Category: सामयिकी

रामजी करेंगे बेड़ा पार!

राम मंदिर एक बार फिर ख़बरों मेंram-mandir है। राजनीतिक गलियारों में राम के नाम की गूंज भी सुनाई देने लगी है। राम मंदिर के मुद्दे पर रैली, कार्यक्रम कॉन्फ्रेंस और टीवी पर बहस हो रहे हैं। अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) की धर्मसभा, शिवसेना के आशीर्वाद समारोह  के बाद काशी में परमधर्म संसद में राम मंदिर निर्माण को लेकर आवाज बुलंद की गयी।  बीजेपी के नेता भी लगातार बयान दे रहे हैं कि 2019 से पहले अयोध्या में राममंदिर का निर्माण होगा। विगत वर्षों की तरह इस बार भी छह दिसंबर को अयोध्या पर साम्प्रदायिक रंग चढ़ाने का प्रयास  किया जा रहा है। बाबरी विध्वंस एक ऐसी घटना थी जिसने पूरे देश के धार्मिक सौहार्द को हिलाकर रख दिया था। हिंदू-मुस्लिमों के बीच एक गहरी दरार पैदा कर दी थी। 6 दिसंबर, 1992 की घटना ने विश्व के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र के सामने कई सवाल खड़े कर दिये थे। वे सारे सवाल आज तक अनुत्तरित हैं।  छह दिसंबर को विहिप द्वारा ‘शौर्य दिवस’ मनाने और मुस्लिम संगठनों द्वारा ‘काला दिवस’ मनाने की घोषणा की गयी है। वहीं वामदलों ने छह दिवस को देश व्यापी स्तर पर ‘संविधान एवं धर्मनिरपेक्षता संरक्षा दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है।

लगभग पांच सौ पुराना है विवाद : बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का विवाद लगभग पांच सौ साल पुराना है। विवाद का कारण यह कि बाबरी मस्जिद उस जगह पर बनी है जहां पांच हजार साल पहले भगवान राम का जन्म हुआ था। और यह कि वहां पहले एक मंदिर मौजूद था जिसे पहले मुगल बादशाह बाबर के एक सिपहसलार मीर बाक़ी ने ध्वस्त किया और ध्वंसावशेष पर मस्जिद खड़ी की जो बाद में बाबरी मस्जिद कहलाई। यहां मंदिर-मस्जिद को लेकर पहली बार हिंसा 1853 में हुई थी। उस समय यह नगर अवध क्षेत्र के नवाब वाजिद अली शाह के शासन क्षेत्र में था। मंदिर-मस्जिद का मामला पहली बार 19 जनवरी, 1885 को अदालत में पहुंचा। महंत रघुबर दास ने फैजाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद से लगे राम चबूतरे पर राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए अपील दायर की थी। अदालत ने वह अपील ख़ारिज कर दी थी। 1989 के बाद यह उफान पर था। उस वक्त अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए बीजेपी ने व्यापक आंदोलन चलाया था। आंदोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा आडवाणी के कंधों पर था। आडवाणी के नेतृत्व में रथ यात्राएं पूरे देश में निकाली गयीं, जिनका मकसद हिंदुओं को राम मंदिर के मुद्दे पर एकजुट करना रहा। हालांकि उस आंदोलन की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद ने साधुओं के मदद से की थी, लेकिन 1980 के दशक में बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने उसे लपक लिया और राम मंदिर आंदोलन के हीरो बन गये। इस आंदोलन में आडवाणी के साथ प्रमुख राजनीतिक चेहरे के रूप में डॉ मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार उभरे। उधर मुस्लिम समुदाय भी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाकर आंदोलन और संघर्ष का रास्ता पकड़ लिया था। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित बाबरी ढाचे को गिरा दिया गया। उसके बाद देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। दंगों की भयावहता मुंबई और सूरत में बहुत ज्यादा थी। इस मामले में आपराधिक केस के साथ-साथ दीवानी मुकदमा भी चला। अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद राम जन्मभूमि आंदोलन की रफ़्तार कम हो गयी। घटना के साढ़े तीन साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर पहली बार केंद्रीय सत्ता का स्वाद चखा। इन वर्षों में देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदल गया। इस बड़े बदलाव के केंद्र में अयोध्या का विवादित ही ढांचा है।  बीजेपी केंद्र के साथ 18 राज्यों की सत्ता में है, वहीं कांग्रेस के पास महज पांच राज्य बचे हैं।

बिछायी जाती रही हैं चुनावी बिसातें : इस घटना को 26 बरस गुजर गये लेकिन बार-बार इस मुद्दे की गूंज भारत की राजनीतिक गलियारे में सुनाई देती है। 1992 में यूपी में बीजेपी की सरकार थी। मुख्यमंत्री थे कल्याण सिंह। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। नरसिम्हा प्रधानमंत्री थे। यूपी में फिर बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर विराजमान है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, जो हिंदुत्व का चेहरा भी हैं। इतना ही नहीं केंद्र में भी बीजेपी की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। संघ परिवार, राममंदिर से जुड़े संगठन और समर्थक लगातार मंदिर बनाने का दबाव बनाने में जुटे हुए हैं। बीजेपी भी चाहती है कि यह मुद्दा रंग पकड़ ले, ताकि वोटों का धुर्वीकरण हो। पार्टी के रणनीतिकार मानते हैं कि अयोध्या की जमीन हिन्दुत्व की खेती के लिए पर्याप्त उर्वर है और उस पर थोड़ी-सी मेहनत से ही वोटों की फसल लहलहा सकती है। मंदिर-मस्जिद विवाद पर चुनावी बिसातें बिछायी जाती रही हैं। जब भी चुनाव नजदीक होता है तो राम लला के मंदिर मुददे को बड़ी ही शिद्दत से उठाया जाता है लेकिन चुनावी रंगत खत्म होते ही ये मुद्दा गायब हो जाता है। राम मंदिर के नाम पर शुरू हुई यह सियासत यकीनन अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए शुरू हुई है। कांग्रेस पर भी राम के नाम का सहारा लेने का (यानी सॉफ्ट हिंदुत्व अपनाने का) आरोप लग रहा है। चुनाव विधानसभा का हो या लोकसभा का इस मुद्दे ने बीजेपी को लगातार सहारा दिया है।  2014 में भी बीजेपी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा किया था, हालाँकि उस मंदिर के बजाय विकास को मुद्दा बनाया। चुनावी अभियान का मुख्य मुद्दा देश का विकास और बदलाव था। पार्टी ने देशभर में वोटर को खास कर नौजवानों यह यकीन दिलाया था कि उसके पास तेज विकास का मॉडल मौजूद है और मोदी उनकी आकांक्षाओं को पूरा करेंगे। घपले-घोटालों में घिरी कांग्रेस सरकार के लिए मोदी के विकास के एजेंडे को चुनौती दे पाना संभव नहीं हुआ।

मई 2014 में भाजपा सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर बड़े और अहम फैसले लिए। आर्थिक सुधार की इन कवायदों से आर्थिक आंकड़े अपने शीर्ष पर पहुंचे तो जरूर लेकिन चौथे साल में ही आंकड़ों में गिरावट का दौर शुरू हो गया। ऐसी स्थिति में केंद्र की मोदी सरकार को 2019 में प्रस्तावित आम चुनावों के वक्त देश की अर्थव्यवस्था से उसे ऐसे आंकड़े नहीं मिलने जा रहे जिसे अपनी उपलब्धि बताकर सत्ता पर दोबारा काबिज हो सके।  मोदी मैजिक  भी फीका पड़ा है, इसलिए अयोध्या के मुद्दे को आगे रखकर पार्टी आगामी चुनाव में उतरना चाहती है। ऐसा लग रहा है कि साढ़े चार साल के बाद राजनीति फिर घूम फिर मंदिर के मुद्दे पर पहुंच गयी है।

पीछे छूट रहे हैं अहम मुद्दे : विकास पर बात करने की जगह सारी बहस राम मंदिर पर केंद्रित होता दिख रहा है। अहम मुद्दे फिर पीछे छूट रहे हैं और मंदिर चुनावी मुद्दा बनने लगा है। पार्टी के कुछ नेता हिंदुत्व और राम को विकास का पर्याय बताने में लगे  हैं। पार्टी एक बार फिर राम नाम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। दरअसल राम मंदिर का मुद्दा उछालकर जमीनी मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है। वैसे भी किसान, मजदूर और बेरोजगार इस सरकार के लिए कोई मुद्दा नहीं। आर्थिक मोर्चे पर सरकार को लगातार सवालों का सामना करना पड़ा है। युवाओं को हर साल दो करोड़ रोजगार देने के वादे पर सरकार विफल रही है। मोदी सरकार किसानों और महंगाई की मार झेलने वाले आम लोगों से अपने चुनाव घोषणा-पत्र में किए किसी भी वादे को पूरा नहीं कर पाई  है। किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की जो घोषणा की गई, वह जमीन पर कहीं नहीं उतरी। राम मंदिर के शोर में देश के विभिन्न हिस्सों से आये उन किसानों की आवाज भी दब गयी जो देश के सामने अपना दुख-दर्द रखने दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचे थे। देश के कई राज्यों से जुटे यह किसान दिल्ली की सड़कों पर चीख-चीख कर अपनी मांगों को पूरा किए जाने की गुहार लगा रहे थे, लेकिन उनकी यह गुहार न तो सरकार के कानों तक पहुंची और न ही मेनस्ट्रीम मीडिया के। किसानों ने नाराजगी जताते हुए कहा कि हमारे लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना मुश्किल हो रहा है लेकिन सरकार राम मंदिर के जरिए लोगों का ध्यान किसानों के मुद्दों से भटकाना चाहते हैं। किसानों का कहना है कि उन्हें राम मंदिर के बजाय कर्ज माफी और अपने उत्पादों का लाभकारी मूल्य चाहिए। किसान लगातार अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकार ने उनकी मांगों पर ज़रा भी गंभीरता नहीं दिखा रही है। किसानों के आंदोलन में मंच साझा कर देश के विपक्ष ने एकजुटता का प्रदर्शन जरूर किया।

अयोध्या का विवादित ढांचा मात्र राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गया है। हर पार्टी अयोध्या के विवादित ढांचे पर बयानबाजी तो करती है लेकिन कोई इस मुद्दे का निदान नहीं चाहता। स्मरण रहे कि विवादित ढांचा गिराये जाने के एक साल बाद जनवरी 1993 में नरसिम्हा राव सरकार के द्वारा इस मसले पर अध्यादेश लाया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने 7 जनवरी 1993 को इसे मंजूरी दी थी। तब बीजेपी ने सरकार का पुरजोर विरोध किया था। अब जबकि मोदी सरकार अध्यादेश लाने का मन बना रही तो कांग्रेस कह रही है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए। राम मंदिर निर्माण से जनता का भावनात्मक जुड़ाव है। हिन्दू धर्मावलम्बियों का मानना है सारे ऐतिहासिक सबूत मंदिर के पक्ष में हैं लेकिन राम लला तिरपाल में रहने को मजबूर हैं। आने वाले दिनों में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने या फिर अध्यादेश लाने की मांग और प्रबल होने वाली है। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर मामले की निर्णायक सुनवाई होने वाली है। अदालत का मानना है कि अगर संत समाज और सभी धार्मिक-राजनीतिक दलों के साथ मिल-बैठ कर कोई सर्वमान्य हल निकाल लिया जाए, तो मंदिर निर्माण की राह सुगम हो जाएगी।

✍ हिमकर श्याम

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आफ़त की बाढ़

इन दिनों देश के कई राज्यों में बाढ़ की स्थिति गंभीर है, जिससे लाखों लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. बाढ़ ने बुरी तरह से कहर ढाया है. दिनोदिन इसके और भयावह होने की आशंका है. बाढ़ ने हमारे आपदा प्रबंधन तंत्र की पोल खोलकर रख दी है. नेपाल और पड़ोसी floodsराज्यों से  आने वाले पानी से प्रतिवर्ष तबाही होती है. साल बदलते जाते हैं, लेकिन बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, असम जैसे राज्यों में बाढ़ से तबाही की कहानी नहीं बदलती.  राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान यह स्वीकार करता है कि विनाशकारी बाढ़ के मुख्य कारण भारी वर्षा, जलग्रहण की दयनीय दशा, अपर्याप्त जल निकासी एवं बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाये गये बांधों का टूटना है. विडंबना है कि इस संकट का स्थायी और सार्थक समाधान अब तक नहीं निकल पाया है. खबरों के अनुसार सिर्फ़ बिहार के 18 जिलों  में बाढ़ से 440 लोगों की मौत हो चुकी है. एक करोड़ से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. उत्तर बिहार में बाढ़ की स्थिति भयावह बनी हुई है.

पश्चिम बंगाल के 14 जिले बाढ़ ग्रस्त है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के दर्जन भर जिले बाढ़ से प्रभावित हैं, असम के 32 में से 25 जिले बाढ़ग्रस्त हैं. तटबंध के टूटने से गांव के गांव जलमग्न हो गये हैं. हज़ारों लोग विस्थापित हो गये हैं. लाखों एकड़ खेत पानी में डूब गए हैं और फसलें बर्बाद हो गई हैं. जगह-जगह सड़कें तालाब में बदल गई हैं. यातायात रुक गया है. न जाने कितने मवेशी बाढ़ में बह गये हैं. बाढ़ से होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए सरकारें तटबंधों को अंतिम हल मान लेती हैं. लेकिन सच यह है कि जैसे-जैसे तटबंधों का विस्तार हुआ है, धारा बाधित होने से नदियां बेलगाम हुर्इं और इसी के साथ बाढ़ की समस्या भी बढ़ती गई है. जल प्रबंधन में लगातार हो रही चूक से बाढ़ का संकट बढ़ा है.

