे। इस संगोष्ठी में सिर्फ एक ही बात की गूंज थी कि कैसे स्कूलों सामुदायिक संगठनों व आम नागरिकों के बीच जल साक्षरता बढाकर इन्हें जागरूक किया जाय। राजेंद्र सिंह ने केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा से कहा कि अगर वाकई आगे की पीढ़ियों के लिए जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है, तो देश में जल साक्षरता शुरू करानी होगी। बच्चों को बचपन से ही स्कूलों में पानी की महत्ता, इसके संरक्षण के बारे में पूरा-पूरा बताना होगा। चूंकि अब इस मोर्चे पर दूसरा उपाय बच नहीं गया है। उपेंद्र कुशवाहा ने इससे पूरी सहमति जताई। उपेंद्र कुशवाहा ने भारतीय जीवन, संस्कृति में नदियों की अहमियत को बताया। उन्होंने कहा कि नदियों के बारे में समाज को भी अपनी ड्यूटी समझना जरूरी है।

अनुपम मिश्र जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी पर्यावरणविद थे। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के अनुपम मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली, वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं हो पाया है। उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर  में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ है। इसी तरह  उतराखंड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया। पानी पर एक अरसे से काम कर रहे मेरे पत्रकार मित्र पंकज मालवीय का मानना है कि नदियों को उसके मूल नैसर्गिक रूप में वापस लाया जाना बेहद जरूरी है।  बिना जन-भागीदारी के गंगा और दूसरी नदियों को गंदा होने से नहीं रोका जा सकता। गंगा समेत अन्य नदियों को बचाने के लिए जरूरी है कि बाँधों, गादों और प्रदूषण से इन्हें मुक्त कराना होगा।

गंगा की सफाई के अब तक सारे प्रयास असफ़ल हुए हैं। कानून और नियम तो बनाये गए , लेकिन उनको लागू करने में कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई। नमामि गंगे योजना के नाम से गंगा जी को स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त करने हेतु चलाई गई योजना कोई पहली योजना नहीं है। गंगा प्राधिकरण की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी कि गंगा नदी को स्वच्छ व प्रदूषणमुक्त बनाया जा सके। परंतु केवल इस पावन उद्देश्य हेतु सैकड़ों करोड़ का बजट आबंटित कर देने से  कुछ भी हासिल होने वाला नहीं।  गंगा की स्वच्छता का कोई भी अभियान इसके किनारे रहने वाले लोगों को उससे जोड़े बिना मुमकिन नहीं है। जब तक इस विषय पर लोगों में जागरुकता नहीं आती, तब तक इस लक्ष्य को किसी भी अधिनियम अथवा कानून से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।

तेजी से शहरों का विकास हो रहा है। अंधाधुंध विकास. पेड़ों को काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं। तालाबों को पाटकर शॉपिंग मॉल खड़े हो रहे हैं। शहर का सारा कचरा नदियों में बहाया जा रहा है। नदी तटों पर भी अतिक्रमण हो रहा है। पानी की उपलब्धता व गुणवत्ता दोनों का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। पानी के प्रति लोगों में जागरुकता का अभाव है। इसमें विशेष तौर से निर्धनतम समुदाय, उनमें भी महिलाओं में जागरूकता की अत्यधिक कमी देखने को मिलती है। यह अभियान तभी सफल होगा, जब जन-भागीदारी हो। हम सभी का योगदान हो, इसके लिए पहले पानी के संकट की भयावहता को समझना होगा। पानी पर बात करने को सभी तैयार रहते हैं, किन्तु पानी बचाने और उसका सही प्रबंधन करने के प्रश्न पर सीधी भागीदारी की बात जब आती है तब लोग किनारा कर जाते हैं। समाज की सहभागिता के बगैर नदियों का संरक्षण संभव नहीं है। किनारों पर अवस्थित गाँवों में रहने वाले लोग संकल्प लेना होगा कि वे नदियों के जल को प्रदूषित नहीं करेंगे।  जल प्रकृति का एक अनिवार्य घटक है। जल से ही जीवन है। इस अनमोल प्राकृतिक संपदा के संरक्षण हेतु सभी को संगठित होकर अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए। आधुनिक शिक्षा पद्धति में पानी के सन्दर्भ में जितनी अल्प जानकारी  उपलब्ध है वह यहां की नई पीढ़ी की पानी के प्रति समझ बनाने के लिए अपर्याप्त है। आइए इस वर्ष हम एक-एक बूंद पानी बचाने का हम संकल्प लें।

✍ हिमकर श्याम

काव्य रचनाओ के लिए मुझे इस लिंक पर follow करे. धन्यवाद.

http://himkarshyam.blogspot.in/

समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का अँधेरा

भारत आज विश्व में एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है. आर्थिक संभावनाओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है, लेकिन ऊं%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b7%e0%a4%ae%e0%a4%a4%e0%a4%beची विकास दर का लाभ एक छोटे-से वर्ग तक सीमित रहा है. नतीजतन, एक तरफ विकास की चकाचौंध दिखाई देती है तो दूसरी तरफ वंचितों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही है. समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का अँधेरा कड़वी सच्चाई है. आंकड़ों के खेल में देश की वास्तविक तस्वीर को नजरअंदाज किया जाता रहा है. निरंतर यह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत अब विश्व के शक्तिशाली और संपन्न देशों की सूची में शामिल हो गया है. मीडिया के माध्यम से आर्थिक सफलताओं के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं. मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है का स्लोगन खूब सुनाया जा रहा है. एक ओर चमचमाती सड़कें और उनपर दौड़ती महँगी गाड़ियों की तसवीरें हैं तो दूसरी ओर अपनी पत्नी की लाश कांधे पर उठाकर मीलों चलते दाना मांझी और उसकी बिलखती बच्ची की तस्वीर. तेज रफ्तार आर्थिक विकास के बावजूद भारत की 30.35 फीसदी आबादी अब भी गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे गुजर-बसर कर रही है. 22 फीसदी भारतीय बेहद गरीब हैं, जो रोजाना आधे डॉलर से भी कम पर गुजारा करते हैं.

