युगपरिवर्तनकार थे राहुल सांकृत्यायन और डॉ. अंबेडकर

प्रैल महीने में स्वतंत्रता, समता और बंधुता और सामाजिक न्याय पर आधारित आधुनिक भारत का सपना देखने वाले दो बड़े विद्वानों-चिंतकों का जन्मदिन है। राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल, 1893) और डॉ. भीमराव अंबेडकर (14 अप्रैल,1891)। राहुल सांकृत्यायन और बाबा साहेब अंबेडकर ने अनेक मुद्दों पर एक जैसे विचार रखे। पृष्ठभूमि और भिन्नताओं के बावजूद दोनों विद्वानों के विचारों, दर्शन और इतिहास दृष्टि में बहुत कुछ समानताएं हैं। दोनों युगपरिवर्तनकार थे। दोनों विचारों में आधुनिकता को पसंद करते थे। दोनों का बाल विवाह हुआ और दोनों ने दूसरी शादी की। दोनों बौद्ध मतावलंबी बने। दोनों सामाजिक न्याय के पक्षधर थे। दोनों ही दलितों के उत्थान, जाति पर आधारित भेदभाव की समाप्ति और मनुष्य की समानता के लक्ष्यों के प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित थे।

राहुल सांकृत्यायन इतिहासविद, पुरातत्ववेत्ता, तत्त्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार, साहित्यकार के साथ-साथ एशियाई नवजागरण के प्रवर्तक-नायक थे। राहुल सांकृत्यायन की सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सक्रियता अप्रतिम है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में पैदा होकर बिना किसी औपचारिक डिग्री के महापंडित की उपाधि से विभूषित हुए थे। वे लगभग 36 भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने 140 किताबें लिखी थीं। राहुल सांकृत्यायन का समग्र जीवन ही एक यायावर की यात्रा और एक रचनाधर्मिता की यात्रा थी। वे जहां भी गए वहां की भाषा और बोलियों को सीखा और इस तरह आम-जन के साथ घुल-मिलकर वहां की संस्कृति,समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। बौद्ध धर्म और मा‌र्क्सवाद दोनों का मिलाजुला चिंतन उनके पास था। जिसके आधार पर उन्होंने नये भारत का स्वप्न संजोया था। वे सामाजिक क्रांति के अगुआ थे।

राहुल सांकृत्यायन का मूल नाम केदारनाथ पांडे था। 1930 में बौद्ध धर्म से दीक्षित होने पर उन्होंने अपना नाम राहुल रख लिया। सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाए। उनके ज्ञान भंडार के कारण काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी। इस तरह वे केदारनाथ पांडे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गए। धर्म के पाखंड व बाह्य आडंबरों पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगांतकारी है। उन्होंने समस्याओं से भागने की बजाय दुनिया को बदलने की सीख दी। समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के खिलाफ़ उनका मन गहरी नफ़रत से भरा हुआ था। बौद्ध धर्म और दर्शन में उनकी रुचि बढ़ी क्योंकि वह उसकी जातिविहीनता की धारणा के प्रति आकृष्ट थे। बौद्ध धर्म और दर्शन के क्षेत्र में उनके अनुसंधान को आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।  उनके लेखन और चिंतन में दलित समस्या और जातिवाद के खिलाफ आक्रोश दीखता है। ‘रामराज्य और मार्क्सवाद’, ‘साम्यवाद ही क्यों?’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘तुम्हारी क्षय’ और ‘बौद्ध संघर्ष’ जैसी कृतियों की रचना की।

ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बावजूद राहुल सांकृत्यायन ने ब्राह्मणवाद के समूल नाश का आह्वान किया था। उनका मानना था कि इनके नाश के बिना नए समाज की रचना नहीं की जा सकती है। अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में वह लिखते हैं कि हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात-पात भी एक है। अछूतों का सवाल, जो इसी जाति-भेद का सबसे उग्र रूप है, हमारे यहाँ सबसे भयंकर सवाल है। कितने लोग शरीर छू जाने से स्नान करना जरूरी समझते हैं। कितनी ही जगहों पर अछूतों को सड़कों से होकर जाने का अधिकार नहीं है। हिन्दुओं की धर्म-पुस्तकें इस अन्याय के आध्यात्मिक और दार्शनिक कारण पेश करती है। वे स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व पर आधारित एक उन्नत समाज का सपना देखते हैं। ‘तुम्हारी क्षय’ में वे साफ शब्दों में घोषणा करते हैं कि जात–पात का क्षय करने से ही हमारे देश का भविष्य उज्जवल हो सकता है।

बिहार के किसान आंदोलन में भी उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी थी। वर्ष 1940 के आसपास इस कारण उन्हें कई माह तक जेल में भी रखा गया था। भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जेल से निकलने पर स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक अखबार ‘हुंकार’ का उन्हें संपादक बनाया गया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि अंग्रेजों की शह पर पल रहे सामंतवाद और पूंजीवाद के गठजोड़ को तोड़े बिना किसानों की दशा नहीं सुधरेगी। विद्रोही चेतना, न्यायबोध और जिज्ञासा वृति ने उन्हें पूरी तरह से ब्राह्मणवादी जातिवादी हिन्दू संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ़ विद्रोह का जीता-जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। राहुल सांकृत्यायन के द्वारा रचित एक-एक पुस्तकों की रचना प्रक्रिया के गहन अध्ययन की जरूरत है। उनके अवदानों का संपूर्णता में मूल्यांकन नहीं हो पाना बड़ी विडंबना है। उन्हें वह मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे।

दूसरी ओर अंबेडकर आधुनिक भारत के सबसे ज्यादा विचारवान और विद्वान राजनेताओं में से हैं। अंबेडकर एक विधिवेत्ता, एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के साथ-साथ भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। अंबेडकर का जन्म हिन्दू जाति में अछूत और निचली मानी जाने वाली महार जाति में हुआ था। वह स्वयं उस वर्ग के थे, जो सामाजिक अन्याय, कुरूपताओं, विषमताओं और वंचनाओं के भुक्तभोगी थे, और इन्हीं विषमताओं ने उन्हें निरन्तर लड़ने और उन्हें दूर करने की शक्ति दी। अंबेडकर जीवनभर सामाजिक समरसता की बात करते रहे। अंबेडकर ने संविधान के जरिये एक मूक क्रांति की नींव रखी। वह क्रांति थी सदियों से चली आ रही दलितों की उपेक्षा, शोषण और उनकी वंचना के इतिहास को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के जरिये बदलने की। अंबेडकर का स्पष्ट मत था कि जातीय व्यवस्था देशविरोधी है और राष्ट्रीयता के लिए ठीक नहीं है। राष्ट्र की परिभाषा बाबा साहब फ्रांस के दार्शनिक अर्नेस्ट रेनन से लेते हैं। रेनन नहीं मानते कि एक नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, भूगोल या साझा स्वार्थ किसी जनसमुदाय को राष्ट्र बना सकते हैं।

अंबेडकर नौ भाषाओं के जानकार थे। उन्हें देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों से पीएचडी की कई मानद उपाधियां मिली थीं। उनके पास कुल 32 डिग्रियां थीं। दलित समाज को जागरूक बनाने के लिये उन्होंने एक अखबार का प्रकाशन-सम्पादन भी किया। 1923 में ’बहिष्कृत भारत’ नाम से अखबार का प्रकाशन आरंभ किया। अंबेडकर का मानना था कि किताबें मनुष्य को विचारवान बनाती हैं। उन्होंने कुछ किताबों का लेखन भी किया जिसमें ‘दी अनटेचेबल्स’,’ हू आर दी शुद्राज’, ‘दस स्पोक अंबेडकर’, ‘इमेनसिपेशन ऑफ दी अनटेचेबल्स’ प्रमुख हैं। उन्होंने ‘जाति का विनाश’ व्याख्यान में वर्णव्यवस्था की कटु आलोचना करते हुए उसे दुनिया की सबसे वाहियात व्यवस्था बताया। उनके अनुसार जाति ही भारत को एक राष्ट्र बनाने के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। अगर भारत को एक राष्ट्र बनाना है, तो जाति को समाप्त करना होगा।

अंबेडकर 1950 के दशक में ही वे बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने श्रीलंका (तब सीलोन) गए। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अंबेडकर जिस सामाजिक न्याय की अवधारणा का प्रतिपादन करते है वे नस्ल भेद, लिंग भेद और क्षेत्रीयता के भेद से मुक्त है। संविधान निर्माण में उनके इस सिद्धांत की भूमिका स्पष्ट देखी जा सकती है। उनका पूरा आंदोलन इस भेदभाव को ही लेकर था और इसीलिए उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किया था। पूना पैक्ट में था कि जिन जातियों के साथ भेदभाव किया गया, उन्हें सामाजिक न्याय मिलना चाहिए। इसी आधार पर मंडल कमीशन ने भी सामाजिक न्याय की मांग की थी। इसी आधार पर दलितों के सामाजिक न्याय की बात की जा रही है।

आज की दलित राजनीति ही नहीं, मुख्यधारा की राजनीति भी अंबेडकर को अपना आइकॉन मानती है। चुनाव आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था ने अंबेडकर को अधिकाधिक प्रासंगिक बनाया है। आज हर दल को अंबेडकर की जरूरत है। देश में कई अंबेडकरवादी पार्टियां हैं, जो उनके विचारों को नहीं, बल्कि उन्हें एक ब्रांड के रूप में अपना रही हैं। इसलिए कि देश की कुल आबादी के चौथाई हिस्से से अधिक वोट अंबेडकर के नाम के साथ जुड़े हैं। अंबेडकर को अपना बनाने की इस होड़ में इसकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है कि इस समाज के लिए अंबेडकर का विजन और रणनीतियां क्या थीं? 

सामाजिक न्याय की अवधारणा एक बहुत ही व्यापक शब्द है। सामाजिक न्याय की अवधारणा का मुख्य अभिप्राय यह है कि नागरिक-नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेद न हो। सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। धार्मिक और सामाजिक शोषण के विरुद्ध उनकी जो सामाजिक न्याय की अवधारणा थी, उसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी क्योंकि धर्म, जाति के आधार पर समाज में फैला भेदभाव कभी खत्म नहीं होनेवाला है। भारत में गरीबी और आर्थिक असमानता हद से ज्यादा है। भेदभाव भी अपनी सीमा के चरम पर है, ऐसे में सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय है। भारतीय समाज बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक, बहुजातीय पैटर्न पर आधारित है। यहां सामाजिक न्याय की स्थापना एक कठिन चुनौती है। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जोकि एक चुनौती है। जहां सामाजिक न्याय को हम संविधान की आत्मा कह रहे हैं वहीं इसके विपरित समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है। अमीरों तथा गरीबों की बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो गई है। भू-स्वामी किसानों का प्रतिशत घट रहा है तथा भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज हुई है। सामाजिक न्याय के झण्डे के नीचे नव-सामान्तवाद और पूंजीवाद फल-फूल रहे हैं। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जो कि एक चुनौती है। विडम्बना है कि राहुल सांकृत्यायन और अंबेडकर के विचारों को अपने आचरण में उतारने की कहीं कोई कोशिश नहीं दिखती।

✍ हिमकर श्याम

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हम, भारत के लोग…..