उत्तर बिहार में बहने वाली लगभग सभी नदियाँ जैसे-घाघरा, गंडक, बागमती, कमला, कोसी, महानंदा आदि नेपाल के विभिन्न भागों से आती हैं और खड़ी ढाल होने के कारण अपने बहाव के साथ अत्यधिक मात्रा में गाद लाती हैं, वह मिट्टी-गाद फरक्का जाते-जाते रुक जाता है, क्योंकि नदी का स्वाभाविक प्रवाह वहाँ रुक जाता है. फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से इसमें गाद जमा होने की दर कई गुना बढ़ गई है. गाद और मिट्टी बैराज के पास जमा होता है. यही गाद बिहार में बाढ़ का कारण बनता है. बैराज बनने के बाद कभी भी यहाँ से गाद नहीं निकाला गया. आजादी के बाद जब इस बैराज पर चर्चा हुई तब पश्चिम बंगाल सरकार के लिए काम कर रहे अभियंता प्रमुख कपिल भट्टाचार्य ने इसके ख़िलाफ़ रिपोर्ट दी थी. उन्होंने अपनी रिपोर्ट मे कहा था कि फरक्का बैराज के कारण बंगाल के मालदा व मुर्शिदाबाद तथा बिहार के भागलपुर, पटना, बरौनी, उत्तरी मुंगेर जैसे इलाके बाढ़ के पानी में डूब जाएंगे. वहीं, बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) मे सूखे की स्थिति पैदा होगी. लेकिन, तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने उनकी बात को नज़रअंदाज कर दिया.

बिहार का लगभग 73 प्रतिशत भू-भाग बाढ़ के खतरे वाला इलाका है. पूरे उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ के प्रकोप की आशंका बनी रहती है. बाढ़ के कारण प्रतिवर्ष बिहार बर्बादी, अनैच्छिक विस्थापन और बड़े पैमाने पर जान-माल, पशु, फ़सल एवं इंफ्रास्ट्रक्चर का नुकसान झेलता है. फरक्का बैराज बनने का हश्र यह हुआ कि उत्तर बिहार में गंगा किनारे दियारा इलाके में बाढ़ स्थायी हो गयी. जब यह बैराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक  रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी. जब से फरक्का बैराज बना सिल्ट(गाद) की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया. सहायक नदियाँ भी बुरी तरह प्रभावित हुईं हैं. जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है.  नदियों पर बने बांध-बराजों के कारण नदी में गाद जमा होने, मिट्टी के टीले बनने, तटबंधों और कगारों के टूटने जैसी समस्याओं का समाधान जरूरी हो गया है. फरक्का बैराज, गंगा जल मार्ग और कोसी हाइ डैम जैसी परियोजनाओं को रोक कर नदी कि अविरल धारा को पुनः स्थापित करना होगा.

✍ हिमकर श्याम

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पानी : समाज, सरकार और संकल्प

आज नये साल का पहला दिन है,  कोई संकल्प लेने का दिन है। क्यों न इस साल की शुरुआत हम पानी पर  चिन्तimg-20161226-wa0082न के साथ करें और इसे बचाने का संकल्प लें। साथ ही नदी-तालाबों को प्रदूषित नहीं करने का संकल्प भी लें। जल संरक्षण वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है। सभ्यता काल से ही जल प्रबंधन मानव के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। जल जीवन का पर्याय है, जल के बिना जीवन की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। अमेरिकी विज्ञान लेखक,लोरान आइजली ने कहा था कि ‘हमारी पृथ्वी पर अगर कोई जादू है,तो वह जल है।’ नदियाँ हमारी जीवनदायिनी हैं लेकिन हम नदियों को इसके बदले कुछ लौटाते नहीं हैं। तमाम जल समेत अन्य प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन हो रहा है और हमारा पर्यावरण बिगड़ रहा है, जिससे प्रदूषण और जल-संकट की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। आज भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देश जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है, परंतु दुर्भाग्य से इसका अल्पांश ही पीने लायक है। पीने योग्य मीठा जल मात्र 3 प्रतिशत है, शेष भाग खारा जल है। यह जरूरी है कि भविष्य के लिए जलस्रोतों के बेहतर प्रबंधन के एकजुट होकर प्रयास किया जाये।

आँकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.5 अरब लोगों को पीने का शुध्द पानी नही मिल रहा है। 2030 तक पूरी दुनिया में जरूरत के अनुपात में 40 प्रतिशत पानी कम हो जायेगा। भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। भारत में जल भण्डार वाले इलाकों समेत कई राज्यों में भूजल का स्तर बहुत नीचे पहुँच चुका है। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान समेत कुछ अन्य राज्यों में भूजल का सर्वाधिक दोहन हो रहा है। उत्तर-पश्चिमी , पश्चिमी और प्रायद्विपीय इलाकों की स्थिति भयावह होती जा रही है। 54 फीसदी आबादी पानी की किल्लत से जूझ रही है। शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता और जल संबंधित ढेरों समस्याओं को जानने-समझने  के बावजूद हम जल संरक्षण के प्रति सचेत नहीं हैं । नदियाँ, तालाबें एवं झीलें अमूल्य धरोहरें हैं।  इन्हें बचा कर रखना हमारा दायित्व भी है। पानी के मामले में संतोषजनक समृद्धि चाहिए तो हमें अपने नदियों, तालाबों और अन्य जल स्रोतों पर विशेष ध्यान देना होगा।

नगरीकरण और औद्योगीकरण की तीव्र रफ्तार,बढ़ता प्रदूषण तथा जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि के साथ प्रत्येक व्यक्ति के लिए पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है। नदियों के किनारों पर व्यवसायिक गतिविधियाँ बढ़ जाने से नदियों के जीवतंत्र को क्षति पहुँची है। गंगा के किनारे हज़ारों फैक्ट्रियां हैं जो न केवल इसके जल के अंधाधुंध इस्तेमाल करती हैं, बल्कि उसमें भारी मात्रा में प्रदूषित कचरा भी छोड़तीं हैं।  गंगा के किनारे मौजूद शहरों से रोजाना अरबों लीटर सीवेज का गंदा और विषैला पानी निकलता है जो गंगा में बहा दिया जाता है। प्रदूषण फैलाने वाली फैक्टरियां और गंगा जल के अंधाधुंध दोहन से इस पतित पावनी नदी के अस्तित्व का ही खतरा पैदा हो गया है। गंगा किनारे 118 शहर बसे हैं, जिनसे रोज करीब 364 करोड़ लीटर घरेलू मैला और 764 उद्योगों से होने वाला प्रदूषण गंगा में मिलता है। सैकड़ों टन पूजा सामग्री गंगा में फेंकी जाती है। यमुना, दामोदर, गोमती और महानन्दा का हाल भी इससे अलग नहीं है। नदियों की अपनी पारंपरिक गति और दिशा को इस तरह प्रभावित किया जायेगा, तो जाहिर है कि इससे जल-संकट की स्थिति बढ़ती ही जायेगी। नदियाँ, झरने, ताल-तलैया,एवं जल के अन्य स्रोत सूखते होते जा रहे हैं, जो चिंता का विषय है।

भारतीय उपमहाद्वीप में बहने वाली प्रमुख नदियों में से लगभग 15 प्रमुख नदियों जैसे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, सिंधु, महानदी, तुंगभद्रा इत्यादि न जाने कितने वर्षों से भारत की पावन भूमि को सिंचित करती चली आ रही हैं। ये नदियाँ वाकई भारत एवं भारतीय लोगों की जीवन-रेखा सदृश्य हैं। इनमें गंगा मात्र नदी नहीं हैं, वह संस्कार और संस्कृति भी है। गंगा का धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्व है। गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। गंगा नदी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। गंगा को जीवन देना आसान काम नहीं है। जल की बर्बादी रोकने के लिए रिवर और सिवर को अलग-अलग करना होगा।  कूड़े-कचरे के कारण किसी समय स्वच्छ जल से भरी नदियों की स्थिति दयनीय हो गई है। इस संबंध में सरकार भी गंभीर नहीं है। सरकार को इस दिशा में विशेष योजना बनाकर कार्य करना होगा। जल संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरुकता सबसे ज्यादा जरूरी है।

जल पुरुष राजेंद्र सिंह के अनुसार केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी के पुनर्जीवन की योजना बनाई है, लेकिन हमारी समझ है कि इसके पूर्व गंगा एक्शन प्लान इसलिए सफल नहीं हो सका, क्योंकि इसमें आम लोगों की भागीदारी नहीं थी। लोगों को लगा कि की यह तो सरकार का काम है, जबकि 40-50 साल पहले बिना किसी फंडिंग, प्रोजेक्ट या एक्शन प्लान के हमारी नदियां साफ थीं, निर्मल थीं, अविरल थीं। लोग, नदियों को इस स्थिति में रखने को प्राथमिक जिम्मेदारी मानते थे। गंगा तो मां मानी जाती है। लोगों में फिर से यही सोच विकसित करनी होगी। नदियों के किनारे बसे गांव का समाज अपने सामुदायिक जल प्रबंधन पर उतर आए, तो नदियों भविष्य बेहतर हो सकता है। राजेंद्र सिंह रविवार को पटना में ख्यात पर्यावरणविद गांधीवादी अनुपम मिश्र को समर्पित अक्षधा फाउंडेशन द्वारा आयोजित ‘पानी : समाज और सरकार’ विषयक संगोष्ठी में बोल रहे थे। इस संगोष्ठी में सिर्फ एक ही बात की गूंज थी कि कैसे स्कूलों सामुदायिक संगठनों व आम नागरिकों के बीच जल साक्षरता बढाकर इन्हें जागरूक किया जाय। राजेंद्र सिंह ने केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा से कहा कि अगर वाकई आगे की पीढ़ियों के लिए जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है, तो देश में जल साक्षरता शुरू करानी होगी। बच्चों को बचपन से ही स्कूलों में पानी की महत्ता, इसके संरक्षण के बारे में पूरा-पूरा बताना होगा। चूंकि अब इस मोर्चे पर दूसरा उपाय बच नहीं गया है। उपेंद्र कुशवाहा ने इससे पूरी सहमति जताई। उपेंद्र कुशवाहा ने भारतीय जीवन, संस्कृति में नदियों की अहमियत को बताया। उन्होंने कहा कि नदियों के बारे में समाज को भी अपनी ड्यूटी समझना जरूरी है।

अनुपम मिश्र जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी पर्यावरणविद थे। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के अनुपम मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली, वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं हो पाया है। उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर  में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ है। इसी तरह  उतराखंड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया। पानी पर एक अरसे से काम कर रहे मेरे पत्रकार मित्र पंकज मालवीय का मानना है कि नदियों को उसके मूल नैसर्गिक रूप में वापस लाया जाना बेहद जरूरी है।  बिना जन-भागीदारी के गंगा और दूसरी नदियों को गंदा होने से नहीं रोका जा सकता। गंगा समेत अन्य नदियों को बचाने के लिए जरूरी है कि बाँधों, गादों और प्रदूषण से इन्हें मुक्त कराना होगा।

गंगा की सफाई के अब तक सारे प्रयास असफ़ल हुए हैं। कानून और नियम तो बनाये गए , लेकिन उनको लागू करने में कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई। नमामि गंगे योजना के नाम से गंगा जी को स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त करने हेतु चलाई गई योजना कोई पहली योजना नहीं है। गंगा प्राधिकरण की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी कि गंगा नदी को स्वच्छ व प्रदूषणमुक्त बनाया जा सके। परंतु केवल इस पावन उद्देश्य हेतु सैकड़ों करोड़ का बजट आबंटित कर देने से  कुछ भी हासिल होने वाला नहीं।  गंगा की स्वच्छता का कोई भी अभियान इसके किनारे रहने वाले लोगों को उससे जोड़े बिना मुमकिन नहीं है। जब तक इस विषय पर लोगों में जागरुकता नहीं आती, तब तक इस लक्ष्य को किसी भी अधिनियम अथवा कानून से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।

तेजी से शहरों का विकास हो रहा है। अंधाधुंध विकास. पेड़ों को काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं। तालाबों को पाटकर शॉपिंग मॉल खड़े हो रहे हैं। शहर का सारा कचरा नदियों में बहाया जा रहा है। नदी तटों पर भी अतिक्रमण हो रहा है। पानी की उपलब्धता व गुणवत्ता दोनों का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। पानी के प्रति लोगों में जागरुकता का अभाव है। इसमें विशेष तौर से निर्धनतम समुदाय, उनमें भी महिलाओं में जागरूकता की अत्यधिक कमी देखने को मिलती है। यह अभियान तभी सफल होगा, जब जन-भागीदारी हो। हम सभी का योगदान हो, इसके लिए पहले पानी के संकट की भयावहता को समझना होगा। पानी पर बात करने को सभी तैयार रहते हैं, किन्तु पानी बचाने और उसका सही प्रबंधन करने के प्रश्न पर सीधी भागीदारी की बात जब आती है तब लोग किनारा कर जाते हैं। समाज की सहभागिता के बगैर नदियों का संरक्षण संभव नहीं है। किनारों पर अवस्थित गाँवों में रहने वाले लोग संकल्प लेना होगा कि वे नदियों के जल को प्रदूषित नहीं करेंगे।  जल प्रकृति का एक अनिवार्य घटक है। जल से ही जीवन है। इस अनमोल प्राकृतिक संपदा के संरक्षण हेतु सभी को संगठित होकर अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए। आधुनिक शिक्षा पद्धति में पानी के सन्दर्भ में जितनी अल्प जानकारी  उपलब्ध है वह यहां की नई पीढ़ी की पानी के प्रति समझ बनाने के लिए अपर्याप्त है। आइए इस वर्ष हम एक-एक बूंद पानी बचाने का हम संकल्प लें।

✍ हिमकर श्याम

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कतार में देश

पूरा देश कतार में है। कब तक कतार में रहेगा यह किसी को मालूम नहीं। किसी की धड़कनें कतार देख रुक रही हैं तो कोई कतार में ही दम तोड़img-20161117-wa0089 दे रहा है। अगले कई दिनों तक ऐसे ही हालात बने रहने की संभावना है। कई बार कतार इतनी लंबी हो जा रही है कि लोग अगले दिन के इंतिज़ार में कतार में ही रात बिताने को मजबूर हैं। यह स्थिति पाँच सौ और हजार के नोट रातों रात चलन से बाहर हो जाने से उत्पन्न हुई है।मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के फैसले का अर्थव्यवस्था पर, काले धन पर, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जाली नोटों के धंधे पर क्या असर पड़ेगा और कब तक पड़ेगा, यह देखना अभी बाक़ी है। फिलहाल यह दिख रहा है कि इतने बड़े फैसले से देश की आम जनता का क्या हाल होगा, इस पर न तो विचार किया गया और न ही उससे निपटने की मुक्कमल तैयारी की गई थी । नोटबंदी से समाज के एक बड़े वर्ग को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। भूखे, प्यासे घन्टो कतार में खड़े होने के बाद भी खुद का पैसा नहीं मिल पा रहा है। नोटबंदी के 10वें दिन भी देश में हालात जस के तस हैं। नोट बदलवाने के लिए बैंकों और एटीएम के आगे लंबी कतारें हैं। नकदी की किल्लत का असर रोजमर्रा के लेन-देन और खरीद-बिक्री पर पड़ रहा है। अनुमानतः देश की 54 फीसदी जनता नकदी से काम चलाती है। ऐसे में आम आदमी घर में जमा थोड़े-बहुत छोटे नोटों पर ही निर्भर रह गया। जिनके पास छोटे नोट नहीं हैं उन्हें तो और भी परेशानी है।