यह सही है कि देश में पहले के मुकाबले समृद्धि आई है. पिछले दो दशकों में भारत की आय में जबरदस्त वुद्धि हुई है. देश में पांच से दस करोड़ प्रतिमाह वेतन पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है. भारत में अरबपतियों की तदाद लगातार बढ़ती जा रही है. आम लोगों का जीवन स्तर पहले से सुधरा है, किंतु इसके साथ आर्थिक विषमता ने भी विकराल रूप ले लिया है. संयुक्त राष्ट्र की सहस्राब्दी वैश्विक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के बेहद गरीब लोगों में करीब एक तिहाई भारत में हैं. रिपोर्ट बताती है कि भारत में 19 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषित हैं. कुपोषण से हर घंटे 60 बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं. दुनिया के हर चार कुपोषित लोगों में एक भारतीय है. इस आर्थिक केंद्रीकरण से लोगों के मन में लोकतंत्र को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और यह धारणा बनती जा रही है कि सारे कायदे-कानून अमीरों के लाभ के लिए बनाए जा रहे हैं. सरकारें उन्हें जनता की कीमत पर कई तरह की छूटें और सहूलियतें मुहैया कराती हैं.

आजादी के समय जितनी आबादी थी, उतने लोग तो अब गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. महानगरों में 40 फीसदी आबादी स्लम के नारकीय माहौल में रहती है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि हम एक स्तर पर हम 1,500 डॉलर प्रति व्यक्ति आयवाली अर्थव्यवस्था हैं. हम अब भी एक गरीब अर्थव्यवस्था वाला देश हैं

संयुक्त राष्ट्र प्रति व्यक्ति वार्षिक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के हिसाब से देशों की एक सूची जारी करता है. इसमें भारत 150वें स्थान पर है. मानवता की बेहतरी में योगदान के लिहाज से जारी अच्छे देशों की ताजा सूची में भारत को 70वें स्थान पर रखा गया है. सूची में 163 देशों को शामिल किया गया है. गुड कंट्री इंडेक्स विभिन्न देशों की राष्ट्रीय नीतियों और व्यवहारों के वैश्विक प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन करता है तथा दुनिया को बेहतर बनाने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके योगदान का आकलन करता है. मानव विकास सूचकांक, प्रसन्नता सूचकांक, सामाजिक प्रगति और आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा की अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों में भी हमारा देश नीचे के पायदानों पर खड़ा है. यूएनडीपी द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत ने मानव विकास सूचकांक में थोड़ी प्रगति की है. भारत का एचडीआई इंडेक्स में 130 वां स्थान है. हालांकि अब भी यह निचले पायदान पर है. मानव विकास सूचकांक के 2014 के लिए तैयार रिपोर्ट में 188 देशों के लिए जारी यह रिपोर्ट मुख्य रूप से लोगों के जीवन स्तर को दर्शाती है. यह सूचकांक मानव जीवन के प्रमुख पहलुओं पर गौर करते हुए तैयार किया जाता है. मोटे तौर पर इसे तैयार करने में औसत जीवन-काल, स्वास्थ्य, सूचना एवं ज्ञान की उपलब्धता तथा उपयुक्त जीवन स्तर को पैमाना बनाया जाता है. वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत का स्थान 118वां है और सोमालिया, चीन, पाकिस्तान, ईरान, फिलस्तीन और बांग्लादेश हमसे ऊपर हैं. वर्ष 2015 के सोशल प्रोग्रेस इंडेक्स में भारत का स्थान 101वां था. इसमें स्वास्थ्य, आवास, स्वच्छता, समानता, समावेशीकरण, सततीकरण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सुरक्षा जैसे आधार होते हैं. ग्लोबल कंपेटीटिवनेस रिपोर्ट में भारत का स्थान 55वां है. यह रिपोर्ट देशों के अपने नागरिकों को उच्च-स्तरीय समृद्धि देने की क्षमता का आकलन करती है. शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, मानवाधिकार, पर्यावरण आदि मामलों में हमारी उपलब्धियां उत्साहवर्द्धक नहीं हैं.

कृषि प्रधान देश होने के बावजूद  किसान की  स्थिति दयनीय है. 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार किसान को अपनी कृषि गतिविधियों से होने वाली आय देश के 17 राज्यों में 20 हजार रुपए सालाना है. इसमें वह अनाज भी शामिल है, जो वह अपने परिवार के लिए निकालकर रख लेता है. दूसरे शब्दों में इन राज्यों में किसान की मासिक आय सिर्फ 1,666 रुपए है. राष्ट्रीय स्तर पर एनएसएसओ ने किसान की मासिक आय प्रति परिवार सिर्फ तीन हजार रुपए आँकी गई है. कृषि की विकास दर में उत्साहजनक वृद्धि होने के बावजूद किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में किसानों की हालत दयनीय है. कर्ज के बोझ, बढ़ती महंगाई और फसल का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर हैं. 1997-2008 के दौरान देशभर में 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं.

दूसरी तरफ़ बोस्टन कंसल्टेटिंग ग्रुप की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में कम-से-कम एक मिलियन डॉलर यानी करीब साढ़े छह करोड़ रुपये की संपत्तिवाले 18.5 करोड़ परिवार हैं, जिनके पास कुल 78.8 खरब डॉलर मूल्य की संपत्ति है. यह धन सालाना वैश्विक आर्थिक उत्पादन के बराबर और कुल वैश्विक संपत्ति का करीब 47 फीसदी है. पिछले साल अक्तूबर में क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट में भी बताया गया था कि सबसे धनी एक फीसदी आबादी के पास दुनिया की करीब आधी संपत्ति है. क्रेडिट स्विस के मुताबिक भारत के एक फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 53 फीसदी तथा 10 फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 76.3 फीसदी संपत्ति है. इसका मतलब यह है कि देश की 90 फीसदी आबादी के हिस्से में एक चैथाई से कम राष्ट्रीय संपत्ति है. देश के सबसे गरीब लोगों की आधी आबादी के पास मात्र 4.1 फीसदी की हिस्सेदारी है. बोस्टन ग्रुप और क्रेडिट स्विस, दोनों की रिपोर्ट बताती है कि भारत में भी धनिकों की संख्या बढ़ी है, पर आर्थिक विकास का लाभ बहुसंख्य आबादी को नहीं मिल पा रहा है. यह भयावह आर्थिक विषमता को दर्शाती है.