26 जनवरी भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का एक अहम दिन है। इसी दिन संविधान को लागू किया गया और भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। हमारा संविधान इस बात की घोषणा करता है कि भारत एक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्र राष्ट्र है। हमारा संविधान मार्गदर्शक भी रहा है और संचालक भी। यह सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करता है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए भाईचारे को बढ़ावा देता है। संविधान के निर्देशों और गणतंत्र के आदर्शों पर चल कर ही हम भारत को एक महान लोकतंत्र के रूप में स्थापित कर सकते हैं।

26 जनवरी को ही गणतंत्र दिवस इसलिए भी मनाया जाता है कि इसी तारीख को साल 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की मांग रखी गयी थी। इसके बाद कांग्रेस या महात्मा गांधी ने जो भी जनांदोलन खड़ा किया चाहे वो सविनय अवज्ञा आंदोलन (1931-32) हो या भारत छोड़ो आंदोलन (1942), पूर्ण स्वराज्य के मसले पर ही लड़ा गया। साल 1947 में जब देश आजाद हुआ उसके देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए योजनाएं बनाने की जरूरत महसूस हुई। इसकी जिम्मेदारी डॉ बीआर आंबेडकर के नेतृत्व में बनाई गई समिति को दी गई। इस समिति ने तीन वर्ष के अंदर ही यानि कि 26 नवंबर 1949 को संविधान का निर्माण किया। 26 जनवरी 1950 को भारत में पूर्ण रूप से लागू कर दिया गया। एक ब्रिटिश उप निवेश से एक सम्प्रभुतापूर्ण, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र  के रूप में भारत का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना रही।

गणतंत्र (गण+तंत्र) का अर्थ है, जनता के द्वारा जनता के लिये शासन अर्थात् गणतंत्र में जनता सर्वोपरि है। भारतीय संविधान और लोकतंत्र का सीधा भाव और अर्थ यही है कि भारत का हर नागरिक बिना किसी भेदभाव के एक बराबर है। हमारा संविधान मनुष्य मात्र को सम्पूर्ण गरिमा प्रदान करता है। एक राष्ट्र-राज्य की सफलता इसी में है कि हरेक नागरिक अपने को एक जैसा स्वतंत्र समझे यानी वह खुद को एक जैसा अधिकार संपन्न महसूस करे, लेकिन इस दौरान एक बड़ा बदलाव ये हुआ कि ‘गण’ गौण और ‘तंत्र’ हावी हो गया है। गणतंत्र के असली मायने गुम हो गए हैं। आज के माहौल में हमें अपनी खुद की व्यवस्था पर भी संदेह होने लगा है।

गणतंत्र के रूप में भारत का निर्माण विविधता में एकता की अवधारणा के साथ हुआ। गणतंत्र के रूप में राष्ट्र निर्मातों ने भारत की विविधताओं को एक समस्या के रूप में न देखते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ इस विविधता को एक शक्ति का स्रोत माना क्योंकि भारत दुनिया का सबसे अधिक एवं जटिल सांस्कृतिक विभिन्नताओं वाल देश है। धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र भारतीय संस्कृति की आधारशिला रही लेकिन ओछी राजनीति ने धर्मनिरपेक्ष की मूल भावना को ही नष्ट कर दिया है। धर्म के नाम पर एक उग्र और साम्प्रदायिक समाज बनाने की कोशिश की जा रही है। घृणा, द्वेष और हिंसा के बीज बोये जा रहे हैं। हाल के वर्षों में जाति-धर्म का जहर बड़ी तेजी से फैला है। हर रोज हमें अपने चारों ओर बढ़ती हुई हिंसा देखने को मिल रही है, यह भारत के विकास के लिए शुभ नहीं है। जातीय-साम्प्रदायिक विद्वेष से सामाजिक शांति भंग होती है और राष्ट्र की आर्थिक प्रगति बाधित होती है।

कोविड-19 से उपजी समस्याओं और दुश्चिंताओं के बीच देश गणतंत्र दिवस मना रहा है। सात दशकों की यात्रा में हमारे गणतंत्र की चमक दिनोंदिन बढ़ती रही है। विश्व पटल पर हमारा दबदबा भी बढ़ा है, लेकिन सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर देश एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। राष्ट्र के प्रति चिंतन एवं अर्पण का भाव कम होता जा रहा है, जो चिंता का विषय है। व्यक्तिगत एवं राजनीतिक स्वार्थ राष्ट्र को पीछे छोड़ता जा रहा है। हमारी प्रतिबद्धताएं व्यापक न होकर संकीर्ण होती जा रही हैं। आवश्यक है कि देश का प्रत्येक नागरिक अपने दायित्व और कर्तव्य की सीमाएं समझें।

कोरोना काल में समाज की विसंगतियाँ, विकृतियाँ, कमजोरियाँ एवं जीवन की जटिलताएँ उभर कर सामने आयी हैं। लॉकडाउन के दौरान मानवीय त्रासदी की अनगिनत तस्वीरें सामने आयी हैं। लॉकडाउन हुआ तो व्यापक रूप में मजदूरों का विस्थापन हुआ। दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक,  आंध्रप्रदेश, पंजाब में रह रहे मजदूर काम के अभाव में घर के लिए निकल पड़े। लाखों की संख्या में प्रवासी मज़दूरों को अकल्पनीय पीड़ा उठानी पड़ी। झुंड बना कर चल रहे इन मेहनतशों की तस्वीरों ने सामाजिक-आर्थिक सवाल खड़े कर दिए हैं। सड़कों पर रेंगती गरीबी और बेबसी की कल्पना किसी ने नहीं की थी। देश की एक बड़ी आबादी अधिकारों के बिना गुजर-बसर करने को मजबूर है। वह भोजन तथा इलाज जैसी अपनी बुनियादी ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर पाती। वहीं एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 77.4 प्रतिशत हिस्सा है। इनमें से सिर्फ एक ही प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 51.53 प्रतिशत हिस्सा है। तेजी से बढ़ती असमानता लोकतंत्र के लिए प्रमुख चुनौती बन गई है। आर्थिक असमानता, सामाजिक असमानता, शैक्षिक असमानता, क्षेत्रीय असमानता और औद्योगिक असमानता ही देश को विकसित बनाने में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है, हमें इसे ख़त्म करना होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि किसान और मजदूर ‘हम भारत के लोग’ का बहुत बड़ा हिस्सा हैं।

इस बार जब हम भारत का 72 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, तो देश का किसान कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलनरत है। किसान संगठनों ने गणतंत्र दिवस पर राजधानी में ट्रैक्टर रैली निकालने की पूरी तैयारी की है। किसानों की मांग रही है कि कृषि के तीन विवादास्पद कानून रद्द किए जाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा दिया जाए। विडम्बना है कि किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी करार दिए जाने से लेकर, इस पर माओवादी और असामाजिक तत्वों या सरकार विरोधियों द्वारा कब्जे में कर लिए जाने के आरोप लगाये गये। ऐसी टीका-टिप्पणियों से परहेज किया जाना चाहिए। खेती-किसानी की वजह से ही हम खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि कृषि उत्पादों का बड़ी मात्रा में निर्यात भी होता है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि केंद्र सरकार इस समस्या का समाधान करने में सक्षम नहीं दिख रही है। सरकार ने बिना विचार विमर्श के कानून बना दिया, जिसकी वजह से प्रदर्शन हो रहे हैं।

किसी भी राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने के लिए राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता की भावना बहुत महत्वपूर्ण है। भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण ‘संवैधानिक राष्ट्रभक्ति’ से होता है जिसमें हमारी साझी विरासत और विविधता के प्रति प्रशंसा का भाव शामिल है। आज देशप्रेम के नाम पर छद्म राष्ट्रवाद गढ़ा जा रहा है, लोगों को भ्रम में डाला जा रहा है। राष्ट्रवाद को प्रतीकों में समेटने की कोशिश चल रही है। सोशल मीडिया और न्यूज चैनलों में झूठ परोसा जा रहा है। समाज को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के मुद्दों को व्यर्थ के मुद्दों मे भटकाया जा रहा है। विरोध और असहमति को राष्ट्र विरोधी करार दिया जा रहा है। मौजूदा सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को ‘देश-विरोधी’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ या ‘अर्बन नक्सल’ बता दिया जाता है। जनतंत्र में निर्वाचित सरकार की आलोचना होती है, होनी भी चाहिए। आलोचना तथा असहमति लोकतंत्र का अभिन्न अंग है। सरकार की नीतियों का विरोध या असहमति राष्ट्र का विरोध नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व  न्यायाधीश दीपक गुप्ता का भी कहना है कि असहमति का अधिकार लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। देश में आजकल विरोध को देशद्रोह की तरह देखा जा रहा है, यह सही नहीं है। लोकतंत्र में विरोध करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। नागरिक के पास दूसरों के साथ मिलने और शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने का अधिकार है। सरकार हमेशा सही नहीं होती। हम सभी गलतियां करते हैं। सरकार के पास विरोध को तबतक दबाने का अधिकार नहीं है, जबतक वह हिंसक नहीं हो जाए। 

हमारा संविधान विश्वि का सबसे बड़ा संविधान माना जाता है। इसमें 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां और 104 संशोधन शामिल हैं। यह हस्तलिखित संविधान है, जिसमें 48 आर्टिकल हैं। इसे तैयार करने में 2 साल 11 महीने और 17 दिन का वक्त लगा था। समय की आवश्यकता और नई चुनौतियों को ध्यान में रखकर भारतीय संविधान में अनेक संशोधन हुए, लेकिन मूलभूत विचारधारा, सिद्धांतों, आदर्शों और प्राथमिकताओं में कोई बदलाव नहीं आया। संविधान लिखने में अहम भूमिका निभाने वाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने एक बात कही थी कि ‘आज इस संविधान की अच्छाइयां गिनाने का कोई खास मतलब नहीं है। संविधान कितना ही अच्छा हो, यदि इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे, तो यह बुरा साबित होगा। यदि संविधान बुरा है, किन्तु उसका इस्तेमाल करने वाले अच्छे होंगे तो फिर भी संविधान अच्छा साबित होगा। जनता और राजनीतिक दलों की भूमिका को सन्दर्भ में लाये बिना संविधान पर टिप्पणी करना व्यर्थ होगा’।

दुर्भाग्यवश भारत आज तक ‘गण’ और ‘तंत्र’ के बीच समन्वय नहीं बिठा सका है और जब तक ‘गण’ और ‘तंत्र’ के बीच समन्वय नहीं होगा तब तक ‘गण’ के लिए इस राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस का महत्व भी समझ से परे होगा। हमारे संविधान ने, हम सब को एक स्वाधीन लोकतंत्र के नागरिक के रूप में कुछ अधिकार प्रदान किए हैं। लेकिन संविधान के अंतर्गत ही, हम सब ने यह ज़िम्मेदारी भी ली है कि हम न्याय, स्वतंत्रता और समानता तथा भाईचारे के मूलभूत लोकतान्त्रिक आदर्शों के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहें।

✍ हिमकर श्याम

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नौ दशक पुराना है रांची की रामनवमी का इतिहास

Ramnamviचैत्र मास की नवमी तिथि को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। इसलिए रामभक्त इस दिन को राम जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं।  राम के प्रति झारखंड के लोगों में गहरी आस्था है। झारखंड रामायण काल में दंडकारण्य क्षेत्र का हिस्सा था।  प्रदेश में कई ऐसे स्थान हैं जहां प्रभु श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के दौरान पत्नी सीता एवं भाई लक्ष्मण के साथ ठहरे या जहां से गुजरे। झारखंड रामभक्त हनुमान की जन्मस्थली और परशुराम की तपोस्थली भी है। रावण के भी यहां आने के साक्ष्य हैं। झारखंड में रामनवमी बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। परंपरा के अनुसार राजधानी रांची में आज श्रीराम की भव्य, नयनाभिराम शोभायात्रा निकाली जाती है। चारों दिशाओं में बस जयश्री राम, जय हनुमान का जयघोष गूंजता है। सड़कों पर आगे-आगे महावीरी पताकाएं, उसके पीछे अखाड़ों के सदस्य, ढोल-ताशा पार्टी, अस्त्र-शस्त्र चालन करते कलाकार और रामधुन पर झूमते भक्त नजर आते हैं। रांची और आसपास के लाखों श्रद्धालु शोभायात्रा में शामिल होते हैं।

आस्था का सैलाब : शोभायात्रा की भव्यता देखते बनती है। पूरा शहर भगवान राम और हनुमान की भक्ति में रमा नजर आता है। दोपहर से देर रात तक सड़कों पर आस्था का सैलाब बहता रहता है। बच्चे, महिला, बुजुर्ग और जवान, हर कोई इसका गवाह बनता है। महावीरी पताकाएं, पंजाबी ढोल-ताशा पार्टी का विशेष आकर्षण रहता है। छऊ नृत्य समेत अन्य नृत्य मंडलियां अपनी कला बिखेरती हैं। जीवंत झांकियां मन मोह लेती हैं। हनुमान के भी कई रूप दिखते हैं। जुलूस में शामिल कलाकार पारंपरिक हथियारों के साथ हैरतंगेज करतब दिखाते हैं। शोभायात्रा बड़गाई, पंडरा-बजरा, चुटिया, अरगोड़ा, पुंदाग, लोवाडीह, बूटी मोड़, कोकर, कांके, धुर्वा, बरियातू, मोरहाबादी, डोरंडा, हिनू, हरमू रोड समेत दर्जनों जगहों से निकलती है। शोभायात्रा कई झांकियां भी शामिल होती हैं। यह शोभायात्रा श्री महावीर मंडल के नेतृत्व में निकलती है। मुख्य शोभायात्रा दोपहर में अपने निर्धारित समय पर पंडरा के बजरा से निकलकर पिस्का मोड़, रातू रोड, महावीर चौक, शहीद चौक होते हुए अल्बर्ट एक्का चौक पहुंचती है। राजधानी के विभिन्न इलाकों से अखाड़ाधारी जुलूस की शक्ल में निकलते हैं और शोभायात्रा में शामिल होते हैं। शोभायात्रा निर्धारित मार्ग से गुजरते हुए भव्य रूप ले लेती है। अल्बर्ट एक्का चौक मिलन बिंदु है। यहां महावीरी झंडों और झांकियों का प्रदर्शन किया जाता है। इसके बाद शोभायात्रा एक साथ सर्जना चौक, काली मंदिर चौक, मेनरोड होते हुए ओवर ब्रिज होकर तपोवन मंदिर पहुंचती है। शोभायात्रा के दौरान हेलीकॉप्टर से फूलों की वर्षा की जाती है। अनुमानतः दो हजार से अधिक अखाड़े शोभायात्रा में भाग लेते हैं। पिछले वर्ष 10 लाख से ऊपर रामभक्त रामनवमी की शोभायात्रा में शामिल हुए थे।