जीवन सामान्य रूप से चला पाना निहायत मुश्किल हो गया है। दूध, ब्रेड से लेकर फल-सब्जी की खरीद, स्कूल की फीस और इलाज, हर जगह मुश्किलें पेश आ रही हैं। रोज कमाकर खाने बाले मजदूरों के परिवारों में भुखमरी जैसे हालात हो गए हैं।  ग्रामीण इलाकों में किसान और मजदूर का जीवन दुश्वार हो गया है। किसानों की जुताई -बुआई प्रभावित हो रही है। मज़दूरों की रोज की दिहाड़ी मारी जा रही है। लाखों शादियां सिर्फ इसलिए फीकी पड़ने जा रही हैं कि वहां न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी पर्याप्त धनराशि उपलब्ध नहीं है। लोग बैंकों में पैसे रखने के बावजूद अपने सामान की खरीदारी करने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। बैंक से अधिक राशि का भुगतान नहीं हो रहा है। दुकानदार चेक पेमेंट या बक़ाया पर सामान देने को तैयार नहीं हैं। हालाँकि इस बीच किसानों, शादी वाले परिवारों के सामने आ रही मुश्किलों को देखते हुए सरकार ने कुछ राहत भरी घोषणाएं की हैं। शादी वाले परिवार अब बैंकों में केवाईसी देकर 2.5 लाख रुपये निकाल सकते हैं। वहीं, खेतीबाड़ी और बुआई आदि को लेकर किसानों की सुविधा के लिए सरकार ने रुपये निकासी के नए नियम बनाए हैं। नए नियम के तहत किसान अब बैंकों से एक हफ्ते में 25000 रुपये निकाल सकते हैं।

कारोबार जगत पर नोटबंदी का नकारात्मक असर दिख रहा है। कारोबार चाहे किसी तरह का हो या प्रत्येक में मंदी का आलम छाया हुआ है। छोटे कारखाने और फैक्‍ट्रियों पर ताले लटक गए हैं। नोटबंदी का असर बाजार में इस कदर हावी है कि कारोबारियों का धंधा चौपट होने की कगार पर पहुंच गया है। कामगारों को मेहनताना नहीं मिल और वे काम नहीं कर रहे। लोगों का धैर्य जवाब देने लगा है। लेकिन पीएम कह रहे  हैं कि लोग दुश्वारियाँ सह कर भी सरकार के फैसले खुश हैं, सरकार की तारीफ कर रहे हैं। देशवासी देश के व्यापक हित में सारा कष्ट झेलने को तैयार हैं।  वहीं एफएम को रोज सफाई देनी पड़ रही है कि बस, कुछ दिन और सह लीजिए। अरुण जेटली के अनुसार देशभर में करीब दो लाख एटीएम मशीनों को सुचारू रूप से संचालित होने में तीन हफ्तों का समय लग सकता है।

बैंकों पर भी बहुत दबाव है। शाखाओं से लेकर एटीएम पर लगातार भीड़ बनी हुई है। नोट बदलने और निकासी के काम में बैंक कर्मचारी धैर्य और मुस्तैदी से डटे हुए हैं, लेकिन अधिकांश बैंकों के पास कैश खत्म हो जा रहा है। ग्रामीण शाखाओं में समस्या ज्यादा गम्भीर है, क्योंकि 93 फीसदी ग्रामीण इलाकों में बैंक ही नहीं हैं। सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा बार-बार पर्याप्त नकदी की उपलब्धता का भरोसा दिये जाने के बावजूद शहरों से लेकर गांवों तक वक़्त पर करेंसी नहीं पहुंच पा रही है। लोग पैसा तो जमा कर रहे हैं लेकिन छोटी नोट उपलब्ध न होने से उन्हें पैसा नहीं मिल पा रहा है।

उधर नोटबंदी को लेकर कलकत्ता (कोलकाता) हाईकोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई है। नोटबंदी के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि नोटबंदी को लेकर सरकार रोज नए फैसले ले रही है और अगले दिन उसे बदल दे रही है। फैसलों को ऐसे रोज बदलना ठीक नहीं है। बैंकों और एटीएम के बाहर लंबी कतार से लोग परेशान हो रहे हैं। कोलकाता हाईकोर्ट ने कहा कि नोटबंदी के फैसले को लागू करते वक्त केंद्र सरकार ने अपने दिमाग का सही इस्तेमाल नहीं किया। हर दिन वो नियम बदल रही है। नोटबंदी के बाद पहले सरकार ने कहा था कि बैंक से रोजाना 4000 रुपये तक के पुराने नोट बदले जा सकेंगे, बाद में इसे बढ़ाकर 4500 कर दिया गया. वहीं, एटीएम से रोजाना 2000 कैश निकाले जा सकते थे, जिसकी लिमिट बाद में बढ़ाकर 2500 कर दी गई थी। वहीं  सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नोटबंदी से लोगों को दिक्कतें हो रही हैं, और इस सच्चाई से केंद्र सरकार इंकार नहीं कर सकती. चीफ जस्टिस ने कहा, स्थिति गंभीर हो रही है, और ऐसे हालात में गलियों में दंगे भी हो सकते हैं।

अगर सरकार की मानें तो काले धन और नकली नोटों पर लगाम लगाने के लिए देश हित में उठाया गया कदम है। सरकार का कहना है कि काले धन और नकली नोटों पर ये सर्जिकल स्ट्राइक जैसा काम करेगा। कानून की नजरें बैंक और एटीएम की कतार में खड़े हर व्यक्ति को संदेह की नजर से देख रही है। नोटबंदी का फैसला निस्संदेह अप्रत्याशित, कठोर और चौकनेवाला क़दम था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कालेधन की समस्या से निपटने के लिए कड़े कदम जरूरी हैं। परंतु, इतने बड़े फैसले को अमली जामा पहनाने के लिए जैसी तैयारी होनी चाहिए थी, वह नहीं थी। गरीब और मध्यवर्गीय आबादी खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की परेशानियों को ध्यान में नहीं रखा गया।

✍ हिमकर श्याम

(चित्र साभार आनंद टून )

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मीडिया और हिंदी

hindi_diwasभारत में अनेक समृद्ध भाषाएँ हैं. इन भाषाओं में हिंदी एकता की कड़ी है. हमारे सन्तों, समाज सुधारकों और राष्ट्रनायकों ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिंदी को अपनाया. क्योंकि यही एक भाषा है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक और राजस्थान से असम तक समान रूप से समझी जाती है. हिंदी ही एकमात्र भाषा है जो समस्त भारतीय को एकता के सूत्र में जोड़ने का कार्य सम्पन्न करती है. देश में प्रायः सभी जगह हिंदी व्यापक स्तर पर बोली और समझी जा रही है. दक्षिण भारत हो या पूर्वोत्तर भारत हर जगह हिंदी का सहज व्यवहार हो रहा है. भाषाओं के लम्बे इतिहास में ऐसी बहुरूपी भाषा का अस्तित्व और कहीं नहीं मिलता. हिंदी बोलनेवाले लोगों की संख्या 50 करोड़ है. जनसंख्या की दृष्टि से  हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है. यदि हिंदी समझनेवालों की संख्या भी इसमें जोड़ दी जाये तो यह दूसरे नम्बर पर आ जाएगी. दुनिया में शायद ही किसी भाषा का इतना तीव्र विकास और व्यापक फैलाव हुआ होगा. हिंदी को पल्लवित-पुष्पित करने में मीडिया की महती भूमिका रही है.

हिंदी जैसी सरल और उदार भाषा शायद ही कोई हो. हिंदी सबको अपनाती रही है, सबका यथोचित स्वागत करती रही है. किसी भी भाषा के शब्द को अपने अंदर समाहित करने में गुरेज नहीं किया. अंग्रेजी, अरबी, फारसी, तुर्की, फ्रांसीसी, पोर्चुगीज आदि विदेशी शब्द हिंदी की शब्दकोश में मिल जायेंगे. जो भी इसके समीप आया सबको गले से लगाया. भौगोलिक विस्तार के अनेक जनपदों और उनके व्यवहृत अठारह बोलियों   (पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत खड़ी बोली, बाँगरू, ब्रजभाषा, कन्नौजी, पूर्वी हिंदी में अवधी, बधेली, छत्तीसगढ़ी, बिहारी में मैथिली, मगही, भोजपुरी, राजस्थानी में मेवाती-अहीरवादी, मालवी, जयपुरी-हाड़ौती, मारवाड़ी- मेवाड़ी तथा पहाड़ी में पश्चिमी पहाड़ी, मध्य पहाड़ी, पूर्वी पहाड़ी) के वैविध्य को, जिनमें से कई व्याकरणिक दृष्टि से एक-दूसरे की विरोधी विशेषताओं से युक्त कही जा सकती है, हिंदी भाषा बड़े सहज भाव से धारण करती है. हिंदी के स्वरूप के सम्बन्ध में इसलिए वैचारिक द्वैत की भावना ग्रियर्सन में जगह-जगह दिखती है. ‘भाषा सर्वेक्षण’ के भूमिका में वे लिखते हैं ‘इस प्रकार कहा जा सकता है और सामान्य रूप से लोगों का विश्वास भी यही है कि गंगा के समस्त काँठे में, बंगाल और पंजाब के बीच. उपजी अनेक स्थानीय बोलियों सहित, केवल एकमात्र प्रचलित भाषा हिंदी ही है.’ इन सारी बोलियों के समूह और संश्लेष को पहले भी हिंदी, हिंदवी, हिंदई कहा जाता था, और आज भी हिंदी कहा जाता है. बंटवारे से पहले समूचे पाकिस्तान में पंजाब से लेकर सिंध तक हिंदी की बोली समझी जाती थी. लाहौर हिंदी का गढ़ था. वहाँ हिंदी के कई बड़े प्रकाशन भी थे. बंटवारे के बाद हिंदी की अनदेखी की गई, लेकिन हिंदी फिल्मों और भारतीय टीवी चैनलों के मनोरंजक कार्यक्रमों, धारावाहिकों के कारण वहाँ हिंदी का प्रभाव फिर बढ़ रहा है. नेपाल और बंगलादेश में भी हिंदी का प्रभाव है. 50 देशों में हिंदी पढाई जा रही है. 500 से ज्यादा संस्थानों में हिंदी की पढ़ाई होती है. अमेरिका से लेकर चीन तक कई विश्व-विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, युगांडा, गुयाना, फिजी, नीदरलैंड, सिंगापुर, त्रिनिदाद, टोबैगो और खाड़ी देशों में बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं. दुबई जैसे शहरों में हिंदी बोलचाल की भाषा बन गयी है.

निर्विवाद तथ्य है कि खड़ी बोली ही आज की हिंदी है. भारत के हिंदी मीडिया की भाषा भी यही है, पत्र- पत्रिकाओं की भी और टेलीविजन और फिल्मों की भी. हिंदी भाषा का निर्माण और आगे बढ़ाने का कार्य मीडिया ने किया है. साहित्य बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की उदात्त भावना लेकर चला है तो पत्रकारिता भी इसी प्रकार के मानव कल्याण के उद्देश्य को लेकर अवतरित हुई है. वस्तुतः साहित्य जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति है. पत्रकारिता भी सत्यम, शिवम सुंदरम की ओर जन मानस को उन्मुख करती है. यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो पत्रकारिता उस समाज की प्रतिकृति है. हिंदी साहित्य के क्रमिक विकास पर दृष्टि डालें तो हम पाएंगे कि पत्र पत्रिकाओं की साहित्य के विकास में अहम भूमिका रही है. वास्तव में भाषा के प्रचार प्रसार में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है.

हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई और इसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता है. राजा राममोहन राय ने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा. भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया. समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की. राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किये. जिसमें महत्वपूर्ण हैं- साल 1816 में प्रकाशित ‘बंगाल गजट’. बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है. इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे. इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई. 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है. 1873 ई. में भारतेन्दु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की स्थापना की. एक वर्ष बाद यह पत्र  ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ नाम से प्रसिद्ध हुआ. वैसे भारतेन्दु का ‘कविवचन सुधा’ पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था. परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ से ही हुआ. भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, बालकृष्ण भट्ट, दुर्गाप्रसाद मिश्र, पंडित सदानंद मिश्र, पंडित वंशीधर, बदरीनारायण, देवकीनंदन त्रिपाठी, राधाचरण गोस्वामी, पंडित गौरीदत्त, राज रामपाल सिंह, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास,  बाबू रामकृष्ण वर्मा, पं. रामगुलाम अवस्थी, योगेशचंद्र वसु, पं. कुंदनलाल और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास. 1895 ई. में ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. इस पत्रिका से गंभीर साहित्य समीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं. 1900 ई. में ‘सरस्वती’ और ‘सुदर्शन’ के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है. इन वर्षों में हिंदी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई. प्रारंभिक पत्र शिक्षा-प्रसार और धर्म प्रचार तक सीमित थे. भारतेन्दु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं.

सन् 1880 से लेकर, सदी के अंत तक लखनऊ, प्रयाग, मिर्जापुर, वृंदावन, मुंबई, कोलकाता जैसे दूरदराज क्षेत्रों से पत्र निकलते रहे. सन 1900 का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण है. 1900 में प्रकाशित सरस्वती पत्रिका अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिका रही है. वह अपनी छपाई, सफाई, कागज और चित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई. उसी वर्ष छत्तीसगढ़ प्रदेश के बिलासपुर-रायपुर से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन शुरू होता है. ‘सरस्वती’ के ख्यात संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के संपादक पंडित माधवराव सप्रे थे.