ऐसी विकराल आर्थिक विषमता केवल हमारे देश में ही नहीं दुनियाभर में है. ऑक्सफॉम के एक सर्वे के मुताबिक विश्व की आधी संपत्ति पर विश्व के केवल एक प्रतिशत लोगों की मिलकियत है. 2016 में विश्व के एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास बाकी की 99 प्रतिशत आबादी से ज्यादा संपत्ति होगी. दूसरी तरफ आज विश्व में 9 में से एक व्यक्ति के पास खाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं. ऑक्सफैम का आकलन है कि यदि दुनिया के तमाम खरबपतियों पर डेढ़ फीसदी का अतिरिक्त कर लगा दिया जाये, तो गरीब देशों में हर बच्चे को स्कूल भेजा जा सकता है और बीमारों का इलाज किया जा सकता है. इससे करीब 2.30 करोड़ जानें बचायी जा सकती हैं. अगर भारत में विषमता को बढ़ने से रोक लिया जाये, तो 2019 तक नौ करोड़ लोगों की अत्यधिक गरीबी दूर की जा सकती है. यदि विषमता को 36 फीसदी कम कर दिया जाये, तो हमारे देश से अत्यधिक गरीबी खत्म हो सकती है. विषमता व्यापक असंतोष का कारण बन रही है. अगर इस संदर्भ में सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये, तो समाज खतरनाक अस्थिरता की दिशा में जाने के लिए अभिशप्त होगा.

नीति नियंता ऊंची विकास दर को ही आर्थिक समस्याओं का कागरगर हल मान लेते हैं लेकिन जब तक हर पेट को अनाज और हर हाथ को काम नहीं मिलता तब तक आर्थिक प्रगति की बात बेमानी है. भारतीय संविधान में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के सरंक्षण का उपबंध किया गया है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार है. जहां ये सारी चीजे उपलब्ध नहीं होती वहां स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है. एडम स्मिथ के अनुसार आवश्यकताओं का अभिप्रायः जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों से ही नहीं-इनमें समाज की परंपरा के अनुसार जिन चीजों का न्यूनतम वर्ग के लोगों के पास भी नहीं होना बुरा समझा जाता है, वे चीजें शामिल हैं. स्वामी विवेकानंद का यह कथन याद रखने योग्य है कि जिस देश के लोगों को तन ढंकने के कपड़े और खाने की रोटी न हो, वहां संस्कृति एक दिखावा है और विकास दिवालियापन. जरूरत इस बात की है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर अपनी प्राथमिकताओं के निर्धारण में आम आदमी के जीवन में खुशहाली लाने का लक्ष्य शामिल करे तथा उनके अनुरूप नीतिगत निर्णय लेने की इच्छाशक्ति दिखाये. अर्थव्यवस्था में बेहतरी का लाभ अगर आम लोगों तक नहीं पहुंचा. किसानों की आय नहीं बढ़ी और युवाओं को रोजगार नहीं मिला, तो दुनिया में सबसे तेज वृद्धि दर का कोई मतलब नहीं रह जाता है.

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

मेरी काव्य  रचनाओ  के लिए मुझे इस लिंक पर follow करे. धन्यवाद.

http://himkarshyam.blogspot.in/

 

द ग्रेट इंडियन फैमिली : बिखराव की व्यथा

भारत तेजी से बदल रहा  है। हर क्षेत्र में बदलाव की इबारत लिखी जा रही है। आर्थिक-सामाजिक बदलाव का सबसे ज्यादा दबाव परिjoint indian familyवारों पर है। परिवार नामक संस्था विखंडित हो रही है। अब नाम मात्र  के संयुक्त परिवार बचे हैं जिनमें तीन-चार पीढ़ियां एक साथ रहती हों और न ऐसे आदर्श एकल परिवार बचे हैं जिनके सदस्य सुखपूर्वक एकसाथ रहते हों। शहरों में दो पीढ़ी वाले एकल परिवार ही ज्यादा नजर आते हैं,  इस एकल परिवार में भी समस्याएं बढ़ रही है। एकल परिवारों से माता-पिता भी परिवार से बेदखल हो रहे हैं। जिन्दगी व्यस्त होती जा रही है। नयी पीढ़ी के पास घर की ओर देखने का भी समय नहीं है। उत्तर आधुनिक भारत में एक नये समाज का उदय हो रहा है जो अपनी भौतिक, पेशागत और यौन महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए परंपरागत बंधनों को तोड़ रहा है। निजता, व्यक्तिगत पसंद को ज्यादा तरजीह दी जाने लगी है। निजी पसंद और निजता आज का खास मंत्र बन गई है। निजी स्वतंत्रता मिल जाने के परिणामस्वरूप परिवार के सदस्यों की व्यक्तिगत रूचि और नवीन आदर्शों का महत्व अधिक बढ़ गया है। परिवार एक औपचारिक संगठन बन कर रह गया है। पारिवारिक नियंत्राण कमजोर हुआ है। विवाह और व्यक्तिगत मामलों में अब स्वतंत्र निर्णय लिये जाने लगे हैं। सामाजिक मान्यता और मर्यादा से जकड़े संबंधों के दिन अब लदने लगे हैं। उभरते नये भारत का यह सबसे बड़ा स्याह पक्ष है।