तपोवन मंदिर : राजधानी में रामनवमी का मुख्य केंद्र तपोवन, निवारणपुर स्थित राम मंदिर है। पूरे शहर से महावीर मंडल का जुलूस यहां आकर समाप्त होता है। तपोवन मंदिर महावीरी झंडे से पट जाता है। यहां भरत मिलाप होता है। भक्त भगवान का दर्शन-पूजन करते हैं। पूजा के बाद अपने-अपने अखाड़ों में लौटकर झंडे को स्थापित करते हैं। यहां अस्त्र-शस्त्र चालन की प्रतियोगिता भी होती है। सबसे बड़े एवं ऊंचे झंडे को पुरस्कृत किया जाता है। मंदिर के बाहर मेले का दृश्य हो जाता है। प्रसाद से लेकर, खाने-पीने के स्टॉल, खिलौने आदि की दुकानें लगती हैं। वर्ष 1929 में महंत रामशरण दास के प्रयास से तपोवन मंदिर रामनवमी का मुख्य केंद्र बना।

महिलाएं भी लेती हैं हिस्सा :  श्री महावीर मंडल की नारी सेना में हजार से अधिक सदस्या हैं। सभी रामनवमी की जुलूस में शामिल होती हैं। नारी सेना सात-आठ सालों से जुलूस में शामिल हो रही है। पहले साल करीब सौ महिलाएं शामिल हुईं थीं। जुलूस में महिलाएं परंपरागत हथियारों के साथ एक से बढ़कर एक करतब दिखाती हैं। कम उम्र की लड़कियां भी लाठी और तलवार का खेल दिखाकर अपने साहस और शक्ति का परिचय देती हैं। इसके लिए इन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है।

जहां भक्त टेकते हैं मत्था : महावीर चौक पर ही बजरंगबली का प्राचीन मंदिर है। महावीर मंदिर का निर्माण 1870 में हुआ था। मंदिर के नाम पर ही चौक का नाम महावीर चौक पड़ा। प्रतिमा बनारस से मंगाई गई थी। उस समय बैलगाड़ी से 18 दिनों में प्रतिमा रांची पहुंची थी। यहीं से रांची में महावीरी झंडा निकालने की परंपरा शुरू हुई थी। भक्त यहां मत्था टेकते हैं। रामनवमी के दिन 1929 के पहले झंडे का भी पूजन होता है। मुख्य शोभयात्रा यहाँ आकर रूकती है, फिर यहां से आगे बढ़ती है।

सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल : रामनवमी का पर्व सांप्रदायिक सौहार्द और सांस्कृतिक विरासत की मिसाल है। जुलूस का जगह-जगह स्वागत किया जाता है। पानी, चना, शरबत सहित अन्य सामग्री की व्यवस्था होती है। स्वागत करनेवालों में मुस्लिम और ईसाई धर्मालंबी भी शामिल होते हैं। शोभायात्रा में आदिवासी समाज के लोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। यही नहीं, शहर में महावीरी पताकाएं बनानेवाले कारीगरों में मुसलमान ज्यादा हैं। करीब सौ मुसलमान कारीगर महावीर झंडों की सिलाई और बिक्री के काम में लगे हुए हैं। ये सिर्फ रांची ही नहीं, पूरे राज्य के लिए झंडा बनाते हैं। दूर-दराज से लोग खरीददारी के लिए यहां आते हैं। उनकी बनाई पताकाओं को रामभक्त बड़े उत्साह से लहराते हैं। रांची में 250 से 300 फुट तक की पताकाएं बनाई जाती हैं।

नौ दशक पुराना है इतिहास :  राजधानी में रामनवमी का इतिहास करीब नौ दशक पुराना है। रांची में रामनवमी की शुरुआत महावीर चौक निवासी श्रीकृष्णलाल साहू और जगन्नाथ साहू के प्रयास से हुई। यह 1927 की बात है। श्रीकृष्णलाल साहू रामनवमी के समय अपने ससुराल हजारीबाग में थे और वहां का रामनवमी जुलूस देखा। रांची आकर अपने मित्र जगन्नाथ साहू सहित अन्य मित्रों को हजारीबाग की रामनवमी के बारे में बताया। यह सुन उनके मित्रों में उत्सुकता जगी और 1928 में वे लोग रामनवमी का जुलूस देखने हजारीबाग गए। वहां से लौटकर रांची में भी रामनवमी की शोभायात्रा निकालने का संकल्प लिया गया। हजारीबाग में रामनवमी जुलूस गुरु सहाय ठाकुर ने 1925 में वहां के कुम्हार टोली से प्रारंभ की थी।

1929 में निकली थी पहली शोभायात्रा : रांची में पहली रामनवमी की शोभायात्रा 17 अप्रैल, 1929 को निकली थी। यह शोभायात्रा महावीर चौक स्थित महावीर मंदिर से निकली थी। इसमें कृष्णलाल साहू, रामपदारथ वर्मा, राम बड़ाइक लाल, नन्हकू राम, जगदीश नारायण शर्मा,  जगन्नाथ साहू, गुलाब नारायण तिवारी, ननकू राम और लक्ष्मण राम मोची शामिल हुए। इस जुलूस में केवल दो महावीरी झंडे थे। महावीरी झंडा खादी के कत्थई रंग के कपड़े से तैयार करवाया गया था। शोभयात्रा महावीर चौक से अमला टोली होते हुए लोग फिरायालाल चौक तक गई और वहां का चक्कर लगाकर वापस महावीर चौक लौट आई। शोभायात्रा के आगे अनिरुध्द राम झंडा उठाये और जागो मोची ढोल बजाते हुए हुए चल रहे थे। जुलूस में दो हाथ रिक्शा भी शामिल था। अगले साल, 1930 में जब दूसरी शोभायात्रा निकाली गई तो महावीरी झंडों की संख्या बढ़ गई थी। यह शोभायात्रा नन्हू भगत के नेतृत्व में रातू रोड स्थित ग्वाला टोली से निकाली गई थी। धीरे-धीरे झंडों की संख्या बढ़ने लगी। बुजुर्गों का कहना है कि पहले पहाड़ी मंदिर पर पटाखा जलाकर रामनवमी की तैयारी की सूचना दी जाती थी। शुरुआती सालों में मुख्य शोभायात्रा रातू रोड से निकाली जाती थी, जो मेन रोड तक जाती। इसमें चर्च रोड, अपर बाजार, भुतहा तालाब, मोरहाबादी, कांके रोड, बरियातू, चडरी, लालपुर, चुटिया, हिंदीपीढ़ी आदि अखाड़े के झंडे भी शामिल होने लगे।

1936 में महावीर मंडल का गठन : वर्ष 1936 में महावीर मंडल का गठन किया गया। नाम रखा गया श्री महावीर मंडल केंद्रीय कमेटी। इसके प्रथम अध्यक्ष महंत ज्ञान प्रकाश उर्फ नागा बाबा तथा महामंत्री डॉ रामकृष्ण लाल बनाए गए। इसके बाद महावीर मंडल के नेतृत्व में रामनवमी का जुलूस निकाला गया। जुलूस पहली बार डोरंडा के तपोवन स्थित राम मंदिर तक गया। तब से जुलूस तपोवन मंदिर तक जाने लगा। रांची में श्री महावीर मंडल केंद्रीय कमेटी के नेतृत्व में ही रामनवमी महोत्सव का आयोजन होता है। पांच लोगों एवं कुछ महावीरी पताका के साथ कमेटी के नेतृत्व में वर्ष 1936 में आरंभ हुआ रामनवमी महोत्सव अब भव्य रूप ले चुका है। रामनवमी की शोभायात्रा, 1964 को छोड़कर, नियमित रूप से निकाली जा रही है। 1970 के बाद अखाड़ों की संख्या में वृद्धि होने लगी। मोहल्लों में अखाड़ों का गठन किया जाने लगा।

समय के साथ बदला स्वरूप : समय के साथ शोभायात्रा का स्वरूप भी बदला। 80’ के दशक में रामनवमी जुलूस में ताशा पार्टी का समावेश हुआ। पहले स्थानीय ताशा पार्टी, फिर बाहर की ताशा पार्टी शामिल होने लगीं। 90’ के दशक में बंगाल के कलाकार झांकी बनाने से लेकर ताशा व बैंड पार्टी के रूप में रांची की रामनवमी का हिस्सा बने। ढोल-ढ़ाक, डफ व तुरही का स्थान ताशा, बैंजो और डीजे ने ले लिया। हालांकि इस दशक के अंत आते-आते डीजे ने स्थान बनाना शुरू किया और अब तो डीजे रांची की रामनवमी का अहम हिस्सा बन गया है। झारखंड बनने के बाद इसका रूप और वृहद हो गया।

डोरंडा में भी शोभायात्रा : डोरंडा में भी रामनवमी पर शोभायात्रा निकाली जाती है। सवर्प्रथम 1935 में डोरंडा बाजार में रामनवमी की शोभायात्रा निकाली गई थी। इसमें मोतीलाल जैन, रामकुमार शारदा, रामजीलाल विजयवर्गीय, जयपाल ठाकुर, जोद्धा बाबू, लखन गुप्ता आदि शामिल थे। 1947 के बाद यह वृहद रूप लेने लगी। 1974 में शोभा यात्रा बंद हो गई थी। 1986 में दोबारा शुरुआत हुई। 1930-40 तक डोरंडा रांची से अलग माना जाता था। रांची के अलावा हजारीबाग, जमशेदपुर, धनबाद, बोकारो, डालटनगंज, देवघर, आदि शहरों में भी रामनवमी का जुलूस रामभक्त निकालेंगे।

 

 हिमकर श्याम

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परंपरा, सृजनात्मकता और नवोन्मेष

साहित्यसुपरिचित सभ्यता और सांस्कृतिक प्रवाह में स्नात होकर जीवन जीने की प्रतीतिपूर्ण पद्धति को परंपरा कहते हैं। किसी भी समाज की प्राकृतिक और भौगोलिक सीमा में, जहाँ एक जातीय मूल के लोग रहते हैं और लगभग एक ही है भाषा बोलते हैं, जिनकी सभ्यता, संस्कृति एक ही है, परंपरा का आरंभ उसी मूल से होता है। हमारे यहां वैदिक संस्कृति का वह क्षेत्र जो हिमालय से कन्याकुमारी और बंगाल से कच्छ की खाड़ी तक फैला है जहां के लोगों का संस्कार भाषा, देवी-देवता और धार्मिकता अंकुरित होती है और पल्लवित होती है, परंपरा उसी कोख से उत्पन्न होती है। परंपरा एक सुचिंतित और सतत प्रवाहशील संस्कारिक चेतना है, जिसमें समाज की उच्चतम निष्ठा बनी रहती है। परंपरा में एक सृजनात्मकता का, एक राष्ट्रीयता का भी भाव अनुस्युत रहता है। इसलिए, जो राष्ट्र की परिभाषा होती है वही परंपरा की परिभाषा बन जाती है। सुप्रसिद्ध चिंतक गार्नर का कहना है कि राष्ट्र समाज का वह भाग है जो प्राकृतिक, भौगोलिक सीमा द्वारा अन्य राष्ट्रों से पृथक होता है, जहां के लोग एक भाषा बोलते हैं, जहां सबका जातीय मूल एक है और जिनकी परंपराएं समान हैं। गार्नर की इस परिभाषा के आधार पर हम कह सकते हैं कि परंपरा की चेतना ही राष्ट्र की चेतना है और संस्कृति परंपरा की कुशल गायिका के समान होती है।

परंपरा की स्रोतस्विनी वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के भाव सागर तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती आयी है और अपनी भाव धारा में सबको आपादमस्तक स्नात कराती रही है। परंपरा ही रस साधना की उदात्त भूमि की सर्जना भी करती है और अपनी सत्ता के प्रति जागृत भी करती है। परंपरा व्यक्ति और समाज को अमरता से नहीं जोड़ती है प्रत्युत व्यक्तित्व से जोड़ती है और व्यक्ति वह होता है जिसकी जीवन-चर्या निजता के घेरे में घूमती है। उसके परे वह नहीं जा सकती। व्यक्तित्व वह होता है जो सबसे पहले अपने लोक के लिए अपने लोक की समग्रता में समा जाने के लिए अपनी निजता के घेरे को सृजन के पौरुष से तोड़ता है, उसके स्पंदन युग के स्पंदन बन जाते हैं और ऐसे व्यक्तित्व को स्मरण करने का अवसर अमृत महोत्सव बन जाता है, जिस महोत्सव में सम्मिलित होकर लगता है कि रचाव की किसी गंगा में हम आपादमस्तक डूब लिए, हमारा अमृत स्नान हो गया। परंपरा अतीत की गहराइयों से निकलकर वर्तमान को मापते हुए भविष्य की ओर उन्मुख होती है। इस प्रकार एक संवाद, जो निरंतर परंपरा और वर्तमान के बीच चलता रहता है, वही आधुनिकता को जन्म देता है।