पत्रकारिता का यह काल बहुमुखी सांस्कृतिक नवजागरण का यह समुन्नत काल है. इसमें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक और राजनीतिक लेखन की परंपरा का श्रीगणेश होता है. इस दौर में साहित्यिक लेखन और पत्रकारिता के सरोकारों को अलग नहीं किया जा सकता. सांस्कृतिक जागरण, राजनीतिक चेतना, साहित्यिक सरोकार और दमन का प्रतिकार इन चार पहियों के रथ पर हिंदी पत्रकारिता अग्रसर हुईं. माधवराव सप्रे ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को ‘हिंद केसरी’ के रूप में छापना शुरू किया. समाचार सुधावर्षण, अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नया हिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण,बुन्देलखण्ड केसरी, मतवाला सरस्वती, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंट्यर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुए देशभक्ति के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्नान किया.

भारत के स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है. राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, बाबा साहब अम्बेडकर, यशपाल जैसे आला दर्जे के नेता सीधे-सीधे तौर पर पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे और नियमित लिख रहे थे. जिसका असर देश के दूर-सुदूर गांवों में रहने वाले देशवासियों पर पड़ रहा था. सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही. कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता की भूमिका निभायी. हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रेमचंद, निराला, बनारसीदास चतुर्वेदी, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, शिवपूजन सहाय आदि की उपस्थिति ‘जागरण’, ‘हंस’, ‘माधुरी’, ‘अभ्युदय’, ‘मतवाला’, ‘विशाल भारत’ आदि के रूप में दर्ज है.

‘उदन्त मार्तण्ड’ के सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है. पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्द ही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वह कारवां निरंतर आगे बढ़ा है. साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यह भाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण बन गया. अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आजादी के बाद आया. 1947 में देश को आजादी मिली. लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ. औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई. जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ. हिंदी पत्रों ने जहाँ एक ओर बहुमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त्र किया वहीं राष्ट्रभाषा को सर्वाधिक उपयोगी बनाने का सफल प्रयास किया. पत्रकारिता की शुरुआत एक मिशन के रूप में हुई थी. स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि यहां के पत्रों एवं पत्रकारों ने ही तैयार की थी. आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता देशभक्ति और समग्र राष्ट्रीय चेतना के साथ जुड़ी रही. इसमे देशभक्ति के अलावा सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना भी शामिल है. स्वाधीनता से पहले देश के लिए संघर्ष का समय था. इस संघर्ष में जितना योगदान राजनेताओं का था उससे तनिक भी कम पत्रों एवं पत्रकारों का नहीं था. स्वतंत्रता पूर्व का पत्रकारिता का इतिहास तो स्वतंत्रता आन्दोलन का मुख्य हिस्सा ही है. तब पत्रकारिता घोर संघर्ष के बीच अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए प्रयत्नशील थी.

90 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में अमर उजाला, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, प्रभात खबर आदि के नगरों-कस्बों से कई संस्करण निकलने शुरू हुए. जहां पहले महानगरों से अखबार छपते थे, भूमंडलीकरण के बाद आयी नयी तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों, कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हो गया. साथ ही इन दशकों में ग्रामीण इलाकों, कस्बों में फैलते बाजार में नयी वस्तुओं के लिए नये उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई. हिंदी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का एक जरिया बन कर उभरा है. साथ ही साथ अखबारों के इन संस्करणों में स्थानीय खबरों को प्रमुखता से छापा जाता है. इससे अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है. पिछले कुछ सालों में हिंदी मीडिया ने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की है. प्रिंट मीडिया को ही लें, आइआरएस रिपोर्ट देखें तो उसमें ऊपर के पांच अखबार हिंदी के हैं. हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार लगातार बढ़ रहा है. इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिन्दी न्यूज चैनलों की भरमार है. भारत में 182 से ज्यादा हिंदी न्यूज चैनल हैं. नई तकनीक और प्रौद्योगिकी ने अखबारों की ताकत और ऊर्जा का व्यापक विस्तार किया है.

किसी भी देश के विकास का संबंध भाषा से है. इसमें कोई संदेह नहीं कि आजकल राजभाषा हिंदी अपनी सीमाओं से बाहर आ चुकी है. यह विकास, बाजार और मीडिया की भाषा भी बन रही है. पूरे भारत और भारत के बाहर हिंदी के द्रुत प्रचार-प्रसार और विकास का श्रेय मनोरंजन चैनल, समाचार चैनल, खेल चैनल और कई धार्मिक चैनल को दिया जा सकता है. अगर किसी भी देशी-विदेशी कम्पनी को अपना उत्पाद बाजार में उतारना होता है तो उसकी पहली नजर हिंदी क्षेत्र पर पड़ती है क्योंकि उपभोक्ता शक्ति का वृहत्तम अंश हिंदी क्षेत्र में ही निहित है इसलिए उसका विज्ञापन कर्म हिंदी में ही होता है. दुनिया की एक बड़ी आबादी तक पहुंचने के लिए हिंदी की जरूरत पड़ेगी ही. हिंदी अखबारों, हिंदी पत्रिकाओं, हिंदी चैनलों, हिंदी रेडियो और हिंदी फिल्मों की जरूरत पड़ेगी ही. हिंदी माध्यमों का विकास होगा तो निस्संदेह हिंदी का भी विकास होगा.  बाजार और मीडिया का विस्तार होगा तो हिंदी भी फैलेगी और जब तक बाजार और मीडिया है तब तक हिंदी मौजूद रहेगी. बाजार और मीडिया ने हिंदी जाननेवालों को बाकी दुनिया से जुड़ने के नये विकल्प खोल दिये हैं. फिल्म, टी.वी., विज्ञापन और समाचार हर जगह हिंदी का वर्चस्व है.

वर्तमान युग हिंदी मीडिया का युग है. हिंदी भाषा का निर्माण और आगे बढ़ाने का कार्य मीडिया ने किया है. इंटरनेट और मोबाइल ने हिंदी को और विस्तार दिया. हिंदी में संप्रेषण की ताकत है. हिंदी यूनिकोड हुई तो ब्लॉगगिंग में बहार आ गई. चिट्ठा लिखनेवालों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई. गूगल का मोबाइल और वेब विज्ञापन नेटवर्क एडसेंस हिंदी को सपोर्ट कर रहा है. इंटरनेट पर 15 से ज्याद हिंदी सर्च इंजन मौजूद हैं. सोशल साइट में हिंदी छाई हुई है. 21 फीसदी भारतीय हिंदी में इंटरनेट का उपयोग करते हैं. हिंदी राजभाषा के बाद अब वैश्विक भाषा बनने की ओर तेजी से बढ़ रही है. डिजिटल दुनिया में हिंदी की मांग अंग्रेजी की तुलना में पाँच गुना तेज है. हिंदी मातृभाषा और राजभाषा से एक नई वैश्विक भाषा के रूप में हिंदी बदल रही है. वह नई प्रौद्योगिकी, वैश्विक विपणन तंत्र और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की भाषा बन रही है. आज मोबाइल की पहुँच ने गाँव-गाँव के कोने-कोने में संवाद और संपर्क को आसान बना दिया है. इस वजह से बाजार आ रहे नित नवीन मोबाइल उपकरण हर सुविधा हिंदी में देने के लिए बाध्य हैं. हिंदी की इस समृद्ध, शक्ति और प्रसार पर किसी भी हिंदी भाषी को गर्व हो सकता है.

[मित्रों, नमस्कार! आज आज का  यह दिन  मेरे  लिए  बहुत  ख़ास  है। इसके  ख़ास  होने  की  तीन वजहें  हैं पहली, आज  हिंदी (मातृभाषा) दिवस है। दूसरी वजह, आज मेरी माँ का जन्मदिन है। तीसरी और ख़ास वजह यह कि इस ब्लॉग (दूसरी आवाज़) के एक वर्ष पूरे हो गये। सभी पाठकों, ब्लॉगर बंधुओं, मित्रों, शुभचिन्तकों, प्रशंसकों, समर्थकों और आलोचकों का हार्दिक धन्यवाद। इस एक साल के सफ़र में आप सब ने जो सहयोग,प्यार और मान  दिया है, उस के लिये मैं बहुत-बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। आपकी शुभकामनाओं, स्नेह, सहयोग और मशवरों का आकांक्षी…]

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का अँधेरा

भारत आज विश्व में एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है. आर्थिक संभावनाओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है, लेकिन ऊं%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b7%e0%a4%ae%e0%a4%a4%e0%a4%beची विकास दर का लाभ एक छोटे-से वर्ग तक सीमित रहा है. नतीजतन, एक तरफ विकास की चकाचौंध दिखाई देती है तो दूसरी तरफ वंचितों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही है. समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का अँधेरा कड़वी सच्चाई है. आंकड़ों के खेल में देश की वास्तविक तस्वीर को नजरअंदाज किया जाता रहा है. निरंतर यह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत अब विश्व के शक्तिशाली और संपन्न देशों की सूची में शामिल हो गया है. मीडिया के माध्यम से आर्थिक सफलताओं के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं. मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है का स्लोगन खूब सुनाया जा रहा है. एक ओर चमचमाती सड़कें और उनपर दौड़ती महँगी गाड़ियों की तसवीरें हैं तो दूसरी ओर अपनी पत्नी की लाश कांधे पर उठाकर मीलों चलते दाना मांझी और उसकी बिलखती बच्ची की तस्वीर. तेज रफ्तार आर्थिक विकास के बावजूद भारत की 30.35 फीसदी आबादी अब भी गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे गुजर-बसर कर रही है. 22 फीसदी भारतीय बेहद गरीब हैं, जो रोजाना आधे डॉलर से भी कम पर गुजारा करते हैं.

यह सही है कि देश में पहले के मुकाबले समृद्धि आई है. पिछले दो दशकों में भारत की आय में जबरदस्त वुद्धि हुई है. देश में पांच से दस करोड़ प्रतिमाह वेतन पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है. भारत में अरबपतियों की तदाद लगातार बढ़ती जा रही है. आम लोगों का जीवन स्तर पहले से सुधरा है, किंतु इसके साथ आर्थिक विषमता ने भी विकराल रूप ले लिया है. संयुक्त राष्ट्र की सहस्राब्दी वैश्विक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के बेहद गरीब लोगों में करीब एक तिहाई भारत में हैं. रिपोर्ट बताती है कि भारत में 19 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषित हैं. कुपोषण से हर घंटे 60 बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं. दुनिया के हर चार कुपोषित लोगों में एक भारतीय है. इस आर्थिक केंद्रीकरण से लोगों के मन में लोकतंत्र को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और यह धारणा बनती जा रही है कि सारे कायदे-कानून अमीरों के लाभ के लिए बनाए जा रहे हैं. सरकारें उन्हें जनता की कीमत पर कई तरह की छूटें और सहूलियतें मुहैया कराती हैं.

आजादी के समय जितनी आबादी थी, उतने लोग तो अब गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. महानगरों में 40 फीसदी आबादी स्लम के नारकीय माहौल में रहती है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि हम एक स्तर पर हम 1,500 डॉलर प्रति व्यक्ति आयवाली अर्थव्यवस्था हैं. हम अब भी एक गरीब अर्थव्यवस्था वाला देश हैं

संयुक्त राष्ट्र प्रति व्यक्ति वार्षिक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के हिसाब से देशों की एक सूची जारी करता है. इसमें भारत 150वें स्थान पर है. मानवता की बेहतरी में योगदान के लिहाज से जारी अच्छे देशों की ताजा सूची में भारत को 70वें स्थान पर रखा गया है. सूची में 163 देशों को शामिल किया गया है. गुड कंट्री इंडेक्स विभिन्न देशों की राष्ट्रीय नीतियों और व्यवहारों के वैश्विक प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन करता है तथा दुनिया को बेहतर बनाने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके योगदान का आकलन करता है. मानव विकास सूचकांक, प्रसन्नता सूचकांक, सामाजिक प्रगति और आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा की अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों में भी हमारा देश नीचे के पायदानों पर खड़ा है. यूएनडीपी द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत ने मानव विकास सूचकांक में थोड़ी प्रगति की है. भारत का एचडीआई इंडेक्स में 130 वां स्थान है. हालांकि अब भी यह निचले पायदान पर है. मानव विकास सूचकांक के 2014 के लिए तैयार रिपोर्ट में 188 देशों के लिए जारी यह रिपोर्ट मुख्य रूप से लोगों के जीवन स्तर को दर्शाती है. यह सूचकांक मानव जीवन के प्रमुख पहलुओं पर गौर करते हुए तैयार किया जाता है. मोटे तौर पर इसे तैयार करने में औसत जीवन-काल, स्वास्थ्य, सूचना एवं ज्ञान की उपलब्धता तथा उपयुक्त जीवन स्तर को पैमाना बनाया जाता है. वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत का स्थान 118वां है और सोमालिया, चीन, पाकिस्तान, ईरान, फिलस्तीन और बांग्लादेश हमसे ऊपर हैं. वर्ष 2015 के सोशल प्रोग्रेस इंडेक्स में भारत का स्थान 101वां था. इसमें स्वास्थ्य, आवास, स्वच्छता, समानता, समावेशीकरण, सततीकरण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सुरक्षा जैसे आधार होते हैं. ग्लोबल कंपेटीटिवनेस रिपोर्ट में भारत का स्थान 55वां है. यह रिपोर्ट देशों के अपने नागरिकों को उच्च-स्तरीय समृद्धि देने की क्षमता का आकलन करती है. शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, मानवाधिकार, पर्यावरण आदि मामलों में हमारी उपलब्धियां उत्साहवर्द्धक नहीं हैं.

कृषि प्रधान देश होने के बावजूद  किसान की  स्थिति दयनीय है. 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार किसान को अपनी कृषि गतिविधियों से होने वाली आय देश के 17 राज्यों में 20 हजार रुपए सालाना है. इसमें वह अनाज भी शामिल है, जो वह अपने परिवार के लिए निकालकर रख लेता है. दूसरे शब्दों में इन राज्यों में किसान की मासिक आय सिर्फ 1,666 रुपए है. राष्ट्रीय स्तर पर एनएसएसओ ने किसान की मासिक आय प्रति परिवार सिर्फ तीन हजार रुपए आँकी गई है. कृषि की विकास दर में उत्साहजनक वृद्धि होने के बावजूद किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में किसानों की हालत दयनीय है. कर्ज के बोझ, बढ़ती महंगाई और फसल का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर हैं. 1997-2008 के दौरान देशभर में 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं.