सामाजिक ताना-बाना बदलने के साथ शहरी भारतीय भी बदल रहा है। नातेदारी तेज़ी से कम हो रही है।रिश्तों में विश्वास की कमी आई है। हर कोई आज़ाद रहना पसंद करता है। नये भारत में गांधीवादी मितव्ययिता गायब हो चुकी है। नयी पीढ़ी मॉल में खरीददारी करती है, निजी स्कूलों और अस्पतालों को तरजीह देती है और इंटरनेट की वचुअर्ल दुनिया में ज्यादा समय बिताती है। शहरी भारत चौबीस घंटे दुनिया भर से जुड़ा है और ग्रामीण भारत में टीवी क्रांति का भरपूर असर है। निजी नेटवर्क वाले चैनलों ने समाज में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है। इंटरनेट इससे एक कदम आगे निकल गया है। इंटरनेट दुनिया को समेट कर लोगों तक तो ले आ रहा है लेकिन साथ ही यह पारिवारिक और सामाजिक जीवन को खत्म भी करने लगा है। शोध के अनुसार नेट पर ज्यादा समय बितानवाले लोगों को अकेलापन ज्यादा रास आने लगता है। इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में रहनेवाले लोगों ने अपने लिए एक नया समाज गढ़ लिया है। वास्तविक रिश्तों के अपेक्षा आभासी रिश्तों का दायरा बढ़ा है। सोशल नेटवर्किंग के तौर तरीके भिन्न हैं। सामाजिक नेटवर्क समूहों पर प्रवेश करने की औपचारिकताएं पूरी करते ही वे एक अलग दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं।

व्यक्ति और परिवार  : मानव जीवन की सबसे बड़ी विशेषता उसका सामाजिक स्वरूप है। महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के नाते सभी मनुष्य एक-दूसरे से अंतःक्रिया करते हैं। इस अंतःक्रिया के बिना न तो हम समाज की कल्पना कर सकते हैं, न संस्कृति की और न ही मनुष्य के स्वाभाविक स्वरूप की। परिवार के विकास के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि इसका आरंभ सबसे पहले संतानोत्पति की दिशा में लक्षित था जो बाद में समाज की एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्राथमिक इकाई का रूप धारण करता चला गया। परिवार के महत्व पर मैकीवर और पेज ने कहा है कि समाज द्वारा बनाये गये सभी छोटे-बड़े संगठनों में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसका समाजशास्त्रीय दृष्टि से उतना अधिक महत्व है जितना परिवार का। वह सामाजिक जीवन को असंख्य रीतियों से प्रभावित किया करता है और जब-जब इसमें कोई परिवर्तन होते हैं तब-तब समाज की रचना में भी उसी अनुपात में परिवर्तन हो जाया करते हैं।

family शब्द का उद्गम लैटिन शब्द famulas से हुआ है जिसका अर्थ है सेवक यानि एक ऐसा समूह जिसके सदस्य सेवा-भाव से एक-दूसरे के साथ रहते हैं। परिवार एक ऐसा समूह है जिसमें माता-पिता, बच्चे, नौकर और दास हों। इनमें से किसी भी एक के अभाव में हम परिवार न कह कर उसे (household) गृहस्थ कहेंगे।

व्यक्ति और समाज के जीवन में परिवार का महत्व साधारण नहीं बल्कि व्यापक और गहरा है। मनुष्य जब पैदा होता है तब न तो उसमें कोई मानवीय गुण होते हैं और न ही कोई सामाजिक गुण। औरों के सान्निध्य और संपर्क में रह कर ही वह इन गुणों को सीखता है। परिवार की छत्रछाया में पहली बार बालक का परिचय अपने समाज में प्रचलित विभिन्न धारणाओं से होता है। परिवार ही एकमात्र संगठन है जो उसे सुसंस्कारित बनाने की दिशा में सबसे पहले प्रवृत्त होता है और उसे यह बताना प्रारंभ करता है कि समाज में रहते हुए उसे किन आचरणों को करना है और किन आचरणों को नहीं। किन परंपराओं के अनुकूल चलना है और किन परंपराओं के प्रतिकूल। समाज की आधारभूत मान्यताओं और विश्वासों को व्यक्ति के मन में प्रतिष्ठित करने का कार्य भी परिवार के द्वारा ही किया जाता है, क्योंकि वही व्यक्ति को समाज की सांस्कृतिक परंपराओं के हस्तान्तारण का माध्यम होता है। ऐसा करके वह व्यक्ति और समाज के बीच तथा एक पीढ़ी और दूसरी के बीच संस्कृति की निरंतरता को कायम करता है।

भारतीय समाजिक संरचना की एक विशेषता के रूप में यहां संयुक्त परिवार का प्राचीनकाल से ही महत्व रहा है। हिन्दूओं के अलावा अहिन्दू लोगों में भी संयुक्त प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था पायी जाती रही है। सामान्यतः संयुक्त परिवार हिन्दूओं का विशिष्ट लक्षण माना गया है। भारतीयों के लिए परिवार का वही अर्थ है जो अंग्रेजी में जॉइंट फैमिली से लिया जाता हैं, संयुक्त परिवार की अवधारणा मूलतः भारतीय अवधारणा ही है। भारत में परिवार का शास्त्रीय स्वरूप संयुक्त परिवार का रहा है। हिन्दूओं में विवाह और परिवार को धर्म का अंग माना गया है। गृहस्थ आश्रम सभी आश्रम का मूल कहा गया है।

वैदिक युग में कृषि ही महत्वपूर्ण व्यवसाय था और इस कार्य को करने के लिए अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती थी जिसे परिवार ने संयुक्त रूप से निभाया। प्राचीन वैदिक परिवार पितृ-स्थानीय, पितृ वंशीय एवं पितृ सत्तात्मक होते थे। अनेक वैदिक मंत्र में भी इस बात का उल्लेख है। ऋग्वैदिक आर्यो में स्वस्थ पारिवारिक जीवन की नींव पड़ चुकी थी और उसमें विवाह-बंधन पावन और अटूट माना जाने लगा था। पति और पत्नी के अतिरिक्त आर्यों के परिवार में माता-पिता, भ्राता-भगिनी, पुत्र-पुत्री आदि भी रहते थे। साधारणतया इनमें पारस्परिक स्नेह बना रहता था और जीवन की सहृदयता कामना की वस्तु थी। मध्ययुग में व्यक्ति का जीवन सुसंगठित समूह के जीवन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। उसके जीवन की जो भी सीमाएं अथवा संकीर्णता रही हों, व्यक्ति सदा अपने को ग्राम समुदाय का, एक जाति का अपने कुल का, अंग अनुभव करता था।  उसमें अपनी सुरक्षा की भावना वर्तमान रहती थी।