सृजन की अपरिमेयता साहित्य का रूप लेती है और अनेक विचार तटों को काटती अपने प्रवाह से अपनी भँवरियों से अनेक कोणों का निर्माण करती हुई सागर तक की यात्रा पूरी करती है। एक नदी की सागर तक पहुंचने की बेचैन आकांक्षा ही साहित्य के उन्मेष का रूप ले लेती है। वह उन्मेष अनेक विचार सरणियों, अनेक शिल्प शैलियां के मोड़ों से होकर बढ़ती जाती है। इसी क्रम में साहित्यिक उन्मेष ही अनेक वादों को जन्म देता है। विश्व साहित्य में अध्यात्म (बाइबिल, कुरान, जेन अवेस्ता) ही प्रथम वाद रहा है जिसमें अनेक तरह से आत्मा और परमात्मा की सत्ता का विश्लेषण किया गया है। भारतीय और हिंदी साहित्य की शुरुआत भी अध्यात्म (वेद, उपनिषद) से ही होती है जिसमें स्व-पर-भिन्न सत्ता (नियामक) का विस्तार से विचार किया गया है। यही से साहित्य आरंभ होता है।

भारतीय साहित्य में सर्वोत्तम काव्य के रूप में हमने इस सृष्टि को ही समझा। वेद के अनुसार ‘पश्यं देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यती’ यानी तुम सृष्टि के सौंदर्य को, जो मूर्तरूप में परमात्मा का काव्य है, जो न जीर्ण होता है और न मरता है, देखो और प्रसन्नता प्राप्त करो। काव्य की अमरता और शाश्वतता की चिंतन की परंपरा भारतीय साहित्य में यही से पड़ी है। पीछे हमलोगों ने देखा कि परंपरा की गतिशीलता ही उन्मेष का रूप लेती है। उदाहरणार्थ हम वैदिक साहित्य को ही ले तो वेदों से लेकर पुराणों तक परंपराजन्य उन्मेष का पदचाप सुनाई पड़ता है। वेद को देव का अमर काव्य कहा गया है। वेदों में अनेक स्थानों पर कवि शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए वेद स्वयं काव्यरूप है और उसमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य पाया जाता है। काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्दों को अलंकार कहते हैं। ऋग्वेद के सप्तम मण्डल में अलंकारों के लिए ‘अरंकृत’, ‘अरंकृति’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ‘वायवाया हि दर्शत्तेमे सोभा अरंकृता:’ [ऋग्वेद 1.2.1]। काव्यशास्त्र में काव्य सौन्दर्य के आधेय जिन गुण, रीति, अलंकार, ध्वनि आदि तत्त्वों का विवेचन किया गया है वे सभी तत्त्व का प्रायोगिक अथवा व्यावहारिक रूप से वेद में पाये जाते है। डॉ. काणे का मत है कि ऋग्वैदिक कवियों ने उपमा, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों का केवल प्रयोग नहीं किया वरन् काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का भी उन्हें कुछ ज्ञान था।

ईस्वी सन् से शताब्दियों पूर्व उत्तम प्रकार की काव्य रचना हुई इसके पर्याप्त प्रमाण है। रामायण और महाभारत इन दोनों महाकाव्यों में उत्तम प्रकार की काव्य रचना मिलती है। महाभारत काव्य की अपेक्षा धर्मशास्त्र है फिर भी यह अनेक कवियों का उपजीव्य रहा है। रामायण अपने उद्देश्य, स्वरूप, विषय की दृष्टि से वास्तव में काव्य है। जहां तक काव्य रचना और काव्य समीक्षा के सामान्य सिद्धान्तों के विकास का प्रश्न है वाल्मीकीय रामायण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसे आदि काव्य और इसके रचयिता को आदि कवि होने का सम्मान प्राप्त है। उदात्त शैली के ऐसे महान काव्यात्मक प्रयास के साथ काव्य विवेचन के सिद्धान्तों के निर्माण का प्रयास स्वाभाविक है। रामायण तथा महाभारत के रूप में काव्यत्व का समृद्ध रूप सामने होने पर काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की स्थापना का मार्ग बड़ी स्पष्टता के साथ प्रशस्त हुआ होगा, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। यद्यपि तत्समय संस्कृत काव्यशास्त्र की स्वतन्त्र रचना नहीं हुई फिर भी कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल में भी पर्याप्त काव्य रचना हुई  थी। महाकाव्य का स्वरूप निरूपण ‘वाल्मीकि रामायण’ के आधार पर किया गया। रूद्रट के टीकाकार नामिसाधु ने पाणिनि के नाम से ‘पाताल विजय’ नामक महाकाव्य का उल्लेख किया है जबकि राजशेखर उन्हीं नाम से ‘जाम्बवती विजय’ काव्य को उद्धृत करते है। ‘सुवृत्ततिलक’ में क्षेमेन्द्र ने विभिन्न छंदों के व्यवहार के विधान पर विस्तार से विचार किया है।

कात्यायन के ‘वार्तिक’ में आख्यायिका शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि आख्यायिका नामक काव्यांग कात्यायन से पूर्व प्रचलित हो चुका था। महाभाष्य में ‘वारुरुचं काव्यम्’ का उल्लेख आता है। साथ ही ‘वासवदत्ता’, ‘सुमनोत्तरा’ तथा ‘भैमरथी’ नामक आख्यायिकाओं का भी उल्लेख है। पतंजलि ने ‘कंसवध’ तथा ‘बलिबन्धन’ की कथाओं पर दो कृतियों तथा उसके नाटकीय प्रदर्शन की चर्चा की है। इन तथ्यों से यह ज्ञात होता है कि पतंजलि से पूर्व पर्याप्त मात्रा में काव्य-आख्यायिका तथा नाटकों का निर्माण हुआ था। संस्कृत की सर्वाधिक प्रसिद्ध हिन्दू् कृतियां वेद, उपनिषद और मनुस्मृति हैं। दूसरा लोकप्रिय साहित्य‍ है तमिल साहित्य, जिसकी दो हजार वर्ष पुरानी साहित्य परंपरा बहुत ही समृद्ध है। यह साहित्य महाकाव्यों  के रूप में अपने काव्यात्मक स्वरूप और दार्शनिक तथा लौकिक रचनाओं के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है। अन्य महान साहित्यिक रचनाएं जिनसे भारतीय साहित्य के स्वर्ण युग का निर्माण हुआ, कालीदास की ‘अभिज्ञान शकुन्तलम’ और ‘मेघदूत’, शुद्रक की ‘मृच्छाकटिकम’ भास की ‘स्वप्न वासवदत्ता’ और श्री हर्ष की ‘रत्नावली’, बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ है। अन्य प्रसिद्ध कृतियां चाणक्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ और वात्सायन का ‘कामसूत्र’ है। जातक कथाओं को विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियों में गिना जाता है जिसमे लगभग छः सौ कहानियाँ संग्रह की गयी है। इन कथाओं मे मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है। पालि भाषा में उपलब्ध जातक कथाएं भी बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का भाग हैं।

उत्तरी भारत के कृष्ण और राम के अनुयायियों द्वारा स्थानीय बोलियों में रचित साहित्य भारतीय साहित्य की अति प्रसिद्ध कृतियां है। इसमें बारहवीं शताब्दी के दौरान रचित जयदेव की कविताएं जो ‘गीत गोविन्द’ के नाम से प्रसिद्ध है और मैथिली (बिहार की पूर्वी हिंदी) में लिखी गई आध्यात्मिक प्रेम की कविताएं भी शामिल हैं। हिंदी साहित्य का प्रारंभ मध्यकाल में अवधी और ब्रज भाषाओं में धार्मिक और दार्शनिक काव्य रचनाओं से हुआ। इस काल के प्रसिद्ध कवियों में कबीर, सूरदास और तुलसीदास विख्यात हैं। आधुनिक युग में खड़ी बोली ज्यादा लोकप्रिय हो गई और संस्कृत में नानाविध साहित्य की रचना हुई। हिंदी साहित्य का भक्ति काल वह काल है जो वैचारिक समृद्धता और कला वैभव के लिये विख्यात रहा है। इस काल मे हिंदी काव्य मे किसी एक दृष्टि से नही अपितु अनेक दृष्टियो से उत्कृष्टता पायी जाती है। इसी कारण विद्वानों ने भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहा है। इस काल की सबसे उल्लेखनीय कृति तुलसीदास की अवधी भाषा में लिखी ‘रामचरितमानस’ और सूरदास की ब्रजभाषा में लिखी ‘सूरसागर’ है। हिंदी मे भक्ति साहित्य परंपरा का शुभारम्भ महाराष्ट्र के संत नामदेव की रचनाओ से माना जा सकता है। सोलहवीं शताब्दी में राजस्थान की राजकुमारी और कवियत्री मीरा बाई ने कृष्ण का गुणगान करते हुए भक्ति गीतों की रचना की है और गुजराती कवि नरसिंह मेहता की गीत रचना भी इसी प्रकार है। सिक्ख धर्म के गुरुओं और संस्थापकों विशेष रूप से नानक और गुरु अर्जुन देव ने ईश्वर का गुणगान करते हुए भजनों की रचना की।

भारतेंदु को हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का कवि माना जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, यह मान्यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है, किंतु इस नए युग को ‘नवजागरण’ नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: ‘बंगाल नवजागरण’ के रूप में ही होती रही है। नवजागरण से तात्पर्य है भारत में आधुनिकता का प्रवेश, वैज्ञानिक दृषिटकोण का विकसित होना और किसी भी घटना के परिप्रेक्ष्य में तार्किक मीमांसा के लिए तैयार हो जाना अर्थात तर्क-विर्तक की खुली परंपरा का प्रारंभ। नवजागरण का पहला अनुभव बंगाल ने किया, बंगाल से होती हुई आधुनिकता की धारा सारे देश में पहुंची। राजा राममोहन राय समूचे देश के लिए मनस्वी बनकर उभरे, अपने विराट व्यकितत्व से उन्होंने भारतीय नवजागरण को एक दिशा दी और आधुनिक भारत निर्माण के सन्दर्भ में लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा सबसे पहले की।

महावीर प्रसाद द्विवेदी का साहित्य आधुनिक हिंदी साहित्येतिहास का आदिकाल है। इसका पहला चरण भारतेंदु -युग है एवं दूसरा चरण द्विवेदी-युग। द्विवेदी के समकालीन रामचन्द्र शुक्ल ने निबंध, हिंदी साहित्य के इतिहास और समालोचना के क्षेत्र में गंभीर लेखन किया। इसलिए गद्य के विकास में रामचन्द्र शुक्ल का विशेष महत्व है। कथा-साहित्य के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद विशेष स्थान रहा। देवकीनन्द खत्री द्वारा लिखित चन्द्रकान्ता को हिंदी गद्य की प्रथम कृति माना गया है। श्रीधर, गुलाब कवि, अमीर खुसरो, धनपाल. मधुकर कवि, नरोत्तम दास, विद्यापति आदि इस काल के प्रमुख कवि थे।

हिंदी साहित्य में आदिकाव्य से लेकर आधुनिक काल तक तकरीबन चालीस वादों का उन्मेष हुआ। विभिन्न साहित्यिक वादों के उत्थान और पतन के इतिहास से परिचित अध्येता जानते हैं कि हर वाद अपने साहित्य एवं समाज के विशेष परिवेश के अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और उसके आंदोलन के पीछे एक इतिहास है। अध्यात्मवाद (स्व-पर-भिन्न वाद), सगुण और निर्गुण वाद, बौद्धों के थेरवाद, सौत्रान्त्रिकवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद, जैनियों के अनेकांतवाद, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि का ऐतिहासिक रूप से प्रचलन हुआ और आज भी है। आगे चलकर हिंदी साहित्य में औचित्यवाद, द्वंद्ववाद, अद्वैतवाद विशिष्ट द्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, केवल द्वैतवाद, पुष्टिवाद और चैतन्य महाप्रभु का अचिंत्य भेदाभेद वाद आदि सम्बंधित सामग्रियां उपलब्ध हैं। इसके बाद रीतिवाद और गीत-प्रगीतवाद का दौर रहा। स्वच्छन्दतावाद का जन्म यूरोप में अठारहवीं सदी में अंतिम दशक एवं उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में हुआ। स्वच्छंदतावाद को अंग्रेजी में ‘रोमांटिसिज्म’ कहा जाता है। इसका जन्मदाता रूसो को माना जाता है। स्वछंदतावादी साहित्यकारों ने नियमबद्धता, परंपरानुसारिता एवं आडम्बरप्रियता का डटकर विरोध किया और साहित्य को नियमों और आदर्शों की सीमा से बाहर निकालकर आंतरिक, प्रेरणा से युक्त धरातल पर स्थित किया। इसी के प्रभाव में छायावादी काव्यान्दोलन का प्रारंभ हुआ। मुकुटधर पांडेय छायावाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा और उसके बाद पं. माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा  कुमारी चौहान, पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’. हरिवंश राय ‘बच्चन’ और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ इस काल के प्रसिद्ध कवि थे।

आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद चार ही प्रवृत्तियाँ निश्चित रूप से इतिहास-सम्मत हैं जिन्हें ‘वाद’ के रूप में मान्यता प्राप्त है। निःसंदेह इन चारों प्रवृत्तियों के अन्दर आधुनिक युग का हिंदी साहित्य नहीं सिमट जाता, किन्तु यह तथ्य है कि साहित्यिक आन्दोलन के रूप में कुछ दूर तक यही वाद चले। बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल तक हालावाद का बोलबाला रहा। नकेनवाद या प्रपद्यवाद कपूर की गंध तरह आया और वायुमंडल में विलीन हो गया। मार्क्सवाद भी अंतिम साँसे ले रहा है। हिंदी की प्रगतिवादी कविता मार्क्सवाद से प्रभावित है। सच पूछा जाये तो मार्क्सवाद का ही साहित्यिक रूप प्रगतिवाद है। साम्यवादी विचार का पोषण करनेवाली रचनाओं को प्रगतिवादी रचनाएं  कहा गया है।

हिंदी कविता को नया रूप देने में स्वच्छंदवादी कवि श्रीधर पाठक का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 1936 के आस-पास कविता के क्षेत्र में बहुत बड़ा परिवर्तन होता दिखाई पड़ा। युग की मांग के अनुसार सुमित्रा नंदन पंत और सूर्यकांत निराला, सभी ने इस प्रगतिवाद का साथ दिया। दिनकर ने भी अनेक प्रगतिवादी रचनाएं की। प्रगतिवाद के प्रति समर्पित कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन,मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर आदि नाम उल्लेखनीय हैं। इस धारा के अंतर्गत, समाज के शोषित वर्ग, किसान और मजदूरों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई। 1953 में ’नई कविता’ पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में नयी कविता को प्रयोगवाद से भिन्न रूप में प्रतिष्ठित की गई। अपने साहित्य में आधुनिकता को दर्शानेवाले प्रमुख साहित्यकारों में प्रेमचंद्र, अज्ञेय, गोपाल सिंह ‘नेपाली’, नरेश मेहता, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, गोपालदास ‘नीरज’ अरुण कमल, अशोक वाजपेयी, विष्णु नागर, विष्णु खरे, उपेन्द्रनाथ अश्क, फनीश्वरनाथ ‘रेणु’, भगवती चरण वर्मा, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, इलाचंद जोशी, मनोहर श्याम जोशी, रांगेय राघव, श्रीलाल शुक्ल, ममता कालिया, कृष्णा सोबती आदि शामिल हैं।

कामायनी आधुनिक छायावादी युग का सर्वोत्तम और प्रतिनिधि हिंदी महाकाव्य है। चिंता से प्रारंभ कर आनंद तक पन्द्रह सर्गों के इस महाकाव्य में मानव मन की विविध अंतर्वृत्तियों का क्रमिक उन्मीलन इस कौशल से किया गया है कि मानव सृष्टि के आदि से अब तक के जीवन के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास का इतिहास भी स्पष्ट हो जाता है। जयशंकर प्रसाद का कहना है कि सृष्टि का प्रथम पुरुष मनु है। कामायनी महाकाव्य में मनु के माध्यम से चिंता, आशा,वासना, संघर्ष, आनंद आदि का विवेचन किया गया है। मनु के विचारों और परिवर्तनमय भावनाओं में आधुनिकता दृष्टिगोचर होती है।

साहित्य में आधुनिकता का आंदोलन का एक बड़ा योगदान निश्चय ही अतीत के प्रति एक नया दृष्टिकोण था। टीएस इलियट के अनुसार परंपरा यूँही विरासत में नहीं मिल जाती। यदि आपको उसे पाना है तो उसके लिए गहरा अध्यवसाय आवश्यक है। इस मामले से उनकी रचना और चिंतन बहुत घनिष्ठ रूप से साथ चलते हुए उस इतिहास-बोध की साखी देते हैं। इलियट के उस सूत्र के अनुसार ‘न केवल अतीत के अतीतपन का विवेक निहित है, बल्कि उसकी वर्तमानता का अनुभव भी।‘ छायावाद के चरम उत्कर्ष के पश्चात प्रगतिवाद का आना एक ऐतिहासिक आवश्यकता एवं अनिवार्यता थी। प्रगतिवाद के बाद कोई वाद नहीं आया। कारण यह कि वाद अपने साथ एक गम्भीर चिंतन, एक विचार की पृष्ठभूमि पर आधारित होता है और एक लम्बे कालखंड तक चलता है। ये सारे साहित्यिक विस्तार, गतिशील परंपरा और वेगवान उन्मेष की परिणति हैं। ये साहित्यिक आंदोलन हिंदी साहित्य की अपनी परंपरा के अन्तर्गत क्रिया-प्रतिक्रिया के एक निश्चित अनुक्रम में उत्पन्न और समाप्त हुए इसलिए इसके नाम पर ही नहीं, बल्कि रूप पर भी हिंदी की अपनी छाप है। हो सकता है कि छायावाद और प्रयोगवाद जैसे नाम दूसरे साहित्य के पाठकों के लिए अर्थहीन हों, किन्तु हिंदी में इन नामों का निश्चित ऐतिहासिक अर्थ है, जो इनके सन्दर्भ से प्राप्त हुआ। इसी प्रकार विविध बाह्य प्रभावों के स्पर्श के बावजूद उन सभी साहित्यिक आन्दोलनों में हिंदी का अपना वैशिष्ट्य परिलक्षित होता।

साहित्य हमारी संस्कृति, परंपरा तथा अस्मिता को जीवित रखता है। साहित्य से परंपरा का वही अन्तर्सम्बन्ध है, जो उसका संस्कृति से है। परंपरा कभी रूढ़ नहीं होती। जब वह रूढ़ होने लगती है, तब वह परंपरा नहीं रहती, प्रथा बन जाती है। आधुनिकता की समझ के लिए परंपरा का ज्ञान होना जरूरी है। परिवर्तन की प्रक्रिया परंपरा का ही हिस्सा है जो कि नवीनता को जन्म देती है। परिवर्तन और निरंतरता परंपरा को मांजते हैं, जिससे परंपरा अपनी अर्थवत्ता को बनाए रखती है और अपने वास्तविक संदर्भों में आधुनिकता के गुणों को समाहित कर आगे बढ़ती है। साहित्य के लिए दोनों का अपना महत्त्व है।

नवोन्मेष परिवर्तनशील प्रक्रिया है। सृष्टि का नियम परिवर्तनशील है। व्यक्ति, वस्तु, समाज, सामाजिक नियम और व्यक्ति के आचार-विचार, रहन-सहन आदि परिवर्तनशील हैं। इस प्रकार परिवर्तनशील विचारधारा को अपनाने की जो मानसिकता होती है उसे हम आधुनिकता कहते हैं। नवोन्मेष का सम्बन्ध किसी समय विशेष से नहीं है। जो व्यक्ति आज आधुनिक है, वह कल पुरातन हो जाएगा। जो विचार आज नवोन्मेष है कल परंपरा बन जाएगा। जो मत आज प्राचीन है वह अपने समय में उन्मेष था। उन्मेष का रूप प्रत्येक युग मे बदलता रहता है। इक्कीसवीं सदी के विचार कुछ समय बाद यानी बाइसवीं सदी में पुराने हो जाएंगे।

परंपरा का निकट परिचय उस का अन्धानुकरण नहीं है, बल्कि उसे विकसित करने की तत्परता है। परंपरा वर्तमान के साथ अतीत की सम्बद्धता और तारतम्य का नाम है। प्रगतिशीलता के सन्दर्भ में परंपरा-बोध एक बुनियादी मूल्य है, फिर चाहे इसे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रखा-परखा जाये अथवा समाज के। दूसरे शब्दों में बिना साहित्यिक परंपरा को समझे न तो प्रगतिशील समाज और साहित्य का सृजन  हो सकता है और न ही अपनी ऐतिहासिक परंपरा से अलग रहकर कोई बड़ा सामाजिक बदलाव संभव है। लेकिन परंपरा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसे उसका मूल्यांकन किए बिना नहीं अपनाया जा सकता। साहित्यकार में अतीत की चेतना होनी या आनी ही चाहिए। उसका जीवन आज में बद्ध नहीं है।

✍ हिमकर श्याम

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राजभवन में ऋतुराज वसंत

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ऋतुराज वसंत ने अपने आगमन की मुनादी कर दी है। वसंत ऋतु का आगमन प्रकृति को वासंती रंग से सराबोर कर जाता है। सुबह की अलसाई सिहरन, दिन का चढ़ता ताप,  मंद-मंद पवन और सुरभित वातावरण मन में उमंग जगाता है। प्रकृति की नई श्रृंगार-सज्जा के साथ ही वासंती बयार बहने लगी है। ऋतुराज के स्वागत में राजधानी के बीचोबीच स्थित राजभवन की बगिया रंगबिरंगे फूलों से गुलजार है। ऐसा लगता है कि प्रकृति के समस्त रंग राजभवन में एकाकार हो गये हैं। फूलों की खुशबू से महक उठा है पूरा परिसर। धरती पर जन्नत का छोटा-सा नजारा है यहाँ। एक बार घूम लेंगे तो मन फूलों-सा खिल उठेगा।

राजभवन परिसर 62 एकड़ में फैला है। इसमें 10 एकड़ आड्रे हाउस का शेष 52 एकड़ राजभवन का है। परिसर मे लगभग 16000 पेड़ मौजूद हैं। 38 एकड़ जमीन में उद्यान बनाया गया है। पूरा उद्यान 12 खंडों में बंटा है। इन खंडों के नाम महान विभूतियों के नाम पर रखे गये हैं। अकबर उद्यान, अशोक उद्यान, महात्मा गाँधी औषधीय उद्यान, बुद्ध उद्यान, गुरु गोबिंद सिंह वाटिका आदि। शुरुआती दौर में यहाँ जो उद्यान था, वह अब मूर्ति उद्यान है। मूर्ति उद्यान 15 हजार वर्गफीट का है। मछली तालाब, लिली तालाब और जवाहर फव्वारा भी आकर्षण के केंद्र हैं।

अकबर उद्यान : अकबर उद्यान का निर्माण 2005 में किया गया था। इस उद्यान में फूलों के राजा गुलाब का खूबसूरत कलेक्शन है। यहाँ 150 से अधिक प्रजातियों के गुलाब हैं जो यहाँ की ख़ूबसूरती को गुलाबी करते हैं। इन देशी-विदेशी गुलाबों के नाम भी दिलचस्प हैं। कस्तूरबा गाँधी, महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू, राजाराम मोहन राय, लाल बहादुर शास्त्री, सुगंधा, सारिका, आइसबर्ग और कालिमा गुलाब सहित कई नामों के गुलाब हैं। मृणालिनी सबसे पुराना गुलाब है। गुलाबों का यह उद्यान आपको अपनी खूबसूरती और ख़ुशबू के साथ किसी दूसरी दुनिया में ले जाएगा। लाल, पीला, सफेद, गुलाबी, बैंगनी समेत अनेक रंगों के गुलाब बेहद आकर्षक लगते हैं। यहाँ हरा गुलाब भी है । प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी भी प्रभावित हुईं थीं। 1984 में यहाँ ऑल इंडिया रोज प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें इंदिरा गांधी पहुंची थीं।

महात्मा गांधी औषधीय उद्यान : औषधीय पौधों से भरा महात्मा गांधी उद्यान राजभवन के दक्षिण में स्थित है। जहां 29 प्रकार के औषधीय पौधे और पेड़ लगे हुए हैं। इनमें बबुई तुलसी, अश्वगंधा, चंद्रिका, अमृतांजन, चित्रक, लेमनग्रास, लवंग, बिलायती धनिया, गंध प्रसारिणी, सर्पगंधा, मशकदाना, वन प्याज, एलोवेरा, पिपरमिंट, मिंट, तेजपत्ता, सिंदुबार, अकरकरा, भेंगराज, स्टीविया, पाषाण भेद आदि शामिल हैं।

देशी-विदेशी फूलों का नजारा : राजभवन में देशी फूलों के अलावा विदेशी फूलों का भी नजारा मिलता है। मौसमी-सदाबहार फूलों के 400 से अधिक प्रजातियाँ मौजूद हैं। विदेशी फूलों की करीब 60 प्रजातियाँ हैं। यहां नेस्ट्रियम, साल्विया, डायमंड पेटिका, फ्लॉक्स, पेपर फ्लॉवर, कैलीफोर्निया पपी,  वंडर्स पैराडाइज, स्वीट विलियम, ज्ञानयस, पेलेंजी,मेरी कारपेट, बिगोनिया, डॉग फ्लावर, स्वीट सुल्तान और इंगलिश डेजी जैसे विदेशी फ्लॉवर्स मौजूद हैं। वसंत ऋतु में खिलने वाले तमाम फूल यहां देखने को मिलेंगे। इनकी करीब 31 प्रजातियाँ हैं। उद्यान में पिंक मैजिक कारपेट, व्हाइट डायमंड फ्लावर, पिटुनिया, गजेनिया, डहेलिया, कैलेण्डुला, गुलदाउदी और अन्य मौसमी फूलों की छटा बिखरी हुई है। गेंदा फूल भी कई प्रकार के हैं। इन गेंदों की खूबसूरती और सुगंध सभी को आकर्षित करती है।