दूसरी तरफ़ बोस्टन कंसल्टेटिंग ग्रुप की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में कम-से-कम एक मिलियन डॉलर यानी करीब साढ़े छह करोड़ रुपये की संपत्तिवाले 18.5 करोड़ परिवार हैं, जिनके पास कुल 78.8 खरब डॉलर मूल्य की संपत्ति है. यह धन सालाना वैश्विक आर्थिक उत्पादन के बराबर और कुल वैश्विक संपत्ति का करीब 47 फीसदी है. पिछले साल अक्तूबर में क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट में भी बताया गया था कि सबसे धनी एक फीसदी आबादी के पास दुनिया की करीब आधी संपत्ति है. क्रेडिट स्विस के मुताबिक भारत के एक फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 53 फीसदी तथा 10 फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 76.3 फीसदी संपत्ति है. इसका मतलब यह है कि देश की 90 फीसदी आबादी के हिस्से में एक चैथाई से कम राष्ट्रीय संपत्ति है. देश के सबसे गरीब लोगों की आधी आबादी के पास मात्र 4.1 फीसदी की हिस्सेदारी है. बोस्टन ग्रुप और क्रेडिट स्विस, दोनों की रिपोर्ट बताती है कि भारत में भी धनिकों की संख्या बढ़ी है, पर आर्थिक विकास का लाभ बहुसंख्य आबादी को नहीं मिल पा रहा है. यह भयावह आर्थिक विषमता को दर्शाती है.

ऐसी विकराल आर्थिक विषमता केवल हमारे देश में ही नहीं दुनियाभर में है. ऑक्सफॉम के एक सर्वे के मुताबिक विश्व की आधी संपत्ति पर विश्व के केवल एक प्रतिशत लोगों की मिलकियत है. 2016 में विश्व के एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास बाकी की 99 प्रतिशत आबादी से ज्यादा संपत्ति होगी. दूसरी तरफ आज विश्व में 9 में से एक व्यक्ति के पास खाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं. ऑक्सफैम का आकलन है कि यदि दुनिया के तमाम खरबपतियों पर डेढ़ फीसदी का अतिरिक्त कर लगा दिया जाये, तो गरीब देशों में हर बच्चे को स्कूल भेजा जा सकता है और बीमारों का इलाज किया जा सकता है. इससे करीब 2.30 करोड़ जानें बचायी जा सकती हैं. अगर भारत में विषमता को बढ़ने से रोक लिया जाये, तो 2019 तक नौ करोड़ लोगों की अत्यधिक गरीबी दूर की जा सकती है. यदि विषमता को 36 फीसदी कम कर दिया जाये, तो हमारे देश से अत्यधिक गरीबी खत्म हो सकती है. विषमता व्यापक असंतोष का कारण बन रही है. अगर इस संदर्भ में सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये, तो समाज खतरनाक अस्थिरता की दिशा में जाने के लिए अभिशप्त होगा.

नीति नियंता ऊंची विकास दर को ही आर्थिक समस्याओं का कागरगर हल मान लेते हैं लेकिन जब तक हर पेट को अनाज और हर हाथ को काम नहीं मिलता तब तक आर्थिक प्रगति की बात बेमानी है. भारतीय संविधान में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के सरंक्षण का उपबंध किया गया है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार है. जहां ये सारी चीजे उपलब्ध नहीं होती वहां स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है. एडम स्मिथ के अनुसार आवश्यकताओं का अभिप्रायः जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों से ही नहीं-इनमें समाज की परंपरा के अनुसार जिन चीजों का न्यूनतम वर्ग के लोगों के पास भी नहीं होना बुरा समझा जाता है, वे चीजें शामिल हैं. स्वामी विवेकानंद का यह कथन याद रखने योग्य है कि जिस देश के लोगों को तन ढंकने के कपड़े और खाने की रोटी न हो, वहां संस्कृति एक दिखावा है और विकास दिवालियापन. जरूरत इस बात की है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर अपनी प्राथमिकताओं के निर्धारण में आम आदमी के जीवन में खुशहाली लाने का लक्ष्य शामिल करे तथा उनके अनुरूप नीतिगत निर्णय लेने की इच्छाशक्ति दिखाये. अर्थव्यवस्था में बेहतरी का लाभ अगर आम लोगों तक नहीं पहुंचा. किसानों की आय नहीं बढ़ी और युवाओं को रोजगार नहीं मिला, तो दुनिया में सबसे तेज वृद्धि दर का कोई मतलब नहीं रह जाता है.

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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ढाका हमले के संकेत

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ढाका हमले का असर बांग्लादेश में ही सीमित नहीं रहेगा, इसका असर भारत में होना लाजिमी है। इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा रमजान के पाक महीने में ढाका के राजनयिक क्षेत्र स्थित रेस्त्रां को जिस तरह निशाना बनाया गया और कुरान की आयतों के जरिये गैर मुस्लिमों की पहचान की गयी, उससे साफ है कि उनका मकसद कथित इस्लाम के नाम पर दहशत का विस्तार भारतीय उप महाद्वीप तक करना है। ढाका में हुए आतंकी हमले में जो तथ्य उजागर हुए है, वे चौंकाने वाले हैं। हमलावर में शामिल युवा संभ्रांत  घरों से थे। अच्छे स्कूलों और कॉलेजों से उनकी पढ़ाई हुई थी। अब तक ऐसी धारणा थी कि आतंकी सिर्फ़ संगठन गरीब तबको के युवक को टारगेट बनाते हैं। ज्यादातर आत्मघाती दस्तों के सदस्य गरीब घरों के ही रहे हैं। अब पढ़े-लिखे समृद्ध पृष्ठभूमि के युवाओं को आतंकी गतिविधियां आकर्षित कर रही हैं। इंटरनेट इसमें मददगार साबित हो रहा है।

फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से इस्लामिक स्टेट अमीर युवाओं तक पहुँच रहा है। ढाका के आतंकी हमले का भारतीय कनेक्शन सामने आया है। ढाका में 22 लोगों की जान लेने वाले आतंकी मुंबई के एक डॉक्टर औऱ इस्लाम का प्रचार करने वाले जाकिर नाईक के विचारों से प्रभावित थे। एक आतंकी ने सोशल साइट्स पर जाकिर नाईक का वो बयान शेयर किया था, जिसमें कहा गया था कि सब मुसलमान को आतंकी बनना चाहिए। सोशल साइटों ने आतंकी संगठनों की पहुंच दूरदराज में पढ़े-लिखे युवाओं तक कर दी है। यह पूरी दुनिया के लिए नई चुनौती है। खतरे का संकेत भी।

कैफ़े पर हमला सुनियोजित और संगठित लगता है। कट्टरपंथियों ने हमले के लिए गुलशन इलाक़े को चुना है यह राजनायिक दृष्टि से अहम इलाका है, इससे ज्यादा सुरक्षित जगह ढाका या बांग्लादेश में नहीं है सो इस हमले से जैसे वो एक संदेश देना चाहते हैं कि वह कहीं भी हमला कर सकते हैं। आतंकियों ने ढाका के पॉश एरिया में एक रेस्टोरेंट होली आर्टिजन बेकरी में धावा बोला और वहां मौजूद लोगों को बंधक बना लिया। जो लोग आतंकियों का शिकार बने उनमें लगभग सभी विदेशी थे, जिनमें से नौ इटली के, सात जापान के और एक भारतीय शामिल है। आतंकियों की बर्बरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आधुनिक हथियारों से लैस होने के बावजूद आतंकियों ने एक भारतीय युवती समेत 22  विदेशियों को गला रेत कर मारा। बांग्लादेश में यह इस तरह का पहला आतंकी हमला है। दशतगर्दों ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि बांग्लादेश में कट्टरपंथियों की ताकत को कम करके न आंका जाए।

दहशतगर्दी को धर्म और मज़हब के चश्मे से देखना ठीक नहीं है। दहशतगर्दों का कोई मज़हब नहीं होता। दहशतगर्दी सिर्फ़ और सिर्फ़ दहशतगर्दी है। दिन, ईमान और इंसानियत से इनका कोई लेना-देना नहीं है। दहशतगर्द दुनिया में अस्थिरता फैलाना चाहते हैं। अपने सरपरस्तों के इशारे पर दहशतगर्दी फैलाना इनका मुख्य मकसद है। इस्लाम के नाम पर नरसंहार करने वाले मुस्लमान भले ही हो मगर वे इस्लाम के अनुयाई हो ही नहीं सकते। इनके कारनामो से एक पूरा मजहब कलंकित हो रहा है। ऐसे दहशतगर्द इंसानियत के साथ-साथ इस्लाम के भी दुश्मन हैं। पैग़म्बर मुहम्मद की शिक्षा से उनका दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। इस्लाम धर्म किसी भी हालत में हिंसा की इजाजत नहीं देता। दहशतगर्दों द्वारा इस्लाम का असली चेहरा बिगाड़ कर उसकी ग़लत व हिंसक छवि पेश की जा रही है। निर्दोष की हत्या करना जेहाद व इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है। मज़हब के नाम पर और जिहाद की आड़ में जिस तरह इंसानियत को शर्मसार किया जा रहा है उस पर अमनपसन्द मुलमानों और इस्लाम के पैरोकारों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए।

दशतगर्दों द्वारा ख़ुद को आइएसआइएस (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया) से जुड़े होने का दावा करने के बावजूद बांग्लादेश सरकार ने ‘जमात-उल-मुजाहिदीन’ बांग्लादेश नामक आतंकी संगठन को जिम्मेवार ठहराया है। साथ ही बताया है कि इसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ से मदद मिल रही है। ज्ञात हो कि इस्लामिक स्टेट ने अपनी मैगजीन ‘दबिक’ में भी बांग्लादेश पर हमले की धमकी दे चुका था। 2014 से जमात-उल-मुजाहिद्दीन जैसे संगठनों ने भी खुद को आइएसआइएस से जोड़ लिया था। बांग्लादेश में आतंक फैलाने के अलावा इन आतंकियों ने पश्चिम बंगाल में भी बम धमाका किया था।

जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश में बीते दो दशकों से सक्रिय है और इस दौरान कई खूनी वारदातों को अंजाम दे चुका है। पिछले तीन सालों से संदिग्ध इस्लामी कट्टरपंथियों ने 40 से अधिक लोगों की हत्या की है। हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों, बुद्धिजीवियों, ईसाई दुकानदारों, सेक्युलर लेखकों और ब्लॉगरों को निशाना बनाया जा रहा है। हिंदू पुजारियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। इस संगठन की स्थापना 1998 में ढाका क्षेत्र में स्थित पालमपुर में मौलाना अब्दुर रहमान द्वारा की गयी थी। बांग्लादेश सरकार ने स्वैच्छिक संस्थाओं पर हुए हमलों के बाद फरवरी, 2005 में इस पर पाबंदी लगा दी थी, लेकिन इसकी ताक़त दिन-ब-दिन बढ़ती रही। पाकिस्तान के अलावा जमात को कथित तौर पर कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, पाकिस्तान, सऊदी अरब और लीबिया से विभिन्न लोगों से आर्थिक मदद मिलती है। इस्लामिक स्टेट की तरह जमात का उद्देश्य बांग्लादेश की मौजूदा शासन-प्रणाली की जगह शरिया आधारित इसलामिक शासन स्थापित करना है।

इस्लामिक स्टेट अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले देशों में बहुसंख्यकों के खिलाफ उकसाने के लिए कथित उपेक्षा का हवाला देकर इस्लाम की विवादित धारणाओं को असली इस्लाम साबित करने पर तुला है। बांग्लादेश में बंगाल खिलाफा के सरगना शेख अबू इब्राहिम अल-हनीफ ने खुलासा किया है कि आतंकी संगठन आइएस पाकिस्तान और बांग्लादेश में अपने जेहादी बेस के जरिए भारत में गोरिल्ला हमला करने की योजना बना रहा है। भारत में घुसपैठ और हमले के लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश हर लिहाज़ से उपयुक्त मुल्क हैं। संगठन जमात के ज़रिए बांग्लादेश से सटे भारतीय राज्यों असम और बंगाल जैसे राज्यों में भी कुछ गतिविधियों को अंजाम भी दे चुका है।

ढाका में हुए नरसंहार के बाद भारत बांग्लादेश सीमा पर सुरक्षा एजेंसियां चौकस हो गईं हैं। इस बीच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIAI)ने पुराने हैदराबाद के कई इलाकों में छापेमारी करके SIS के 11 आतंकियों  को हिरासत में लिया है, जो शहर में कथित तौर पर आतंकी गतिविधियों की योजना बना रहे थे। 9 ठिकानों पर हुई छापेमारी में आतंकियों के पास से 15 लाख कैश सहित कई हथियार और विस्फोटक बरामद किए गए है। भारत में आइएसआइएस से आकर्षित होने वाले संदिग्धों की संख्या बढ़ रही है। जेहादी आकर्षण में संपन्न परिवार के उच्च शिक्षित युवा शामिल हैं। नौजवानों को जेहाद और मज़हब के नाम पर भड़काया जाता है। उनके भीतर इतना ज़हर भर दिया जाता है कि वह हर वक़्त मरने-मारने को तैयार रहते हैं। बीते कुछ सालों से खुफिया एजेंसियों द्वारा देश भर से संदिग्ध लोगों की गिरफ्तारी और उनकी गतिविधियों की खबरें आती रही हैं।

आइएसआइएस नामक संगठन ने दुनिया भर में कोहराम मचा रखा है और जेहाद के नाम पर दुनिया को बदलने की कोशिश में है। वह चाहता है कि दुनिया पर केवल मुस्लिमों का ही राज हो। इस्लामिक स्टेट का मुखिया अबु बकर बगदादी ने शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच विवाद का फायदा उठाया। यह हर कीमत पर अपना साम्राज्य फैलाना चाहता है। आतंक का अब जो नया वैश्विक चेहरा उभर रहा है, उससे निपटने के लिए तो यह भी जरूरी है कि सभी देश अपने खुफिया एवं सुरक्षा तंत्र को चुस्त करते हुए परस्पर समन्वय भी बनायें।

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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अपने-अपने आंबेडकर

 