पाणिनीकालीन भारतीय परिवार : पाणिनीकालीन भारत में संयुक्त परिवार की प्रथा बड़े नपे-तुले ढ़ंग से चलती थी। समाज के प्राचीन संगठन में समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई गृह थी। प्रत्येक गृहपति अपने घर का प्रतिनिधि माना जाता था। सामान्यतः गृहपति का स्थान पिता का था। विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होनेवाले व्यक्ति को गृहपति कहा जाता था। विवाह में प्रज्जवलित हुई अग्नि गार्हपत्य कहलामी थी, क्योंकि गृहपति उससे जुड़ा रहता था। विवाह के समय का अग्निहोम एक यज्ञ था। उस यज्ञ में पति के साथ विधिपूर्वक संयुक्त होने के कारण विवाहिता स्त्री की संज्ञा पत्नी होती थी। घर या कुटुंब का बड़ा बूढ़ा वृद्ध या वंश्य कहलाता था। उसके जीवनकाल में दूसरे लोग चाहे वे किसी भी आयु के हों, युवा कहलाते थे। कुटुंब के वृद्ध और युवा सदस्यों में नामों में भिन्न-भिन्न प्रत्ययों का प्रयोग होता था। गर्ग कुल के वृद्ध या वंश्य की संज्ञा गार्ग्य और उसी कुटुंब के युवा सदस्यों की संज्ञा गार्ग्यायण होती थी। पाणिनी ने वृद्ध और युवा प्रत्ययों से बननेवाले नामों पर जो इतना ध्यान दिया है, उसका सामाजिक पहलू था और जीवन में उसका वास्तविक उपयोग और महत्व था। पिता के उपरांत पुत्र उसके स्थान पर अपने कुटुम्ब का प्रतिनिधित्व करने का अधिकारी था। बड़े भाई के जीवित रहते हुए सब छोटे भाई युवा कहलाते थे। ज्येष्ठ भाई यदि गार्ग्य पदवी धारण करता तो उसके जीवनकाल में सब छोटे भाई गार्ग्यायण संज्ञा के अधिकारी थे। किंतु कोई बड़ा-बूढ़ा, दादा, ताऊ-चाचा उस कुटुंब में जीवित हो तो अपने पिता की दृष्टि से जिस गार्ग्यायण ने गार्ग्य पद प्राप्त कर लिया था वह बड़े-बूढ़े ताऊ-चाचा की दृष्टि से गार्ग्यायण ही कहलाता था। बिरादरी की पंचायतों में प्रायः बड़ा-बूढ़ा ताऊ-चाचा ही उस कुटुंब का प्रतिनिधित्व करता रहता था। समाज के इसी महत्वपूर्ण नियम का परिचायक पाणिनी का सूत्र है- सात पीढ़ी तक का कोई बड़ा-बूढ़ा जीता हो तो उसके जीते जी अपने परिवार का गार्ग्य भी गार्ग्यायण कहला सकता था। प्रत्येक जनपद में फैले हुए कुलों के इस ताने-बाने को गार्हपत कहते थे। बेटे-पोते, नाती-नतिनी आदि से परिपूर्ण परिवार के लिए पुत्र पौत्रीण या बहुप्रज शब्द का प्रयोग किया जाता था।

संयुक्त परिवार : जब हिन्दू परिवार की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले उसकी संयुक्तता के दर्शन होते हैं। उसके अंतर्गत समस्त कुटुम्बीजन सम्मिलित रूप से एक ही मकान में निवास करते हैं। उसका पाट इतना सीमित नहीं दिखायी देता कि उसके अंतर्गत केवल माता-पिता और उसकी संतत्तियों मात्र का ही समावेश होता हो। ऐसे परिवार की सीमाएं बड़ी ही विशाल है उसका आकार चाहे जितना भी बड़ा हो सकता है। महर्षि बृहस्पति ने भी हिन्दू परिवार को एक ऐसी समिति की संज्ञा दी है जिसकी अपनी एक संयुक्त पाकशाला होती है। इससे उसकी प्रवृत्ति की संयुक्तता का बोध होता है। शास्त्रों में इस बात के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं कि हिन्दू परिवारों के सभी सदस्य एक ही हवन-कुण्ड के चारों ओर इकट्ठे होकर सम्मिलित रूप से अपनी दिन-प्रतिदिन की संध्या और उपासना किया करते थे। प्राचीन काल में भी इकट्ठे हो कर वैदिक संस्कारों को पूरा करने की परंपरा थी।

हिन्दू लॉ ऐण्ड कस्टम में जॉली ने लिखा है कि संयुक्त परिवार के अंतर्गत माता-पिता, संतत्तियों और सगे-सौतेल भाईयों मात्र का ही समावेश नहीं पाया जाता बल्कि इसके अंतर्गत अधिकतर भूत, भविष्य और वर्तमान की अनेक पीढ़ियों के लोग मिलकर साथ-साथ रहते हैं और सम्मिलित रूप से कौटुम्बिक संपत्ति  का भोग करते हैं। आमतौर पर तीन पीढ़ी तक के लोगों की गणना परिवार के सदस्यों के रूप में की जाती है। कभी-कभी तो यह संख्या चार पीढ़ियों तक चली जाती है।

हिन्दू कानून में संयुक्त परिवार में वे सब व्यक्ति आते हैं, जो एक सामान्य पूर्वज के वंशज हैं, इसमें उनकी पत्नियां और अविवाहित लड़कियां भी आती हैं। विवाहित लड़कियां अपने पिता के संयुक्त परिवार की सदस्य नहीं बल्कि पति के संयुक्त परिवार की सदस्य बन जाती हैं। हिन्दू संयुक्त परिवार के सदस्य भोजन व पूजा की दृष्टि से भी संयुक्त रहते हैं और संपत्ति की दृष्टि से भी। आमतौर पर तीन पीढ़ियों तक के लोगों की गणना परिवार के सदस्यों के रूप में की जाती रही है।