कई दुर्लभ प्रजाति के ‘पेड़ भी : राजभवन के विशाल उद्यान में दुर्लभ प्रजाति के कई पेड़ भी मौजूद हैं। यहाँ लगभग 300 साल पुराना साल का पेड़ है। इसके अलावा करम के दो पेड़ और चंदन के पुराने पेड़ (रक्त चंदन और श्वेत चंदन), महोगनी, सीता अशोक और कद्दू पेड़ मौजूद हैं। एक कोने में बांसों का झुरमुट है जिसमें  50 प्रकार के बांस हैं। पीला बांस ख़ास माना जाता है। रुद्राक्ष, सिंदूर और कल्पतरु के पेड़ लोगों को सबसे ज्यादा लुभाते हैं। आमतौर पर रुद्राक्ष का पेड़ पर्वतीय और पठारी इलाके में होता है। रुद्राक्ष के फूलों का रंग सफेद होता है तथा इस पर लगने वाला फल गोल आकार का होता है जिसके अंदर से गुठली रुप में रुद्राक्ष प्राप्त होता है। पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सती के देह त्याग पर भगवान शंकर को बहुत दुख हुआ और उनके आंसू अनेक स्थानों पर गिरे जिससे रुद्राक्ष उत्पन्न हुआ। इसलिए रुद्राक्ष धारण करने वाले के सभी कष्ट शिव हर लेते हैं। राजभवन में आने वाले विशेष अतिथियों को रुद्राक्ष का माला बनाकर प्रदान किया जाता है।

सिंदूर का पेड़ : यहां सिंदूर का पेड़ भी है, जिसमे कांटे होते हैं। सिंदूर के सूखे फल के अंदर गोल-गोल सरसों के आकार का दाना एक दूसरे से जुड़ा होता है। पके फल के बीज को रगडऩे पर उंगलियां सिंदूर की तरह सुर्ख हो जाती हैं। सिंदूर के पौधे को कमीला भी कहा जाता है और इसे  रोरी, सिंदूरी, कपीला, कमूद, रैनी, सेरिया आदि नामों से भी जाना जाता है। औषधीय गुणों से भरपूर सिंदूर के पौधे को दर्जनों रोगों के उपचार हेतु प्रयोग किया जाता है।

कल्पतरु और बोधिवृक्ष : यहाँ दुर्लभ कल्पतरु के दो पेड़ भी हैं। धर्मग्रंथों में कल्पतरु वर्णन किया गया है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पतरु की भी उत्पत्ति हुई थी। कल्पतरु पेड़ आकार में विशालकाय होते हैं और इनकी उम्र हजारों साल होती है। कल्पतरु में अपार सकारात्मक ऊर्जा होती है। ऐसा माना जाता है कि कल्पतरु के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है। परिसर में पांच सौ सखुआ के पेड़ हैं। साथ ही 1000 फलदार पौधे भी हैं जिसमे दो सौ पेड़ केला का हैं। यहीं पर बोधगया से लाकर बोधिवृक्ष को भी रोपा गया है । अब यह आकार ले रहा है।

 आर्गेनिक किचेन गार्डन : राजभवन में एक किचेन गार्डन भी है। यहाँ तेजपत्ता, इलाइची, दालचीनी, कबाबचीनी,  लौंग सहित कई अन्य मसालों को देखा जा सकता है। स्वाद के अलावा इन मसालों में औषधीय गुण भी होते हैं। शरीर की विभिन्न व्याधियों में उपयोगी ये मसाले अमृततुल्य होते हैं। सब्जियों में फूलगोभी, बंदगोभी,मूली, गाजर, बैंगन, टमाटर आदि प्रमुख हैं। राजभवन के किचन में बननेवाली सब्जियां और मसाले किचेन गार्डन में ही उगाये जाते हैं। इस उद्यान में लगे पौधों के लिए सिर्फ़ रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया जाता है। ये पूरी तरह से आर्गेनिक होते हैं।

म्यूजिकल गार्डन : यहां नौ फाउंटेन लगाए गए हैं। जिसमें म्यूजिकल फाउंटेन और बॉल फाउंटेन शामिल है। म्यूजिकल फाउंटेन में सिर्फ देशभक्ति संगीत बजाए जाते हैं। इन गानों के अलावा राष्ट्रीय गान व राष्ट्रीय गीत के धुन भी बजते है। संगीत की धुन पर पानी की थिरकन देख लोग आनंदित होते हैं।

राजभवन में बुद्ध गार्डेन नाम से एक ग्रीन हाउस है। यहां ध्यानस्थ बुद्ध हैं। 52 हजार वर्गफीट में फैला अशोक खूबसूरत लॉन का नाम है। राजभवन के पश्चिमी हिस्से में बनाये गये छोटे से चिड़ियाघर के मोर, बतख़, टर्की मुर्गी, चाइना मुर्गी बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। राजभवन प्रशासन समस्त उद्यान को दुल्हन की तरह सजाता है। इन फूलों की छटा देखते ही बनती है। फूलों के साथ बॉटनिकल नेम लगाये जाते हैं जो लोगों को काफी कुछ जानने में मदद करते हैं। उद्यान की देखरेख उद्यान अधीक्षक मो सलाम के जिम्मे है। वे 1984 से यहां सेवा दे रहे हैं। उन्हें 82 मालियों का सहयोग मिलता है। राजभवन उद्यान को गुलजार होने में करीब चार महीने का वक़्त लगता है। अक्टूबर-नवंबर में पौधरोपण होता है। यहां लगे फूलों के बीज अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, थाइलैंड, हॉलैंड से मंगाए जाते हैं। इस साल जैविक खेती के तरीकों से उद्यान को सजाया गया है। समुद्र किनारे मिलने वाले सोलिग्रो घास से बने खाद का उपयोग किया गया है।

ब्रिटिश काल से ही राजभवन में उद्यान था।  गुलाब बाग़ को तत्कालीन गवर्नर जाकिर हुसैन ने आयाम दिया। इसको व्यवस्थित रूप गवर्नर ए.आर. किदवई के कार्यकाल में दिया गया। पूर्व राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने आम लोगों के लिए उद्यान देखने की परंपरा शुरू की थी। फरवरी, 2006 को पहली बार राजभवन आमलोगों के लिए खोला गया था। उस समय से ही राजभवन में हर दिन हजारों सैलानी पहुंचते रहे हैं। 13 वर्षों से खुल रहे उद्यान का अवलोकन लाखों लोगों ने किया है। 2014 में एक दिन में एक लाख से अधिक सैलानियों ने उद्यान का भ्रमण किया था। राजभवन में प्रवेश करने के लिए चार गेट हैं। मुख्य द्वार गेट नंबर एक कहलाता है। राजभवन उद्यान पांच फरवरी से आम लोगों के लिए खोल दिया गया है। यह 19 फरवरी तक खुला रहेगा। सुबह 11 बजे से दोपहर 3.30 बजे तक यहाँ के खूबसूरत नजारों का दीदार किया जा सकता है। शनिवार और रविवार का दिन सिर्फ़ स्कूल-कॉलेजों के विद्यार्थियों के लिए है। रांची और आसपास के जिलों के लोग राजभवन पहुँच रहे है। फूल और पौधों के बीच घंटों बिता रहे हैं। साथ ही अपने कैमरे से उद्यान के मनमोक दृश्य भी कैद कर रहे हैं। राजभवन के गेट नंबर दो से प्रवेश कर प्राकृतिक खूबसूरती का आनंद लिया जा सकता है।

✍ हिमकर श्याम

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झारखंड का लोक पर्व ‘टुसू’

tusuझारखंड में एक कहावत है ‘बारह मासे, तेरह पर्व’ यानी बारह महीने में तेरह पर्व। टुसू पर्व तेरह पर्वों में अंतिम पर्व माना जाता है। यह आदिवासी-मूलवासी और कृषक समाज का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। अगहन संक्रांति से पूस संक्रांति तक यह पर्व मनाया जाता है। पूस माह में होने के कारण इसे ‘पूस परब’ एवं कहीं-कहीं मकर संक्रांति तक चलने के कारण ‘मकर परब’ भी कहते हैं । टुसू को प्रगति तथा ओजस्विता का पर्व माना गया है। यही वह समय है जब प्रकृति के साथ-साथ समस्त जीव-जगत में नयी ऊर्जा का संचार होता है। वैसे तो झारखंड के सभी पर्व-त्योहार प्रकृति से जुड़े हुए हैं, लेकिन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से टुसू पर्व का अलग महत्व  है। टुसू केवल पर्व ही नहीं बल्कि झारखंड के गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहर का नाम है। टुसू के साथ कई सामाजिक परम्पराएं जुड़ी हैं। कृषक खेत-खलिहान का कार्य समाप्त करने के बाद इस पर्व को मनाते हैं। यह पर्व पूरे एक महीने तक सिल्ली, अनगड़ा, मुरी, बुंडू, तमाड़ सहित पूरे पंचरगना क्षेत्र, रामगढ़, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, गिरिडीह, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसांवा के अलावा पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, मिदनापुर व बांकुड़ा जिलों और ओड़िशा के क्योंझर, मयूरभंज, बारीपदा जिलों में मनाया जाता है।

नारी सम्मान का पर्व : टुसू नारी सम्मान का पर्व है।  यह टुसूमनी नामक युवती के स्वाभिमान साहस व बहादुरी की गाथा से जुड़ा हुआ है। लोककथा के मुताबिक एक गरीब किसान की तीन बेटियां थीं-सरला, भादू और टुसूमनी। इनमें टुसूमनी बहुत ही रूपवती और गुणवती थी। उस समय भारत में मुगलों का शासन था। मुगल सरदार टुसूमनी की खूबसूरती पर फिदा था और उसको  जबरन अपनाना चाहता था। टुसूमनी ने अपनी लाज बचाने के लिए स्वर्णरेखा नदी में कूदकर अपनी जान दे दी थी। उस दिन मकर संक्रांति था। जिस स्थल पर यह घटना हुई, उसे सती घाट के नाम से जाना जाता है। यह सती घाट सोनाहातू में है। जनजातीय समाज इस दिन अपनी उसी बेटी टुसूमनी के बलिदान को याद करता है।

     एक अन्य मान्यता के अनुसार कृषक समाज टुसू के रूप में अन्न की देवी की पूजा करता है। इसी समय फसल को पूर्णता प्राप्त होती है। प्रत्येक घर धन-धान्य से पूर्ण हो उठता है। जिस शक्ति के दान से जनजातीय समाज पूर्णता को प्राप्त करते है उसको टुसू शक्ति कहा जाता है। टुसू गीतों में इसकी व्याख्या मिलती है। टुसू की पूजा अगहन संक्रांति के दिन से शुरू होती है। उस दिन किसान अन्न को खेत से खलियान लाते हैं। इसी अन्न को ग्रहण कर पूरा संसार जीवित रहता है। टुसू  कृषकों के घरों में संपन्नता का प्रतीक है।

    टुसू पर्व की शुरुआत अगहन संक्रांति की रात से होती है। उस रात गाँव की कुंवारी कन्याएं टुसूमनी की प्रतिमा स्थापित करती हैं। इसे टुसू थापना कहा जाता है। महीने भर प्रत्येक शाम टुसू पर फूल चढ़ाकर दीपक से आरती की जाती है। टुसू गीत गाये जाते हैं। इन गीतों का विषय प्रायः रामायण, महाभारत की कथा और देवी-देवताओं की मनौती से प्रारंभ होता है। ये गीत जनजातीय समाज की सादगी और मासूमियत को दर्शाते हैं। इनमें टुसूमनी के स्वाभिमान, बहादुरी का जिक्र होता है। मकर संक्रांति के एक सप्ताह पहले टुसू और चौड़ल सजाने का काम होता है। चौड़ल या तो बाजार से खरीदा जाता है या घर में बनाया जाता है। चौड़ल असल में टुसू की पालकी है। चौड़ल की आकृति ताजियानुमा होती है। मकर संक्रांति के एक दिन पहले पुरुषों के बीच मुर्गा लड़ाई की प्रतियोगिता होती है, जिसे बाउड़ी कहा जाता है। मकर संक्रांति के दिन पर्व का समापन टुसू विसर्जन के साथ होता है। विसर्जन के दिन टुसू को पालकी में बिठाकर भ्रमण कराया जाता है। नदी पर ले जाने के दौरान स्थानीय लोग टुसू के पारंपरिक गीत गाते और नाचते हुए चलते हैं। मकर संक्रांति के दिन टुसू पर्व मनाया जाता है। इस दौरान घरों में विशेष पकवान, पीठा, भूजा, मटन-चावल सहित अन्य पकवान बनते हैं। व्यंजन में नारियल का भी प्रयोग होता है। चूड़ा, दही, गुड़ और तिल के लड्डू का विशेष महत्व होता है।