देश की राजनीति में बाबा साहब आंबेडकर की स्वीकृति का ग्राफ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। प्राय: सभी पार्टियां आंबेडकर को अपने-अपने तरीके से परिभाषित कर रही हैं और उन्हें अपना बताने की कोशिश कर रही हैं। पिछले कुछ वक्त से भाजपा आंबेडकर को अपना बनाने और प्रचारित करने की मुहिम चला रही है। दूसरी ओर, कांग्रेसAMBEDKAR का दावा है कि आंबेडकर उसके ज्यादा करीब थे और कांग्रेस ने उनके विचारों के अनुरूप काम करने की ज्यादा कोशिश की है। कभी सबसे बड़ी ताकत रहे दलित वोट को कांग्रेस इस बहाने फिर वापस पाने की कोशिश में है। अन्य पार्टियां भी आंबेडकर  की आड़ में अपना हित साधने की कोशिश कर रही हैं। आंबेडकर आरएसएस और वामपंथियों को भी प्रिय हो गए हैं। यह अकारण नहीं कि आज की दलित राजनीति ही नहीं, मुख्यधारा की राजनीति भी उन्हें अपना आइकॉन मानने लगी है। चुनाव आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था ने भीमराव आंबेडकर को अधिकाधिक प्रासंगिक बनाया है। आज हर दल को आंबेडकर की जरूरत है। देश में कई आंबेडकरवादी पार्टियां हैं, जो उनके विचारों को नहीं, बल्कि उन्हें एक ब्रांड के रूप में अपना रही हैं। इसलिए कि देश की कुल आबादी के चौथाई हिस्से से अधिक वोट आंबेडकर के नाम के साथ जुड़े हैं। दलित वोटों की गोलबंदी जितनी मजबूत हो रही है, आंबेडकर से सियासी दलों का मोह उतना ही बढ़ता जा रहा है। आंबेडकर के जरिए दलित वोटों पर कब्जा जमाने की इच्छा जरूर दिखाई देती है, उनकी वास्तविक विरासत और विचारों को समझने और उसे आगे ले जाने का संकल्प कहीं नहीं दिखाई देता।

आंबेडकर आधुनिक भारत के सबसे ज्यादा विचारवान और विद्वान राजनेताओं में से हैं। पिछले साढ़े छह दशक से ज्यादा समय में जिन शख्सीयतों ने देश को बदलने में सबसे अहम भूमिका निभायी है, उनमें आंबेडकर अग्रगण्य रहे हैं। आंबेडकर ने संविधान के जरिये एक मूक क्रांति की नींव रखी। यह क्रांति थी सदियों से चली आ रही दलितों की उपेक्षा, शोषण और उनकी वंचना के इतिहास को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के जरिये बदलने की। आंबेडकर केवल दलितों के ही नेता नहीं थे, वरन् वह एक स्वप्नद्रष्टा राष्ट्र निर्माता भी थे। उनके राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया मुख्यधारा के नेताओं से भिन्न थी।

डॉ. आंबेडकर के जीवनकाल पर यदि दृष्टि डालें तो हम देख सकते हैं कि उनमें बेमिसाल संकल्पशक्ति, सामाजिक न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता और अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए किसी भी तरह के अवरोध को पार करने का गजब का शौर्य था। समाज के पिछड़े वर्ग से आने के चलते उन्हें अनेकों बार अपमान और पीड़ा का कड़वा घूंट पीना पड़ा था। लेकिन सिर्फ इसी वजह से शिक्षा हासिल करने और जन कल्याण के लिए जीवन समर्पित करने के अपने उच्च उद्देश्य से वे डिगे नहीं। एक तेजस्वी वकील, विद्वान, लेखक और बेहिचक अपनी राय व्यक्त करने वाले एक स्पष्टवक्ता के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की। उन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए राजनीतिक सत्ता के बजाय संरचनात्मक परिवर्तन को ज्यादा महत्व दिया। आंबेडकर को अपना बनाने की इस होड़ में इसकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है कि इस समाज के लिए अंबेडकर का विजन और रणनीतियां क्या थी।

डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक न्याय की अवधारणा

डॉ. आंबेडकर सामाजिक न्याय के पक्षधर थे। आंबेडकर जिस सामाजिक न्याय की अवधारणा का प्रतिपादन करते है वे नस्ल भेद, लिंग भेद और क्षेत्रीयता के भेद से मुक्त है। संविधान निर्माण में उनके इस सिद्धांत की भूमिका स्पष्ट देखी जा सकती है। सामाजिक न्याय की अवधारणा एक बहुत ही व्यापक शब्द है। सामाजिक न्याय की अवधारणा का मुख्य अभिप्राय यह है कि नागरिक नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेद न हो। सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। धार्मिक और सामाजिक शोषण के विरुद्ध उनकी जो सामाजिक न्याय की अवधारणा थी, हमेशा उसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी। क्योंकि धर्म, जाति के आधार पर समाज में फैला भेदभाव कभी खत्म नहीं होनेवाला है। उनका पूरा आंदोलन इस भेदभाव को ही लेकर था और इसीलिए उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किया था। पूना पैक्ट में था कि जिन जातियों के साथ भेदभाव किया गया, उन्हें सामाजिक न्याय मिलना चाहिए। इसी आधार पर मंडल कमीशन ने भी सामाजिक न्याय की मांग की थी। इसी आधार पर दलितों के सामाजिक न्याय की बात की जा रही है।

आंबेडकर एक ओर दलितों की मुक्ति और सामाजिक समानता चाहते थे, वहीं दूसरी ओर वे यह भी चाहते थे कि भारत एक मजबूत, शक्तिशाली एवं महान् राष्ट्र बने। उन्होंने इन दोनों दिशाओं के कार्य किया, किन्तु अगर इन दोनों में कभी भी प्राथमिकता का सवाल पैदा हुआ, तो उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के पहले दलितोंद्धार, मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय की स्थापना संबंधी कार्य को वरीयता देने पर जोर दिया। उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि यदि कभी उनके हित और अनुसूचित जातियों के हित को प्राथमिकता देंगे, और यदि देश के हित और दलित वर्ग के हित में प्राथमिकता की बात आये या टकराव हो तो वे दलित वर्ग के हित को प्राथमिकता देंगे।

बाबा साहब ने कहा था कि वर्गहीन समाज गढ़ने से पहले समाज को जातिविहीन करना होगा। समाजवाद के बिना दलित-मेहनती इंसानों की आर्थिक मुक्ति संभव नहीं। उन्होंने व्यक्ति और समाज के परिप्रेक्ष्य में यह सिद्ध किया कि समाज में सभी मनुष्य समान हैं। सभी को समानता के साथ जीने का अधिकार है इसलिए न्याय और समता के आधार पर भारतीय समाज की पुनर्रचना की जानी चाहिए। इसके लिए उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का पूर्ण रूप से उन्मूलन आवश्यक माना। आंबेडकर के अनुसार, ईश्वर की सृष्टि में सभी मानव समान है और सभी उस परमपिता की सन्तान हैं फिर भी एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का शोषण करना उनकी दृष्टि में अन्याय था। आंबेडकर ने ऐसे अप्रजातांत्रिक समाज के प्रति विद्रोह ही नहीं किया अपितु इसके विरूद्ध सबल जनमत बनाने में भी लग गये। वे चाहते थे कि समाज का वह शोषित, पीड़ित और दलित वर्ग इस शोषण के दल-दल से बाहर निकले और उस वर्ग को भी सामाजिक न्याय तथा सामाजिक प्रतिष्ठा तथा मानवीय अधिकार मिले। इस यथार्थवादी एवं मानवतावादी सोच ने आंबेडकर को वर्ण-व्यवस्था पर नये सिरे से विचार करने के लिए विवश किया। उन्होंने समाज के शोषित वर्ग को ‘अछूत’ कहे जाने पर आपत्ति ही नहीं की, अपितु उसे पुनः परिभाषित भी किया।

सामाजिक न्याय भारतीय संविधान की आधारशिला है। यद्यपि सामाजिक न्याय को संविधान में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। फिर भी भारतीय संविधान का प्रमुख स्वर और अनुभूति सामाजिक न्याय ही है। यहां समाज और न्याय के प्रति लचीला रूख अपनाते हुए न्यायिक व्यवस्था को मुक्त रखा गया है ताकि सामाजिक परिस्थितियों, आयोजनों, संस्कृति समय तथा लक्ष्य के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किये जा सकें। सामाजिक न्याय से अभिप्राय है मानव-मानव के बीच में जाति, वर्ग, लिंग, जन्म स्थान, भाषा, संस्कृति, क्षेत्र, प्रजाति के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जाना और प्रत्येक नागरिकों को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ किया जाना। किसी भी समाज या देश के विकास के लिए सामाजिक न्याय एक अनिवार्य शर्त एवं बुनियादी जरूरत है।

भारत में गरीबी, महंगाई और आर्थिक असमानता हद से ज्यादा है। भेदभाव भी अपनी सीमा के चरम पर है ऐसे में सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय है। भारतीय समाज बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक, बहुजातीय पैटर्न पर आधारित है। यहां सामाजिक न्याय की स्थापना एक कठिन चुनौती है। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जोकि एक चुनौती है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में इसकी अनिवार्यता और भी बढ़ जाती है। हालांकि भारतीय संविधान सामाजिक न्याय के क्रियान्वयन के लिए तीनो स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका को स्पष्ट निर्देश देता है परंतु कुछ नीतिगत और व्यावहारिक कारणों से इस क्षेत्र में हमारा प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। इसके पीछे एक तरफ राजनीतिक दबाव तो दूसरी ओर संवैधानिक संस्थाओं के उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों की उदासीनता प्रमुख कारण है।

आजादी के इतने वर्षों के बाद जहां विकास अपने परवान पर है, हमारी गिनती विकासशील देशों के कतार में हो रही है, संचार के साधन, आवागमन के साधन, शिक्षा का प्रसार, रोजगार के अवसर आदि बढ़े हैं, विकास योजनाओं के माध्यम से कृषि उत्पादन आदि में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय आय में भी बढ़ोतरी हुई है किन्तु ये सभी लाभों का अंश आम जनता को नहीं मिल पाया है। गरीबी रेखा के नीच गुजर बसर करने वाले परिवारों की संख्या मे अनुकूल परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है। जहां सामाजिक न्याय को हम संविधान की आत्मा कह रहे हैं वहीं इसके विपरित समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है। अमीरों तथा गरीबों की बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो गई है। भू-स्वामी किसानों का प्रतिशत घट रहा है तथा भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज हुई है। जहां विदेशों को अनाज का निर्यात होता है, वहीं अपने देश में कई लोगों भरपेट भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। एक तरफ महानगर में रोजगार की भरमार है तो अन्य राज्यों तथा शहरों में रोजगार का अभाव देखने को मिलता है। इन क्षेत्रों से लोग महानगरों की ओर पलायन कर रहे है। सामाजिक न्याय के झण्डे के नीचे नव-सामान्तवाद और पूंजीवाद फल-फूल रहे हैं।

रोटी, कपड़ा और मकान आरंभ से भारत की तीन बुनियादी आवश्यकताएं हैं जो मानव के जीने के अधिकार की रक्षा करते हैं, परंतु गरिमामय जीवन के अधिकारों की नहीं। आज के आधुनिक समाज के लिए इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा वैश्वीकृत दुनिया के लिए आज भ्रष्टाचारमुक्त समाज का अधिकार भी महत्वपूर्ण हो गया है। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जो कि एक चुनौती है। विडम्बना है कि आंबेडकर को लेकर राजनीति तो चलती चली आ रही है, लेकिन उनके विचारों को अपने आचरण में उतारने की कहीं कोई कोशिश नहीं दिखती। आंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि हर किस्म के जातिवाद से देश को मुक्त करने की कोशिशों के अलावा तब होगी, जब उनके कहे और लिखे का गंभीरता से अध्ययन और विश्लेषण किया जाएगा, न कि सुविधानुसार महिमामंडन।

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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कितनी बदली है महिलाओं की ज़िन्दगी

महिला दिवस२

08 मार्च को हम महिला सशक्तीकरण के 42 वें वर्ष में प्रवेश करेंगे. 1975 का वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया था. 41 साल पहले की तारीखों में दर्ज चुनौतियां कहीं गहरी हुई हैं. विकास और प्रगति के तमाम दावों के बावजूद देश की आधी आबादी अपने हालातों से जद्दोजहद करती हुई दिखती है. महिला सशक्तीकरण के नारों और दावों के बीच निर्भया जैसी घटनाएँ हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति का भयावह चित्र प्रस्तुत करती हैं. नारीवादी आंदोलन के जरिये महिलाओं की मुक्ति की कल्पना की गयी थी,  लेकिन अधिकांश भारतीय महिलाएँ उससे कोसों दूर हैं. शहरों और महानगरों की पढ़ी-लिखी महिलाओं में जागरूकता अवश्य देखी जा रही है. समाज में अपनी उपस्थिति, अधिकारों और समस्याओं को लेकर महिलाएँ मुखरित होने लगी हैं. इन वर्षों में महिलाओं के व्यवहार व परिस्थिति में जो परिवर्तन आया है, क्या वह किसी ठोस बदलाव का सूचक है इस पर विचार करना आवश्यक है. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पूरे समाज का ध्यान महिलाओं के उन मुद्दों पर खींचता है, जो रोजमर्रा के जिंदगी में दरकिनार रहते हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने जेंडर विषमता को पूरी दुनिया से समाप्त करने की दिशा में अहम कदम उठाते हुए 08 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप मनाना शुरू किया. एक विचारधारा के रूप में नारीवाद महिलाओं के शोषण का विरोध करता है. नारीवाद उन सभी व्यवस्थाओं और विचारों को ध्वस्त करने का प्रयास करता है, जो पुरुष को श्रेष्ठ साबित करते हैं. भारत में महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए और उन्हें सशक्त करने के लिए बहुत पहले से कार्य किए जा रहे हैं. नवजागरण काल (18 वीं से 19 वीं सदी) में कई सुधारवादी आंदोलन हुए जो सती प्रथा की समाप्ति, विधवा विवाह,  बाल विवाह पर रोक और स्त्री-शिक्षा से सम्बंधित थे. इस कार्य की शुरुआत राजा राममोहन राय, केशव चन्द्र सेन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर एवं स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने की थी जिनके प्रयासों से नारी में संघर्ष क्षमता का आरम्भ होना शुरू हो गया था.