पितृवंशीय संयुक्त परिवार में सबसे बड़े पुरूष की स्थिति सर्वोच्च होती है, वहीं कर्त्ता कहलाता है। कर्त्ता  परिवार की ओेर से परिवार के लिए सारे कार्य करता है। प्राचीन साहित्य में कर्ता के लिए गृहपति, कुटुंबी और गृही जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। कर्त्ता की पत्नी का परिवार में दूसरा स्थान होता है। परिवार में कर्त्ता के भाईयों व उनके पुत्रों के अलावा पूत्रवधूएं और परिवार की अविवाहित लड़कियां रहती हैं। संयुक्त परिवार में कर्ता के मृत्यु के बाद उसका स्थान यदि अन्य भाई है तो वह संभालता है।

संयुक्त परिवार में हर व्यक्ति खुद को सुरक्षित महसूस करता है। बच्चों को परिवार में ही हमउम्र साथी मिल जाते हैं और उन्हें पारिवारिक व सामाजिक जीवन मूल्यों और संस्कारों को सीखने का मौका मिलता है। संयुक्त परिवार में वयोवृद्ध व्यक्तियों का विशेष स्थान होता है। वे अपने अनुभवों के आधार पर भावी पीढ़़ी को निर्देशित करते हैं तथा बच्चों के लालन-पालन में भी सहयोग देते हैं। संयुक्त परिवार में माता-पिता का ऊंचा स्थान है। उपनिषद में भी माता-पिता की देवता की तरह पूजा करने की बात कही गयी है। मनुस्मृति में पिता को प्रजापति की मूर्ति बताया गया है और माता का स्थान पिता से हजार गुणा ऊंचा बताया गया है। पराशर ने पुत्रों के लिए पिता को परम देवता माना है।

बदलाव का दौर  : प्रौद्योगिकी के विस्तार और बदल रही अर्थव्यस्था में लोग एक नया मानसिक रवैया अपना रहे हैं। इस नयी अर्थव्यवस्था में भौतिक सुख, निजी स्वार्थ, पद और पैसा सबकुछ है। आधुनिकता एवं पश्चिमी जीवनशैली ने हमारे सामाजिक-नैतिक मूल्यों, आदर्शां, संस्कृति तथा हमारी समृद्धशाली परंपरा को छिन्न-भिन्न कर दिया है। जीवन के हर क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का घुसपैठ होने लगा है। तकनीक जब पांव पसारती है तो सुविधाओं के साथ-साथ अपनी संस्कृति, समाज और अर्थ व्यवस्था खुद गढ़ती है। बाजारवाद और स्वार्थी कलाबाजियां आम आदमी को उपभेक्ता बनाने के लिए तैयार खड़ी है। हमारी पुरातन लेकिन सनातन सभ्यता के पांव भूमंडलीकरण और बाजारवाद के झंझावत में उखड़ने लगे हैं। समाज दो संस्कृतियों के बीच फंसा हुआ है-एक तेजी से लुप्त हो रही संस्कृति, जो कल तक की सुन्दरतम उपलब्धि थी, दूसरी विचारात्मक संस्कृति जिसे वह ग्रहण नहीं कर पा रहा है। समाज न तो पुराने आदर्शों को जीवित रख पा रहा हैं और न नये आदर्शां का सृजन कर पा रहा है। समाजशास्त्री मानस राय कहते हैं कि वैश्वीकरण के बाद उभरी इस पीढ़ी को वास्तव में किसी बड़ी मुसीबत का सामना करने का अनुभव नहीं है। उन्होंने न तो विभाजन और न ही आजादी के बाद की आर्थिक त्रासदी की पीड़ा झेली है। वास्तव में इन अधिकांश युवाओं के जीवन की यही सबसे बड़ी समस्या है। वे अमीर बनना चाहते हैं, अमीरों की तरह रहना चाहते हैं और इसके लिए कठोर परिश्रम करने को भी तैयार हैं।

किसी भी रिश्ते की बुनियादी विश्वास और त्याग पर टिकी होती है। लेकिन आज के दौर में रिश्तों से दोनों ही आधार लुप्त हो रहे हैं। यह परिवार नाम की संस्था के नैतिक और बुनियादी मूल्यों की जाने-अनजान अवहेलना का नतीजा है। संयुक्त परिवारों के टूटने से युवाओं का भावनात्मक अवलंब जाता रहा, जो उन्हें सहारा दे सकता था, एकल परिवार में जहां माता-पिता दोनों कामकाजी होते हैं, बच्चों में पर्याप्त सामाजिक मूल्य नहीं भरे जाते। अपने बुजुर्गां की देखभाल के लिए मशहूर इस देश में वृद्धावस्था अभिशाप बनती जा रही है। पुलिस फाइलें बताती है कि बुजुर्गां के विरूद्ध किये जानेवाले अपराघों की संख्या बड़ी है। हर दिन मीडिया में बुजुर्ग अभिभावकों के संत्रास की खबरें मिल जाती हैं। इन्हें उन्हें घर से निकाल देने और उनके साथ अभद्र व्यवहार की खबरें भी सुनने में आती रहती है। बुजुर्ग खुद को दुर्बल, एकाकी या त्यागा हुआ महसूस कर रहे हैं। उनके बच्चे अब अपने बच्चों और माता-पिता की देखभाल की दुविधा में फंसे हुए हैं। शहरी पेशेवर के पास पैसा है लेकिन अपने माता-पिता के लिए समय नहीं है। टीवी, मोबाइल जैसे उपभोक्तावादी वस्तुओं और ग्लोबल शहरी संस्कृति ने भी परिवार को प्रभावित किया है। लोग अपने ही परिवार में बेगानों की तरह रह रहे हैं। चमकता कैरियर, उपभोग की लालसा और बेतुकी प्रतिस्पर्धा की वजह से बच्चों का जीवन भी प्रभावित हुआ है।