मेला होता है खास  : टुसू पर्व के अवसर पर जगह-जगह मेला लगता है। इन मेलों में झारखंड की लोक संस्कृति, समाज और उनके कार्य-व्यापार को देखा जा सकता है। पूरे महीने भर गांवों-कस्बों में लगने वाले मेलों में ग्रामीण अपने परिवार के साथ उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। ढोल-नगाड़ों की थाप पर थिरकते हैं। टुसू गीतों से आसपास का क्षेत्र गुंजायमान हो जाता है। मेले में कतार की कतार दुकानें, खेल-तमाशे, नौटंकी, झूले, मुर्गा लड़ाई सब कुछ होता है। विभिन्न गांवों से आकर्षक टुसू लाये जाते हैं। चौड़ल की प्रतियोगिताएँ होती हैं। उत्कृष्ट चौड़ल को आयोजन समिति द्वारा सम्मानित किया जाता है।

    पहले मेला के रूप में सतीघाट मेला को जाना जाता था, अब झारखंड में टुसू पर्व पर सैकड़ों मेले लगते हैं।स्वर्णरेखा, कांची और राढू नदी के तट पर ये मेले लगते हैं। कुछ मेले डैम और झरनों के समीप लगते हैं। सती घाट मेला झारखंड का सबसे बड़ा और पुराना टुसू मेला है। टुसूमनी की स्मृति में सोनाहातू के स्वर्णरेखा नदी के सती घाट पर पहली बार 1740 में मेला लगा था। रांगामाटी-सिल्ली मार्ग पर स्थित बरेंदा गांव में इसी स्थान पर टुसू मनी ने बलिदान दिया था। घाट के निकट मां गंगा का मंदिर है।  सोनाहातू का श्रीराम टुसू मेला भी प्रसिद्ध है।

    सिल्ली के कोंचो गांव के स्वर्णरेखा नदी तट पर ऐतिहासिक हरिहर मेला का लगता है। झारखंड और पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों से लोग इस मेले में आते हैं। श्रद्घालु स्वर्णरेखा नदी में स्नान कर मेला परिसर स्थित मंदिरों में देवी, देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं। सिल्ली के नीलगिरि में भी टुसू मेला लगता है। मेला स्थलों पर विभिन्न प्रकार की दुकानें सजती हैं। टुसू प्रदर्शनी, मुर्गा लड़ाई सहित कई तरह के प्रतियोगिताओं का भी आयोजन होता है।

     अनगड़ा प्रखंड के हुंडरू फॉल में 15 जनवरी को टुसू मेला लगता है। अनगड़ा के ही जोन्हा फॉल में 15 जनवरी व 15 फरवरी दो दिन टुसू मेला लगाया जाता है। मेला में लोग चौड़ल लेकर आते हैं। लोकगीत और नगाड़े की थाप पर झूमते हैं। मेला में पारंपरिक हथियार, कृषि उपकरण, घरेलू सामान, ढोल-नगाड़े, ईख, खिलौने आदि की खूब बिक्री होती है। रांची से 39 किमी दूर सूर्य मंदिर परिसर में 25 जनवरी को टुसू मेले का आयोजन होता है। मेले में झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों से आनेवाले श्रद्धालु भगवान भुवन भास्कर को नमन करते हैं। टुसू मेले में चौड़ल एवं नृत्य प्रतियोगिताएं होती हैं। खूंटी-रांची राजमार्ग स्थित हुटार से अंदर लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित कांची नदी के तट पर रंगरोड़ी धाम अवस्थित है। यहाँ हर साल टुसू मेला लगता है। मेले में आए श्रद्धालु गुफा में स्थित स्वनिर्मित शिवलिंग का भी दर्शन करते हैं। झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर मुरहलसूदी पंचायत में है सेंवाती घाटी। प्रत्येक साल 15 जनवरी को यहां टुसू मेला लगता है। सीमा पर होने के कारण दोनों राज्यों से महिला-पुरुषों की काफी भीड़ उमड़ती है।

     टुसू पर्व पर चांडिल अनुमंडल क्षेत्र के जयदा में पांच दिनों तक चलने वाला प्रसिद्ध मेला लगता है। इसमें प. बंगाल, ओड़िशा समेत दूरदराज से लोग आते हैं। स्वर्णरेखा नदी में स्नान कर जयदा स्थित प्राचीन बूढ़ाबाबा शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं।  इसके अलावा तमाड़ के राजबाड़ी, चांडिल डैम, ईचागढ़ के राम मेला, बुटगोड़ा मेला, नीमडीह के छाता पोखर मेला समेत कई स्थानों पर मेला का आयोजन होता है। कोल्हान के झींकपानी, हाटगम्हरिया, राजनगर, हाता, जैंतगढ़, जगन्नाथपुर, मझगांव, सरायकेला सहित विभिन्न गांवों में टुसू मेला का आयोजन किया जाता है। जो हफ्तों तक चलते रहता है। इस तरह टुसू पर्व हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न होता है। इसके अगले दिन पहला माघ ‘आखाइन जातरा’  के रूप में मनाया जाता है। जनजातीय किसान आखाइन को ‘नव वर्ष’ के रूप में मनाते हैं। साल की शुरुआत मानकर इस दिन से ही सारे शुभ कार्य शुरू किये जाते हैं। जनजातीय परंपरा में इस दिन से ही खेत में पहला हल चलाकर खेती की शुरुआत की जाती है, जिसे ‘हालपुनहा’ कहते हैं।

 

✍ हिमकर श्याम

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हिंदी पट्टी में दरकी जमीन

bjp-congressपांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने बीजेपी से छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान छीन लिया है.  हिंदी पट्टी के तीन अहम राज्यों में कांग्रेस के जबरदस्त उभार से कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रही बीजेपी को तगड़ा झटका लगा है. बीजेपी का हिंदी पट्टी पर राजनीतिक वर्चस्व रहा है. ये तीन राज्य पार्टी के मजबूत गढ़ रहे हैं. नतीजों ने 2019 के लोकसभा चुनाव को दिलचस्प बना दिया है. हिंदी पट्टी में बीजेपी की दरकी जमीन और खिसका जनाधार कांग्रेस के लिए वरदान साबित हो सकता है.कांग्रेस में संजीवनी फूंकने की कोशिशों में लगे पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए लोकसभा चुनावों से पहले मिली यह बड़ी जीत है. यह संयोग ही है कि राहुल के कांग्रेस की कमान संभालने के करीब ठीक एक साल बाद पार्टी को यह जीत मिली है. राहुल गांधी 16 दिसंबर 2017 को पार्टी के अध्यक्ष बने थे.

इन नतीजों के बाद राहुल का कद निश्चित रूप से बढ़ेगा. साथ ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का हौसला भी बढ़ेगा. हालांकि मिजोरम में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है, वहीं तेलंगाना में पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है.तीन राज्यों के चुनाव परिणाम ने यह दिखा दिया है कि  कांग्रेस बीजेपी को न केवल उसके गढ़ में चुनौती दे सकती है, बल्कि उसे सत्ता से बाहर का रास्ता भी दिखा सकती है. छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15 सालों से बीजेपी की सरकार थी, जबकि राजस्थान में पाँच साल पहले गहलोत सरकार को हराकर वसुंधरा ने सत्ता संभाली थी. कांग्रेस की जीत ने महागठबंधन की संभावनाओं में वृद्धि की है. यह जीत राहुल को विपक्ष के संभावित महागठबंधन का नेता बना सकती है. मोदी से मुकाबले के लिए विपक्ष का एक सर्वमान्य नेता होना बहुत जरूरी है,

राजनीति में गढ़ का बहुत महत्व है. बीजेपी ने अपना गढ़ बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पार्टी इन तीनों राज्यों में पूरे दमखम के साथ प्रचार में उतरी थी. तीनों राज्यों में स्थानीय नेतृत्व के अलावा केंद्रीय नेतृत्व भी जमकर प्रचार में उतरा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बीजेपी ने चुनाव प्रचार में जमकर इस्तेमाल किया. इन नतीजों का प्रभाव अन्य हिंदी भाषी राज्यों मसलन, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, उत्तराखंड आदि पर पड़ना लाजिमी है. मई 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार के लिए ये बड़ा झटका है, क्योंकि इन राज्यों ने बीजेपी को केंद्र में सत्ता में पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई थी. बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ से लोकसभा की 65 सीटों में से 62 जीती थीं. लोकसभा की 543 सीटों में 226 सीटें हिंदी पट्टी में हैं, जिसमें बिहार, झारखंड,यूपी, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश आते हैं. हिंदी पट्टी के इन 226 सीटों में बीजेपी की 192 सीटें हैं.

यह कांग्रेस की जीत के बजाए भाजपा की हार है. इस हार को राष्ट्रीय नेतृत्व की घटती लोकप्रियता के रूप में देखा जाएगा. जानकार बीजेपी की हार का कारण केंद्र और राज्य की सत्ता पर विराजमान पार्टी से नाराजगी को भी मान रहे हैं. इनके अनुसार खेती-किसानी की समस्या से परेशान किसानों और बेरोजगार युवाओं ने भाजपा के खिलाफ मत डालकर अपना रोष जताया है. मोदी मैजिक मोदी मैजिक फीका पड़ा है. यह हार पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर विपरीत असर डालने वाली हो सकती है. एनडीए के तमाम दलों को 2019 तक बनाए रखना मोदी की सबसे बड़ी चुनौती है. आंध्र प्रदेश में एन चंद्रबाबू नायडू और बिहार में उपेन्द्र कुशवाहा जैसे पुराने साथी एनडीए से चले गए हैं. शिवसेना भी नाराज है.

गुजरात चुनाव के बाद 13 संसदीय सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को सिर्फ तीन सीटों पर जीत मिली. वहीं, 22विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में वह सिर्फ पांच  सीटें जीत पायी.  देखने वाली बात यह है कि लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले आए इन चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर क्या असर पड़ता है. हिंदी पट्टी में आया यह बदलाव राजनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योकि दिल्ली का रास्ता हिंदी पट्टी से होकर ही जाता है.

✍ हिमकर श्याम

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रामजी करेंगे बेड़ा पार!

राम मंदिर एक बार फिर ख़बरों मेंram-mandir है। राजनीतिक गलियारों में राम के नाम की गूंज भी सुनाई देने लगी है। राम मंदिर के मुद्दे पर रैली, कार्यक्रम कॉन्फ्रेंस और टीवी पर बहस हो रहे हैं। अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) की धर्मसभा, शिवसेना के आशीर्वाद समारोह  के बाद काशी में परमधर्म संसद में राम मंदिर निर्माण को लेकर आवाज बुलंद की गयी।  बीजेपी के नेता भी लगातार बयान दे रहे हैं कि 2019 से पहले अयोध्या में राममंदिर का निर्माण होगा। विगत वर्षों की तरह इस बार भी छह दिसंबर को अयोध्या पर साम्प्रदायिक रंग चढ़ाने का प्रयास  किया जा रहा है। बाबरी विध्वंस एक ऐसी घटना थी जिसने पूरे देश के धार्मिक सौहार्द को हिलाकर रख दिया था। हिंदू-मुस्लिमों के बीच एक गहरी दरार पैदा कर दी थी। 6 दिसंबर, 1992 की घटना ने विश्व के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र के सामने कई सवाल खड़े कर दिये थे। वे सारे सवाल आज तक अनुत्तरित हैं।  छह दिसंबर को विहिप द्वारा ‘शौर्य दिवस’ मनाने और मुस्लिम संगठनों द्वारा ‘काला दिवस’ मनाने की घोषणा की गयी है। वहीं वामदलों ने छह दिवस को देश व्यापी स्तर पर ‘संविधान एवं धर्मनिरपेक्षता संरक्षा दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है।

लगभग पांच सौ पुराना है विवाद : बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का विवाद लगभग पांच सौ साल पुराना है। विवाद का कारण यह कि बाबरी मस्जिद उस जगह पर बनी है जहां पांच हजार साल पहले भगवान राम का जन्म हुआ था। और यह कि वहां पहले एक मंदिर मौजूद था जिसे पहले मुगल बादशाह बाबर के एक सिपहसलार मीर बाक़ी ने ध्वस्त किया और ध्वंसावशेष पर मस्जिद खड़ी की जो बाद में बाबरी मस्जिद कहलाई। यहां मंदिर-मस्जिद को लेकर पहली बार हिंसा 1853 में हुई थी। उस समय यह नगर अवध क्षेत्र के नवाब वाजिद अली शाह के शासन क्षेत्र में था। मंदिर-मस्जिद का मामला पहली बार 19 जनवरी, 1885 को अदालत में पहुंचा। महंत रघुबर दास ने फैजाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद से लगे राम चबूतरे पर राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए अपील दायर की थी। अदालत ने वह अपील ख़ारिज कर दी थी। 1989 के बाद यह उफान पर था। उस वक्त अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए बीजेपी ने व्यापक आंदोलन चलाया था। आंदोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा आडवाणी के कंधों पर था। आडवाणी के नेतृत्व में रथ यात्राएं पूरे देश में निकाली गयीं, जिनका मकसद हिंदुओं को राम मंदिर के मुद्दे पर एकजुट करना रहा। हालांकि उस आंदोलन की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद ने साधुओं के मदद से की थी, लेकिन 1980 के दशक में बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने उसे लपक लिया और राम मंदिर आंदोलन के हीरो बन गये। इस आंदोलन में आडवाणी के साथ प्रमुख राजनीतिक चेहरे के रूप में डॉ मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार उभरे। उधर मुस्लिम समुदाय भी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाकर आंदोलन और संघर्ष का रास्ता पकड़ लिया था। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित बाबरी ढाचे को गिरा दिया गया। उसके बाद देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। दंगों की भयावहता मुंबई और सूरत में बहुत ज्यादा थी। इस मामले में आपराधिक केस के साथ-साथ दीवानी मुकदमा भी चला। अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद राम जन्मभूमि आंदोलन की रफ़्तार कम हो गयी। घटना के साढ़े तीन साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर पहली बार केंद्रीय सत्ता का स्वाद चखा। इन वर्षों में देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदल गया। इस बड़े बदलाव के केंद्र में अयोध्या का विवादित ही ढांचा है।  बीजेपी केंद्र के साथ 18 राज्यों की सत्ता में है, वहीं कांग्रेस के पास महज पांच राज्य बचे हैं।