आजादी के बाद महिलाओं को आगे बढ़ाने के सरकारी प्रयास हुए. जेंडर समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना,  मौलिक अधिकारों,  मौलिक कर्तव्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रतिपादित है. संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्जा प्रदान करता है अपितु राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति प्रदान करता है. इन सब के साथ महिला सशक्तीकरण की राह में गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों को भी नहीं नकारा जा सकता. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं के फैसले लेनेवाली भूमिका का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है. आधी आबादी होने के बावजूद राजनीति, न्यायपालिका, सिविल सेवा में उनकी स्थिति निराशाजनक है. देश की लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला बहुचर्चित विधेयक लोकसभा में 17 सालों से लटका हुआ है. हालांकि पंचायतों में महिलाओं की आरक्षित संख्या 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी गयी है. 16 वीं लोकसभा में 12  प्रतिशत महिला जनप्रतिनिधि चुनकर आई हैं, राज्य विधानसभाओं में नौ प्रतिशत महिलाएँ हैं जबकि विधान परिषदों में छह प्रतिशत महिलाएँ हैं. यह वैश्विक अनुपात की तुलना में काफी कम है. महिलाओं को संसद एवं विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व देने के संबंध में दुनिया के 190 देशों में भारत का 109 वां स्थान है.

सृष्टि के आरंभ से कुछ आधारभूत भिन्नताओं के बावजूद महिला और पुरुष दोनों का योगदान किसी भी मामले में एक-दूसरे से कम नहीं था. जीवन के हर पहलुओं में दोनों की भागीदार समान थी. सभ्यता के क्रमिक विकास और सामाजिक परिर्वत्तन के क्रम में पुरुषों ने श्रेष्ठता हासिल कर ली और महिलाएँ दोयम दर्जे की जिन्दगी बसर करने को मजबूर हो गयीं. किसी भी राष्ट्र या प्रदेश की परम्परा और संस्कृति वहाँ की महिलाओं से परिलक्षित होती है. महिलाओं की स्थिति समाज में जितनी महत्वपूर्ण,  सुदृढ़ व सम्मानजनक होती है,  उतना ही समाज उन्नत, समृद्ध व मजबूत होता है. भारतीय संस्कृति में महिलाओं का स्थान और सम्मान अन्य देशों की संस्कृतियों की तुलना में कही अधिक है. भारतीय महिलाओं की स्थिति में जो उतार-चढाव आए वे उस युग के बदलते राजनीतिक,  सामाजिक,  सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश के परिणाम हैं. वैदिक युग में महिलाओं की स्थिति बहुत सम्माननीय थी. स्त्री का स्थान ऊँचा और पवित्र था. जीवन के सभी क्षेत्रों में उसे महत्ता प्राप्त थी. सभी जगह वह पुरुषों की सहभागिनी थी. मध्यकाल में उनकी स्थिति बिगड़ने लगी. समय का चक्र बढ़ता रहा और महिलाओं की स्थिति में ह्रास आता गया. स्त्री-पुरुष में निश्चित रूप से जैविक अंतर है लेकिन सच है की महिलाओं ने अपनी अकूत श्रम शक्ति से असाध्य को साध्य लिया है. वह कहीं भी किसी मामले में पुरुषों से कम नहीं है. समाज का सम्पूर्ण विकास तभी संभव है जब समाज के विकास रथ को महिला और पुरूष दोनों का समान बल प्राप्त होता है.

वर्त्तमान सामाजिक संदर्भ में महिलाओं की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है. भारतीय महिलाओें की तस्वीर कुछ बदली हुई नजर आती है. यह तस्वीर दबी-कुचली, सहमी हुई उस स्त्री से अलग है जो कभी पिता, कभी पति, कभी पुत्र की आश्रित थी. शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने उन्हें  आत्मनिर्भर बनाया है. आज की महिलाओं ने सामाजिक बेड़ियों को उतार कर फेंक दिया है. इन्हें घर से बाहर निकल कर काम करने और परिवार के मामलों में बोलने की आजादी मिल गयी है. आज महिलाएं फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी बातें शेयर कर रही हैं और घर- दफ्तर में बखूबी तालमेल स्थापित कर रहीं हैं. शिक्षा,  राजनीति,  विज्ञान-प्रौद्योगिकी,  चिकित्सा,  खेल,  उद्योग, कला, संगीत, मीडिया,  समाज सेवा आदि क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर रही है. आधुनिक भारत की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है.

इस सुनहरी तस्वीर के पीछे कुछ स्याह हकीकत भी हैं जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं की जमीनी हकीकत पर नजर डालना जरूरी है. आंकड़ें गवाह हैं कि महिला सशक्तीकरण की बयानबाजियों के बीच समाज, राजनीति और प्रशासन में महिलाएं कहाँ तक बढ़ पाई हैं. देश की आधी आबादी वास्तव में किन हालातों में रह रही हैं. महिलाओं की यह जागरुकता महानगर केंद्रित हैं या अति संपन्न, सुसंपन्न और सुशिक्षित परिवारों में परिलक्षित होता है. छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों की महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. जनजातीय इलाके की महिलाओं की स्थिति सामान्य महिलाओं की तुलना में काफी बदतर दिखाई देती है. महिलाएँ बुनियादी जरूरतों के सवाल से लेकर तमाम अन्य सुविधाओं तक खुद को उपेक्षित ही पाती हैं. कई गाँवों में महिलाओं के लिए न कोई जच्चा अस्पताल है और न ही कोई महिला विद्यालय. आठवीं-दसवीं पहुंचते-पहुंचते लड़कियां स्कूल की पढ़ाई छोड़ देती हैं. ऐसी सुविधाएँ हैं भी तो गाँव से खासी दूरी पर हैं पर वहाँ तक पहुँचने के लिए गाँव से कोई सड़क या साधन अभी तक नहीं बना है. मध्यमवर्गीय महिलाओं की स्थिति त्रिशंकु के समान है. वे आधुनिक सुसंपन्न महिलाओं का अनुकरण करना चाहती हैं मगर कर नहीं पातीं और पुरातन भारतीय नारी की तरह जीना नहीं चाहतीं. दफ्तर का काम,  बच्चों और घर की देखभाल की वजह से बने दबाव के चलते इन महिलाओं की दिनचर्या बदल रही है और कई लंबी और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एसोचैम द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 32 से 58 वर्ष की 72 प्रतिशत कामकाजी महिलाएँ अवसाद, पीठ में दर्द,  मधुमेह,  हायपरटेंशन,  उच्च कोलोस्ट्रोल,  हृदय एवं किडनी की बीमारियों से ग्रस्त हैं.

महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध कम नहीं हो रहे. न बलात्कार की घटनाएं रुक रही हैं, न छेड़खानी की,  न महिलाओं के साथ दूसरे तरीकों से होने वाली हिंसा की और न महिलाओं के प्रति समाज की मानसिकता की. घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश भर में महिलाओं के साथ हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं. महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए तमाम तरह के कानून मौजूद हैं. फिर भी,  उन पर हिंसा का सिलसिला नहीं थमा है. जहाँ एक ओर कानूनों में कई तरह की खामियां हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें सही तरीके और सख्ती से लागू नहीं किया जा रहा है. नतीजतन, अपराधी न केवल साफ बच निकलते हैं,  बल्कि उनके हौसले भी बढ़ जाते हैं. महिलाओ पर हुई हिंसा उनके स्वास्थ्य पर मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक प्रभाव डालती है. ये प्रभाव कई बार तात्कालीक होते हैं और कई बार दीर्घकालिक भी. बलात्कार महिला हिंसा का सबसे भयावह रूप है. बलात्कार पीड़ित महिला की मानसिक,  आत्मिक और शारीरिक क्षति का अनुमान लगाना भी दुष्कर है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने विश्व रिपोर्ट 2013 का विमोचन करते हुए कहा है कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा और लंबे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह बनाने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति गंभीर रूप लेते हुए बदतर हो गई है.

पिछले एक दशक में महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में भले ही सुधार हुआ हो मगर छह साल तक की बच्चियों और बच्चों की आबादी का बढ़ता फासला सरकार और समाज दोनों के लिए ही चिंता की बात है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरुष आबादी 933 से बढ़कर 940 हो गई है. लेकिन छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात 927 से घट कर 914 हो गया है, जो आजादी के बाद सबसे कम है. बच्चों के मामले में लिंगानुपात की दर घटना बालिका भ्रूण हत्या बढ़ने की तरफ इशारा करता है.

कामगार महिलाएँ आज चौराहे पर खड़ी हैं. ज्यादतर महिलाएँ गैर संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं. असंगठित होने के कारण उन्हें सामाजिक, आर्थिक और कई बार तो शारीरिक शोषण का शिकार भी होना पड़ रहा है. महिला कामगार सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक,  अवकाश, मातृत्व लाभ जैसी सुविधाओं से वंचित हैं. आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढने के बजाय घट रही है. नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2009-10 और 2011-12 यानी दो वर्ष के अन्दर गांवों में महिला श्रमिकों की संख्या में 90 लाख की कमी आयी है. वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल अपनाने के लगभग 20 वर्ष पहले सन् 1972-73 में श्रमशक्ति में महिलाओं का योगदान 32 फीसदी था. उदारीकरण की राह पकडने के 20 वर्ष बाद सन् 2010-11 में यह संख्या घटकर 18 प्रतिशत रह गई. विकास की परिभाषा में औरतों के काम के घंटों में वृद्धि, उनके प्रजनन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और अधिक सरकारी नियंत्रण और हिंसा की प्रक्रिया पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है.

महिला सशक्तीकरण महत्वपूर्ण विषय है. महिलाओं के अधिकार, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्मान, समानता, समाज में स्थान की जब भी बात होती है, कुछ आंकड़ों को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की जाती है कि उसमें इतना सुधार आया है. महिलाओं के लिए समानता के बारे में बड़े बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन समानता की बात तो दूर, यह आधी आबादी आज तक अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित है. जेंडर विषमता और महिला सशक्तीकरण के जो कानून बने उनसे सीमित महिलाओं को ही लाभ हो रहा है. अधिकांश महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आता. अशिक्षा और गरीबी के कारण महिलाओं को उन कानूनों की जानकारी नहीं पा रही है जो उनके हित के लिए हैं.

भूमंडलीकरण ने महिलाओं को तथाकथित रूप से पुरुषों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है. महिलाओं को बाहर सिर्फ इसलिए नहीं निकलने दिया जा रहा है कि पुरुष वर्ग पहले से ज्यादा उदार हो गया है बल्कि इसलिए कि आर्थिक-सामाजिक विवशताओं ने इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं रहने दिया है. आर्थिक रूप से स्वाधीन महिलाएं सामाजिक रूप से अभी स्वाधीन नहीं हो पायी हैं. निश्चिय ही मंजिल अभी दूर है मगर सामाजिक रूप से स्वाधीन होने की तीव्रता को ऐसे मौकों पर महसूस किया जा सकता है. महिलाओं के पास कामयाबी के उच्चतम शिखरको छूने की अपार क्षमता है. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं के लिए एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए और उनकी कठिन परिस्थितियों से उभरने के लिए प्रेरित करता है.

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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कहाँ गया देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र?

पिछले कुछ वक्त से देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र ख़तरे में हैं। पूरे परिवेश में नफ़रत का ज़हर घोलने की कोशिशें हो रही हैं। विभिन्न धर्म के लोगों के बीच अविश्वास और वैमनस्य बढ़ रहा है। फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्वीटर के ज़रिए अफ़वाह फैलाने और सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास किया जा रहे है। मामूली बातों को लेकर धार्मिक उन्माद भड़काने की कोशिशें की जा रही हैं, उससे न केवल गंगा-जमुनी तहजीब खतरे में पड़ गयी है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि को बट्टा लगा है। देश की एकता और अखंडता के सामने आज जितनी बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है, उतनी इसके पहले कभी नहीं थी। देश के अलग-अलग इलाकों में हो रही सद्भाव बिगाड़नेवाली घटनाएं दुनिया के सामने भारत की एक चिंताजनक तसवीर पेश कर रही हैं। सर्वधर्म समभाव का प्रतीक और विकास के मार्ग पर अग्रसर भारत में हिंसा, बर्बरता और द्वेष का कोईSecularism स्थान नहीं हो सकता है।

राजनीति ने एकता के सूत्रों को न सिर्फ कमजोर किया है बल्कि उसे अपने फायदे के लिए तहस-नहस भी किया है। सहिष्णुता का झीना आवरण उतरता और धर्मनिरेपक्ष भारत का सपना बिखरता दिखाई दे रहा है। अक्सर देखा गया है कि तमाम साम्प्रदायिक तनावों और दंगों के पीछे कोई न कोई राजनीतिक स्वार्थ रहा है। फलतः आसानी से रोके जाने वाली घटनाएं भी सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लेती हैं। धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले लोग इसे अपने-अपने फायदे के लिये सालों से इस्तेमाल करते आये हैं। यूपी के बेसगड़ा में जो हुआ वह पाशविक और बर्बर है। बीफ की अफवाह के बाद हुई हत्या पर जम कर सियासत हुई,  उग्र बयानबाजियाँ सुनने को मिले। अपने-अपने वोट बैंक की आड़ में राजनीतिक दल के नेता धुर्वीकरण की राजनीति में जुट गये। वोट बैंक की राजनीति ने देश को कई वर्गों में बांट दिया है। राजनैतिक लाभ के लिए संवेदनशील मुद्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह खतरना प्रवृत्ति है, जो समाज के लिए काफी घातक सिद्ध हो रही है।