तेजी से बदल रहे भारतीय समाज में युवावर्ग व्यग्र, असंतुष्ट और हताश दिख रहा है। युवाओं में एलियेनेशन की समस्या बढ़ रही है। एलियेनेशन एक प्रकार का सामाजिक अलगाव है। ऐलियेनेशन एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति समाज के अपेक्षाओं का अनुपालन नहीं कर समाज से विमुख हो जाता है। ऐसा अपने परिवेश से कट जाने की वजह से भी होता है। ऐसे युवा का अपने परिवेश पर कोई नियंत्रण नहीं होता। उसमें सामर्थ्यहीनता या अशक्तता का बोध घर कर जाता है। आधुनिक युग में विघटित हो रहे परिवार का मौलिक अर्थ खत्म हो गया है। आम वातावरण में निराशा और निरूत्साह जैसी भावना व्याप्त है। बढ़ती घरेलू हिंसा की खबरें इसी बदलाव का परिणाम है। लोग एक-दूसरे से बेगाने हो गये हैं।

अंग्रेजों के समय से ही देश में ऐसे अनेक कानून बने जिन्होंने संयुक्त परिवार की एकता पर प्रहार किये हैं। संयुक्त परिवार की एकता का मूल कारण था पारिवारिक संपत्ति में किसी सदस्य के वैयक्तिक अधिकार नहीं थे, लेकिन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1929 ने उन को भी संपत्ति का अधिकार प्रदान किया जो संयुक्त परिवार से अलग रहना चाहते थे। पारिवारिक संपत्ति का बंटवारा होने के बाद परिवार के खिलाफ होने लगे। इसी तरह 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम में स्त्री-पुरूष को विवाह विच्छेद का अधिकार दिया गया। इससे भी संयुक्त परिवार का बिखराव हुआ। जेरोंटोलॉजी (बढ़ती उम्र के अघ्ययन से संबंधी विज्ञान) के विशेषज्ञ एन. के चड्ढा के अनुसार अत्यंत बूढ़ों और एकदम युवा लोगों के लिए संयुक्त परिवार अच्छे होते थे।

नगरीकरण और औद्योगीकरण ने पारिवारिक संगठन एवं संबंधों को विशेष रूप से प्रभावित किया। आजादी के बाद नगरीकरण और औद्योगीकरण का जो प्रसार हुआ है उसके फलस्वरूप समाज में, संरचनात्क सांस्कृतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोणों से जो व्यापक बदलाव आये हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तन की गति तीव्र है और नगरीय क्षेत्रों में अत्यधिक तीव्र। 1951 के जनगणना अधिकारी ने आंकड़ों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि छोटे-छोटे परिवारों का इतना अधिक अनुपात ऊपरी तौर पर यही संकेत करता है कि देश के परंपरागत रीति-रिवाजों के अनुसार अब संयुक्त परिवार नहीं चल रहे हैं। संयुक्त परिवार से अलग होने तथा अलग घर बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। उस समय इसका अनुपात गांवों में 33 प्रतिशत और कस्बों में 38 प्रतिशत था। शहरों के विस्तार और जीवनयापन के बढ़ते खर्च की वजह से तीन-चार पीढ़ियों का एक साथ रहना कठिन भी हो गया है। विशाल परिवार जहां शोर-शराबे के बीच अभिभावक बच्चों, चाचा-चाची, चचेरे भाई-बहन और दादा-दादी के एक ही छत के नीचे साथ-साथ रहते थे और आपस में भले ही लड़ते-भिड़ते हों लेकिन दुनिया के सामने एकल प्रदर्शित करते थे। जहां संयुक्त परिवार बचे भी हैं तो वहां उनकी रसोई एक नहीं है। ऐसे परिवार अब हकीकत में कम और एकता कपूर के धारावाहिकों और करण जौहर की मेगा बजट फिल्मों में ज्यादा दिखता है।

एकल परिवार : विगत कई वर्षों में शहरों का भौगोलिक विस्तार दु्रतगति से हुआ है। पिछले तीन-चार दशकों से शहरों में एक नयी संस्कृति पनपी है। जिसका पिछले दशक में तेजी से विकास हुआ है। यह संस्कृति है बहुमंजिली इलाकों में रहनेवाले लोगों की। जिनकी जिन्दगी दो-चार कमरों के बीच सिमट कर रह गयी है। मियां, बीबी और बच्चे परिवार के मुख्य सदस्य होते हैं। आधुनिक शहर का आजादी के बाद तेजी से विकास हुआ। अच्छी शिक्षा, व्यवसाय और रोजी-रोटी की तलाश में गांव की आजादी का एक बड़ा हिस्सा शहर में आकर बस गया। नये भारत को प्रवासी के रूप में जीवन बिताने की मजबूरी है। जनगणना के मुताबिक भारत की एक तिहाई आबादी-35 करोड़ लोग अपने जन्म स्थान में नहीं रहती। लोगों मं गांव छोड़ने की प्रवृत्ति का एक मुख्य कारण यह रहा कि विकास की किरणें आजादी के बाद भी गांवों में नहीं पहुंची। सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव और प्रतिस्पर्धात्मक युग में खुद को जीवित रखने की होड़ में लोगों ने शहरों की ओर रूख किया। जनसंख्या के अत्यधिक बोझ के कारण धीरे-धीरे शहर का दायरा बढ़ता गया। शहर में छोट-छोटे उपनगर बनते गये और जमीन दुर्लभ होती गई। आशियाने की तलाश में रहनेवालों की आवश्यकताओं को देखते हुए बहुमंजिली इमारतों की परंपरा शुरू की गयी। एकल परिवार के पक्ष में तर्क देनेवालों का कहना है कि संयुक्त परिवार में बंदिशें ज्यादा होती हैं। आप अपनी कमाई को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाते हैं। महिलाओं को अनुशासन में रहना पड़ता है। संयुक्त परिवार की अवधारणा में समय के साथ बदलाव करके परिवार को टूटने से बचाया जा सकता है।