धर्मनिरपेक्ष भारत में साम्प्रदायिक और अलगाववादी मानसिकता उग्र रूप धारण करती जा रही हैं। यूपी का बिसहेड़ा हो या मुजफ्फरनगर, बिहार के मुजफ्फरपुर का अजितपुर बहिलवारा हो या पश्चिम बंगाल का नदिया या उत्तराखंड का कोटद्वार सभी जगह अलग-अलग कारणों से सोहार्द बिगाड़ने का प्रयास किया गया। वाराणसी, सहित कई शहरों में कहीं धार्मिक जुलूस और मूर्ति विसर्जन, कहीं छेड़खानी, पहनावे और लव जेहाद तो कहीं मंदिर-मस्जिद का लाउडस्पीकर तनाव का कारण बना। कहीं किसी नामचीन लेखक की हत्या, कहीं गोमांस के नाम पर हत्या और अशांति, तो कहीं पाकिस्तान से जुड़ी हर चीज को प्रतिबंधित करने की जिद से देश में असुरक्षा और अशांति का माहौल बन रहा है। आजम खान, साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, संगीत सोम, ओवैसी बंधु, संजीव बालियान आदि नेताओं के बयानों की आक्रामकता देश में एक-दूसरे के प्रति नफरत के बीज बो रही हैं। इन नेताओं के गैरजिम्मेवाराना और भड़काऊ बयानों हमेशा सुर्ख़ियों में रहते हैं। देश में अलगाववाद का नया दौर शुरू हो गया है और भविष्य में इसके और तीव्र
होने की आशंका है। राष्ट्रीयता का मसला इतना महत्वपूर्ण है कि उसे नकारा नहीं जा सकता है। विघटनकारी शक्तियों से हमारे देश की सुरक्षा और स्थिरता दोनों को खतरा है। ऐसी ताकतों को नियंत्रित रख पाने में हमारा तंत्र पूरी तरह से विफल रहा है। राष्ट्रीय एकता और देश के सांप्रदायिक चरित्र पर सवालिया निशान लगाते हैं।

जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति इत्यादि के आधार पर बनी अस्मिताओं से हमारा अस्तित्व बनता है। इन अस्मिताओं ने हमेशा ही शांतिपूर्ण सह अस्तित्व नहीं रहता और विभिन्न समूहों के हित परस्पर विरोधी भी हो जाते हैं। कभी धर्म, कभी क्षेत्र, कभी भाषा और कभी संस्कृति के नाम पर अलगाववादी शक्तियां सर उठाती रहीं हैं। राजनीति और सरकार की नीति हमेशा से इन तत्वों को पुचकारने की रही है। सबको अपने वोट बैंक की अधिक चिंता है, राजनीतिक पार्टियां अल्पकालिक फायदों पर ज्यादा नजर रखती हैं। प्रायःहर राजनीतिक दल अपने वोट के नजरिए से चीजों को तौलता और देखता है। धार्मिक संवेदनाओं का खुला इस्तेमाल अपना वोट बैंक बचाने और बनाने के लिए किया जाता रहा है। वह चाहे कश्मीर का मुद्दा हो या अयोध्या का। गुजरात के दंगे हो या पूर्वोतर में असम की घटना, सब राजनीति के इसी सोच के प्रतिफल हैं। असम में वोटों की खातिर सरकार ने लाखों घुसपैठियों को न सिर्फ रहने की जगह दी, उन्हें भारत का नागरिक होने का हक भी प्रदान किया। इसका परिणाम यह हुआ कि असम सांप्रदायिक हिंसा की भेट चढ़ा जिसमे लाखो लोग बेघर हो गए और न जाने कितने लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय पाना और जीवन को दोबारा पटरी पर लाना बेहद कठिन होता है।

सांप्रदायिक हिंसा से समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है, जिससे समाज में वैमनस्यता जन्म लेती है। राजनीति के अलावा अलग-अलग गुटों का छद्म स्वार्थ भी हिंसा की जमीन तैयार करता है। धार्मिक और क्षेत्रीय भावनाओ को भड़काने और उनसे सहानुभूति रखनेवालों के अपने-अपने हित एवं औचित्य होते हैं। सांप्रदायिकता को वैधता प्रदान करने के लिए हर समुदाय अपने तर्क गढ़ता है। अपने को सहिष्णु और उदार मानना और दूसरे को कट्टर और शंका की दृष्टि से देखना ठीक नहीं है। हिंदू और मुसलमान ये दो ऐसे समुदायों है जिसने ने हमेशा ही संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया है। इनके बीच वैमनस्य की ऐसी आग है जो बुझती नहीं है, कुछ समय के लिए ठंडी होती है और जरा-सी हवा मिलने पर फिर भड़क उठती है। देश के अल्पसंख्यकों के में सिक्ख, ईसाई, बौद्ध और जैन भी आते हैं लेकिन उनके प्रति शक और संघर्ष की वह भावना नहीं दिखती है, जो दोनों समुदायों का आपस में है। मुठ्ठी भर लोग धार्मिक जुनूं भड़का कर लोगों के दिमाग में हमेशा ही जहर भरते रहे हैं। इन्हें जब भी मौका मिलता है, विष वमन से नहीं चूकते। वह हमारे आपसी पूर्वाग्रहों और अविश्वासों को फायदा उठाते रहे हैं। इन पूर्वाग्रहों और अविश्वासों के कारण ही अमन चैन का माहौल कभी कायम नहीं हो पाया। अंग्रेजों ने इस आपसी फूट का ख़ूब फायदा उठाया।

भारत में सांप्रदायिक विद्वेष मुख्य रूप से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्विरोंधों की उपज है। भारतीय जन उभार को धार्मिक जन उन्माद में डुबोकर अंग्रेज अपना शासन बरकार रखना चाहते थे। ब्रिटिश राज की नीति थी ‘फूट डालो और राज करो’ और बहुत हद तक वह इसमें सफल भी रहे। हिन्दुस्तानी कौम अंग्रेजों की इस नीति का शिकार बन गयी और विदेशी शासकों से लड़ने के स्थान पर आपस में ही मारकाट करने लगी। जिसकी परिणति बाद में ‘दो-राष्ट्र’ सिद्धांत के रूप में निकली। इस सांप्रदायिक विभाजन के कारण ही देश को बंटवारे का दंश झेलना पड़ा। आजादी के बाद यही काम सत्ता की राजनीति ने किया।

स्वतंत्रता के बाद देश ने एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक व्यवस्था बनाने का सपना देखा था। हालाँकि धर्मनिरपेक्षता को कहीं अक्षरशः परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन आमतौर पर उसके मायने यह होते हैं कि सभी धर्मों के प्रति समान आदरभाव होगा और सभी नागरिकों को, फिर उनकी धार्मिक आस्था चाहे जो हो, समान अवसर और व्यवहार प्राप्त होंगे। विडंबना यह है कि धर्मनिरपेक्षता को कभी ईमानदारी से लागू नहीं किया गया और देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर निरंतर खतरे के बादल मंडराते रहे। इस शब्द को लेकर हमेशा ही राजनीति होती रही है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हो रहे तुष्टीकरण के कारण समुदायों के बीच अंतर उभर कर सामने आ गये। इससे सांप्रदायिक भेदभाव गहरे हुए और गंगा-जमुनी संस्कृति की जड़े हिल गयीं। समुदाय विशेष के प्रति हद से ज्यादा उदारता धर्मनिरेपक्षता के हित में नहीं हैं। अल्पसंख्यक के नाम कोई समुदाय इतने अधिक विशेषाधिकार पाता है कि बहुसंख्यक समुदाय को इससे खतरा महसूस होने लगता है। तुष्टीकरण की नीति के कारण बहुसंख्यक समाज में अक्सर यह संदेश जाता है कि अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए उनके हकों की तिलांजलि दी जा रही है। बहुसंख्यक समाज की अवहेलना न्यायिक और मानवीय संदेश देने वाला निर्णय नहीं कहा जा सकता है।

तुष्टीकरण सामान्यतः ऐसी राजनयिक नीति को कहते हैं जो किसी दूसरी शक्ति या पक्ष को इसलिये छूट दे देता है ताकि युद्ध से बचा जा सके। एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में नागरिकों का तुष्टीकरण उचित नहीं है। गांधी जी के अनुसार तुष्टीकरण तो सिर्फ दुश्मनों के बीच होता है। अम्बेडकर ने तुष्टीकरण को हमेशा राष्ट्र विरोधी बताया था। तुष्टीकरण की नीति से ऊपर उठकर ऐसा खुशहाल समाज बनाने की कोशिश की जानी चाहिए जिसमें सबके लिए अवसर, उम्मीद और आकांक्षाएं हों। इसके लिए बहुत ही ईमानदार कोशिशों की जरूरत है। मुल्सिम वोट बैंक के मद्देनजर जो काम कांग्रेस करती रही है वही काम वाम मोर्चा,  राजद, जदयू, समाजवादी पार्टी और द्रमुक जैसी पार्टियां करती हैं। वोट की राजनीति के कारण ही उग्र हिन्दुत्व का उभार हुआ है। भाजपा ने कांग्रेस की तुष्टीकरण की कथित नीति के खिलाफ हिन्दुओं के असंतोष को उभारा और सत्ता तक पहुंची।

असहिष्णुता और धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर मुखर होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, जिससे क्षेत्रों व समुदायों के बीच शांति स्थापित करना और भी ज्यादा मुश्किल हो गया है। सबको यह समझना चाहिए कि देश में रहने वाले सर्वप्रथम भारतीय हैं, उसके बाद ही कोई हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई हैं। आम धारणा है कि मुसलमान सिर्फ अपने धर्म की ही परवाह करते हैं, अपने देश की नहीं। एक साजिश के तहत मुस्लिम समाज को कट्टरपन, दकियानूसीपन और पृथकतावादी मानसिकता के रास्ते पर धकेला जा रहा है। वह भ्रष्टाचार, आर्थिक विकास, राष्ट्रीय एकता, समाज सुधार आदि सब प्रश्नों से मुंह मोड़कर केवल और केवल मुसलमान के नाते सोचता और निर्णय लेता है। इस संकुचित और पृथकतावादी मानसिकता के कारण कई तरह की शंकाएं पैदा होती हैं। आखिर क्या वजह है कि जमीयाते उलेमा ए हिंद तथा दारूल उलूम देवबंद जैसी संस्थाओं द्वारा ‘वंदे मातरम’ के खिलाफ फतवा जारी करना पड़ता है। जहां कोई अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक समुदाय के साथ एकाकार होने से इंकार करता है वहां स्थानीय सांप्रदायिक संघर्ष उठ खड़े होते हैं। मुसलमानों की तीव्र अतिसंवेदनशीलता, छोटे-बड़े मसलों पर उनका आक्रामक और उग्र रवैया उन्हें दूसरों से अलग-थलग करता है। अल्पसंख्यक समुदाय को असुरक्षा का भाव एक-दूसरे के नजदीक लाता है और एकजुट समुदाय की तरह चलने के लिए प्रेरित करता है। हाल के वर्षों में भारत कट्टरपंथी हमले का सबसे आसान निशाना बनकर उभरा है। इस्लामी कट्टरपंथी अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए समुदाय के गुमराह युवकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे युवकों को भी इस्लामी कट्टरता में अपना भविष्य नजर आ रहा है। मुसलमान अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जितना मुखर होते हैं हिन्दुओं में उसकी प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती है।

हिन्दू, हिन्दुत्व के उमड़ते ज्वार में बहते जा रहे हैं और वे अब मुसमलमानों से कोई तालमेल बिठाना नहीं चाहते। हिन्दुओं में ‘भारतीय’ और ‘हिन्दू’ को एक-दूसरे को पर्याय मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। अधिकांशः हिन्दू मानस अपने को भारतीय मानता है। उन्हें भी यह समझना होगा कि देश सिर्फ हिन्दुओें का नहीं। हिन्दुओं के अलावा यह देश मुसलिम, सिख, ईसाई, पारसी बौद्ध सबका है। वहीं अल्पसंख्यक समुदायों को भी बेमानी बातों में उलझने के बजाए अपने व्यवहार से यह बताने की कोशिश करनी चाहिए कि अपने देश के प्रति उनका प्रेम उतना ही गहन है जितना अपने धर्म के प्रति। खुद को अलग रखने की प्रवृत्ति उनकी पीड़ा का सबसे बड़ा कारण बन गया है। बहुसंख्यक मुस्लिम तबका अपनी बिरादरी के उन कट्टरपंथियों की विध्वंसक कार्रवाईयों पर उतना ही चिंतित है, जितना समाज का दूसरा समुदाय। एक खास वर्ग के कारण पूरा समुदाय बदनाम हो रहा है। हर मुसलमान को यह अहसास कराना कि वह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल है, गलत है। समुदाय के कुछ लोगों की हरकतों के कारण सभी मुसलमानों को एक चश्मे से देखना उचित नहीं है। अब हमें संघर्ष का रास्ता छोड़कर समन्वय का रास्ता अपनाना चाहिए। हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे की संवेदनाओं और भावनाओं का सम्मान करना होगा। ऐसे व्यवहारिक उपाय ढूंढने होंगे जिससे पूर्वाग्रह छूट सके, गलतफहमियां दूर हो और दोनों समुदाय एक-दूसरे के करीब आयें।

हमारी राष्ट्रीय चेतना उत्तरोत्तर शिथिल हो रही है और जाति, क्षेत्र, भाषा व सम्प्रदाय की संकीर्ण चेतनाएं प्रबल हो रही हैं। क्षेत्रीयता और सांप्रदायिकता के उभार के कारण लोग अपने ही देश में खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। अलगावादी और कट्टरवादी शक्तियों को सख्ती से नहीं कुचला गया तो वह आधारशिला ही ढह जाएगी जिस पर एक उदार धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील समाज बनाने का सपना देखा गया था। कट्टरवाद किसी भी सूरत में ठीक नहीं है चाहे वह धार्मिक हो या सामाजिक। कट्टरवाद से केवल नुकसान ही होता है। कट्टरवादी मानसिकता के कारण इंसान ऐसा रास्ता चुन लेता है जिसकी इजाजत न तो मानवता देती है न ही विश्व का कोई धर्म देता है।

अचानक ऐसी घटनाओं का सिलसिला शुरू हो जाना हैरान करता है। भारत में लगातार हो रही नकारात्मक घटनाओं की विदेश में भी चर्चा शुरू हो गयी है। देश की छवि को बिगाड़नेवाली नकारात्मक घटनाओं को तत्काल रोकें जाने की ज़रूरत है। कट्टरपंथ वहीं संभव होता है जहां लोकतंत्र नहीं होता। किसी भी लोकतांत्रिक देश के विकास के लिए परस्पर सौहार्द का होना नितांत आवश्यक है। पूरे देश और सभी क्षेत्रों का सामान आर्थिक विकास, भाषा और धर्म के मामले में सच्चे अर्थों में सहिष्णुता तथा जातिवाद को समाप्त करने की सुदृढ़ चेष्टा यदि रही तो भारत सशक्त और संगठित देश के रूप में फिर उठ खड़ा होगा।

✍ हिमकर श्याम

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