जिस गति से शहरी जमीन और बस्तियों की कीमतें बढ़ी उसके कारण शहरों ने अपना रिहाइशी इलाका बढ़ाया। शहरों के इर्द-गिर्द नयी सोसाइटियां जन्मीं। फ्लैट सिस्टम लोकप्रिय हुआ। शहर के बाहर बन रही नयी सोसाइटी परिवार का मानक बदल रही है। इसने परिवार के नजरिए को बदला है, पारिवारिक मूल्यों को बदला है। नयी सामाजिक वातावरण ने वैयक्तिक पहचान को नष्ट किया है सामूहिक जीवन व्यतीत करने और सामूहिक संबंध होने की भावना खत्म हो रही है। परिवार और पड़ोस का प्रभाव कम होता जा रहा है। नयी सोसाइटी में मानवीय संबंध दिखावटी, कृत्रिम, अस्थायी एवं कार्य विशेष से संबंधित होते हैं। यह दशा सामाजिक संरचना को दोषपूर्ण बनाती है। इसने परिवार के ढ़ांचे को भी प्रभावित किया है। यह परिवार के आंतरिक और अंतर-परिवार के संबंधों और उन कार्यो को जो परिवार करता है, को प्रभावित करता है। इन नये इलाकों ने सामाजिक ताने-बाने को भी बदल दिया है। इससे जीवन शैली में नाटकीय परिवर्तन हो रहे हैं। । इन इमारतों और सोसाइटी में आधुनिक युग की जरूरतों की सारी चीजें तो हैं, लेकिन सबकुछ एक दायरे में ही। इसने व्यक्ति और परिवार की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कोई व्यक्ति नाम और परिवार से नहीं बल्कि सेक्टर, हाउसिंग सोसाइटी, ब्लॉक और फ्लैट के नंबर से जाना जाता है। यह सबसे बड़ी त्रासदी है।

संयुक्त परिवार का महत्व : भारत एक ऐसा राष्ट्र है जो सदियों से इस धरती के नक्शे पर विद्यमान है, अपने पुरातन सांस्कृतिक, सामाजिक आदर्शां और जीवन मूल्यों के साथ, जबकि दुनिया की प्राचीन और भारत की समकालीन रहीं सभ्यताएं मिट गईं।  भारतवर्ष मूलतः हिन्दूओं का ही देश है और इस देश की संस्कृति अपनी व्यापक विशिष्टताओं के साथ हिन्दू संस्कृति ही समझी जाती है। भारतीय संस्कृति की जो विशिष्टताएं, उसे विश्व की अन्य संस्कृतियों से विभक्त करती है, वे केवल हिन्दूओं में ही नहीं बल्कि उनका पूरा प्रभाव भारतवासी मुसलमानों और ईसाइयों पर भी है। हिन्दू संस्कृति वैदिक संस्कृति का ही पर्याय है। वैदिक संस्कृति की बहुत सी बातें आर्य भण्डार से निकली है और बहुत तो ऐसी हैं जो आर्यो के आगमन से पूर्व इस देश में मौजूद थी। सुप्रसिद्व इतिहासकार निस्टर डाडवेल ने एक जगह लिखा है कि भारतीय संस्कृति महासमुद्र है जिसमें अनेक नदियां आकर विलीन होती रही हैं।

आर्यो और द्रविड़ों के मिलन से भारतीय संस्कृति ने जो रूप धारण किया, यह उसी की ताकत थी कि इस समन्वय के बाद जो भी जातियां इस देश में आयीं, वे भारतीय संस्कृति के समुद्र में एक के बाद एक, विलीन होती चली गयी। अनेक संस्कृतियों और जातियों के मिलन से भारतीय संस्कृति में जो एक प्रकार की विश्वजनीयता उत्पन्न हुई, वह संसार के लिए स
चमुच वरदान है और शताब्दियों से संसार उसका प्रशंसक रहा है। मैक्समूलर के अनुसार अगर मैं अपने आप से पूछूं कि केवल यूनानी, रोमन और यहूदी भावनाओं एवं विचारों पर पलनेवाले हम यूरोपीय लोगों के आंतरिक जीवन को अधिक समृद्ध, अधिक पूर्ण और अधिक विश्वजनीत, संक्षेप में अधिक मानवीय बनाने का नुस्खा हमें किस जाति के साहित्य में मिलेगा, तो बिना किसी हिचकिचाहट के मेरी ऊंगली हिन्दुस्तान की ओर उठ जायेगी।

एकल होने के बाद लोगों को अलग तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा। खास कर जिन परिवारों में पति और पत्नी दोनों वर्किग हैं, उनके लिए बच्चों की देखभाल करना परेशानी और चिंता का सबब बन गया। ऐसे में उन्हें संयुक्त परिवार की जरूरत महसूस होने लगी है और इसकी खूबी भी समझ आने लगी है। दरकते रिश्तों के बीच संयुक्त परिवार एक मिसाल बन कर सामने आ रहा है। जनगणना, 2011 के आंकड़ों का ताजा विश्लेषण बताता है कि 2001 world_family_day-से 2011 के बीच एकल परिवारों की संख्या बढ़ने की दर कम हुई है। जाहिर है, लोग फिर से संयुक्त परिवार के फायदों पर विचार करने लगे हैं। आँकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश सबसे अधिक संयुक्त परिवार वाला राज्य है। सूची में बिहार और झारखंड का छठा स्थान है। एकल हो या संयुक्त सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा के लिए पारिवारिक व्यवस्था महत्वपूर्ण है। बदलती सामाजिक व्यवस्था में परिवार का कोई विकल्प नहीं तैयार हो पाया है। सामाजिक पूंजी, पारिवारिक गांठ और सामुदायिक संबंध भारत में आज भी मजबूत है। इन्हें आधुनिकीकीकरण के नाम पर कमजोर करने के बदले और पुख्ता करने की कोशिश की जानी चाहिए। हम अपने पारिवारिक मूल्यों पर बहुत गर्व करते हैं और मानते हैं कि भारत की परिवार नाम की संस्था बहुत मजबूत है और दूसरे खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों को इससे सीखना.समझाना चाहिए जहां परिवारों के विखंडन और एकाकीपन से कई तरह की सामाजिक समस्याएं पैदा हो रही है। प्रोफेसर आर. वैद्यनाथन कहते हैं कि संबंधों पर आधारित हमारा समाज कायदों पर चलनेवाली पश्चिमी व्यवस्था में ढ़लने की कोशिश कर रहा है। किसी भी व्यक्ति के लिए उसका परिवार बहुत महत्वपूर्ण होता है।

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

मेरी काव्य  रचनाओ  के लिए मुझे इस लिंक पर follow करे. धन्यवाद.

http://himkarshyam.blogspot.in/