बिछायी जाती रही हैं चुनावी बिसातें : इस घटना को 26 बरस गुजर गये लेकिन बार-बार इस मुद्दे की गूंज भारत की राजनीतिक गलियारे में सुनाई देती है। 1992 में यूपी में बीजेपी की सरकार थी। मुख्यमंत्री थे कल्याण सिंह। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। नरसिम्हा प्रधानमंत्री थे। यूपी में फिर बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर विराजमान है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, जो हिंदुत्व का चेहरा भी हैं। इतना ही नहीं केंद्र में भी बीजेपी की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। संघ परिवार, राममंदिर से जुड़े संगठन और समर्थक लगातार मंदिर बनाने का दबाव बनाने में जुटे हुए हैं। बीजेपी भी चाहती है कि यह मुद्दा रंग पकड़ ले, ताकि वोटों का धुर्वीकरण हो। पार्टी के रणनीतिकार मानते हैं कि अयोध्या की जमीन हिन्दुत्व की खेती के लिए पर्याप्त उर्वर है और उस पर थोड़ी-सी मेहनत से ही वोटों की फसल लहलहा सकती है। मंदिर-मस्जिद विवाद पर चुनावी बिसातें बिछायी जाती रही हैं। जब भी चुनाव नजदीक होता है तो राम लला के मंदिर मुददे को बड़ी ही शिद्दत से उठाया जाता है लेकिन चुनावी रंगत खत्म होते ही ये मुद्दा गायब हो जाता है। राम मंदिर के नाम पर शुरू हुई यह सियासत यकीनन अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए शुरू हुई है। कांग्रेस पर भी राम के नाम का सहारा लेने का (यानी सॉफ्ट हिंदुत्व अपनाने का) आरोप लग रहा है। चुनाव विधानसभा का हो या लोकसभा का इस मुद्दे ने बीजेपी को लगातार सहारा दिया है।  2014 में भी बीजेपी ने राम मंदिर के निर्माण का वादा किया था, हालाँकि उस मंदिर के बजाय विकास को मुद्दा बनाया। चुनावी अभियान का मुख्य मुद्दा देश का विकास और बदलाव था। पार्टी ने देशभर में वोटर को खास कर नौजवानों यह यकीन दिलाया था कि उसके पास तेज विकास का मॉडल मौजूद है और मोदी उनकी आकांक्षाओं को पूरा करेंगे। घपले-घोटालों में घिरी कांग्रेस सरकार के लिए मोदी के विकास के एजेंडे को चुनौती दे पाना संभव नहीं हुआ।

मई 2014 में भाजपा सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर बड़े और अहम फैसले लिए। आर्थिक सुधार की इन कवायदों से आर्थिक आंकड़े अपने शीर्ष पर पहुंचे तो जरूर लेकिन चौथे साल में ही आंकड़ों में गिरावट का दौर शुरू हो गया। ऐसी स्थिति में केंद्र की मोदी सरकार को 2019 में प्रस्तावित आम चुनावों के वक्त देश की अर्थव्यवस्था से उसे ऐसे आंकड़े नहीं मिलने जा रहे जिसे अपनी उपलब्धि बताकर सत्ता पर दोबारा काबिज हो सके।  मोदी मैजिक  भी फीका पड़ा है, इसलिए अयोध्या के मुद्दे को आगे रखकर पार्टी आगामी चुनाव में उतरना चाहती है। ऐसा लग रहा है कि साढ़े चार साल के बाद राजनीति फिर घूम फिर मंदिर के मुद्दे पर पहुंच गयी है।

पीछे छूट रहे हैं अहम मुद्दे : विकास पर बात करने की जगह सारी बहस राम मंदिर पर केंद्रित होता दिख रहा है। अहम मुद्दे फिर पीछे छूट रहे हैं और मंदिर चुनावी मुद्दा बनने लगा है। पार्टी के कुछ नेता हिंदुत्व और राम को विकास का पर्याय बताने में लगे  हैं। पार्टी एक बार फिर राम नाम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। दरअसल राम मंदिर का मुद्दा उछालकर जमीनी मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है। वैसे भी किसान, मजदूर और बेरोजगार इस सरकार के लिए कोई मुद्दा नहीं। आर्थिक मोर्चे पर सरकार को लगातार सवालों का सामना करना पड़ा है। युवाओं को हर साल दो करोड़ रोजगार देने के वादे पर सरकार विफल रही है। मोदी सरकार किसानों और महंगाई की मार झेलने वाले आम लोगों से अपने चुनाव घोषणा-पत्र में किए किसी भी वादे को पूरा नहीं कर पाई  है। किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की जो घोषणा की गई, वह जमीन पर कहीं नहीं उतरी। राम मंदिर के शोर में देश के विभिन्न हिस्सों से आये उन किसानों की आवाज भी दब गयी जो देश के सामने अपना दुख-दर्द रखने दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचे थे। देश के कई राज्यों से जुटे यह किसान दिल्ली की सड़कों पर चीख-चीख कर अपनी मांगों को पूरा किए जाने की गुहार लगा रहे थे, लेकिन उनकी यह गुहार न तो सरकार के कानों तक पहुंची और न ही मेनस्ट्रीम मीडिया के। किसानों ने नाराजगी जताते हुए कहा कि हमारे लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना मुश्किल हो रहा है लेकिन सरकार राम मंदिर के जरिए लोगों का ध्यान किसानों के मुद्दों से भटकाना चाहते हैं। किसानों का कहना है कि उन्हें राम मंदिर के बजाय कर्ज माफी और अपने उत्पादों का लाभकारी मूल्य चाहिए। किसान लगातार अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकार ने उनकी मांगों पर ज़रा भी गंभीरता नहीं दिखा रही है। किसानों के आंदोलन में मंच साझा कर देश के विपक्ष ने एकजुटता का प्रदर्शन जरूर किया।

अयोध्या का विवादित ढांचा मात्र राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गया है। हर पार्टी अयोध्या के विवादित ढांचे पर बयानबाजी तो करती है लेकिन कोई इस मुद्दे का निदान नहीं चाहता। स्मरण रहे कि विवादित ढांचा गिराये जाने के एक साल बाद जनवरी 1993 में नरसिम्हा राव सरकार के द्वारा इस मसले पर अध्यादेश लाया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने 7 जनवरी 1993 को इसे मंजूरी दी थी। तब बीजेपी ने सरकार का पुरजोर विरोध किया था। अब जबकि मोदी सरकार अध्यादेश लाने का मन बना रही तो कांग्रेस कह रही है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए। राम मंदिर निर्माण से जनता का भावनात्मक जुड़ाव है। हिन्दू धर्मावलम्बियों का मानना है सारे ऐतिहासिक सबूत मंदिर के पक्ष में हैं लेकिन राम लला तिरपाल में रहने को मजबूर हैं। आने वाले दिनों में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने या फिर अध्यादेश लाने की मांग और प्रबल होने वाली है। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर मामले की निर्णायक सुनवाई होने वाली है। अदालत का मानना है कि अगर संत समाज और सभी धार्मिक-राजनीतिक दलों के साथ मिल-बैठ कर कोई सर्वमान्य हल निकाल लिया जाए, तो मंदिर निर्माण की राह सुगम हो जाएगी।

✍ हिमकर श्याम

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पुराना है रांची में दुर्गा पूजा का इतिहास

ratu mahalदुर्गा पूजा की शुरुआत सांस्कृतिक भूमि मानी जानेवाली बंग भूमि अर्थात बंगाल से हुई थी। कोलकाता के बाद राँची में सबसे अधिक हर्षोल्लास से दुर्गोत्सव मनाया जाता है। यहाँ दुर्गा पूजा का इतिहास काफी पुराना है। सर्वप्रथम रातू पैलेस में दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था। 1870 में नागवंश के 61 वें महाराजा प्रताप उदय नाथ शाहदेव ने राजबाड़ी में दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी। रातू पैलेस की पूजा भव्यता के लिए प्रसिद्ध है और रांची ही नहीं, पूरे झारखंड में विशिष्ट स्थान रखती है। काफी संख्या में लोग राजघराने की पूजा देखने आते हैं। कहा जाता है कि महाराजा प्रताप उदय नाथ शाहदेव की माता लखन कुंवरी देवी को राजबाड़ी में दुर्गा पूजा के आयोजन के लिए माँ भवानी से स्वप्नादेश प्राप्त हुआ था। इसके बाद से ही यहाँ पूजा का आयोजन होता आ रहा है।राज परिवार की मौजूदगी में सारे विधि-विधान नंदकेश्वर पद्धति से होते हैं। दुर्गा पूजा की यह सबसे प्राचीन पद्दति है। इस पद्दति की शुरुआत नंदकेश्वर ऋषि द्वारा की गयी थी।

रातू पैलेस में दुर्गा पूजा का आरंभ षष्ठी तिथि से होता है। दशमी को शाम ढलने से पहले ही दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन कर दिया IMG_20181016_204956 जाता है। यहाँ बलि देने की भी परंपरा रही है। इस बलि को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। पूजा के दौरान पैलेस के बाहर विशाल मेला लगता है। आसपास के ग्रामीण मेले  का लुत्फ़ उठाते हैं। दुर्गा पूजा के अवसर पर ढाक बजाने शुरुआत भी रातू पैलेस से हुई थी। राजघराने द्वारा आयोजित प्रथम दुर्गा पूजा में ही बाँकुड़ा से ढाकिये मंगाये गये थे। देश के रियासतों में एक रातू रियासत का कभी रसूख हुआ करता था। कहा जाता है कि प्रथम महाराजा फणि  मुकुट राय  शक्ति के उपासक थे। उनके कार्यकाल में कलश स्थापना कर पूजा की जाती थी। राजा चिन्तामणि शाहदेव और युवराज गोपालनाथ शाहदेव की मृत्यु के बाद महल की पूजा की जिम्मेवारी बेटियों और वधुओं ने ली है। 2010 में युवराज गोपालनाथ शाहदेव की मौत के बाद सात साल तक यहाँ सादगी से पूजा होती थी। दादी बतलाती थीं कि उस जमाने में दुर्गा पूजा के दौरान राज कर्मचारियों के घर खाना नहीं बनता था। सबके लिए राजमहल में ही खाना बनता था। बड़े-बड़े हांड़ी में खाना तैयार होता था। उत्सव का माहौल रहता था। हर कार्यक्रम में नगाड़ों की आवाज सुनाई देती थी। नगाड़ों की आवाज से ही पूजा की जानकारी कर्मचारियों और रातू के लोगों को मिलती थी। दादी के पिताजी (धर्मनाथ सहाय) और भाई (मधुसूदन प्रसाद) रातू स्टेट में काम करते थे। धर्मनाथ सहाय दीवान थे और मधुसूदन प्रसाद तहसीलदार। पूजा में नगाड़ा बजाने की परंपरा अब भी  है।

दुर्गा बाड़ी की पूजा : रातू पैलेस के बाद रांची में दुर्गा पूजा का आयोजन दुर्गा बाड़ी में किया गया था। 1883  में रांची जिला स्कूल के शिक्षक गंगा चरण वेदांत वागीश के प्रयास से रांची में पहली बार श्री श्री हरिसभा नाम से दुर्गा पूजा कमिटी का गठन हुआ। आज जहां दुर्गा बाड़ी है, वहां खपरैल मकान था, वहीं प्रथम बार दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था। दुर्गा बाड़ी के सामने जहां अभी शास्त्री मार्केट है, मेले का भी आयोजन होता था। मेला पांच दिनों तक चलता था। शहर की आबादी बढ़ने के बाद जगह कम पड़ने लगी और मेला बंद कर दिया गया। दुर्गा बाड़ी में 135 साल पहले जिस आस्था और परंपरा के साथ दुर्गा पूजा की शुरुआत की गयी थी वह बरकरार है। यहाँ आज भी परंपरागत तरीक़े से पूजा अर्चना और साज-सज्जा की जाती है। दुर्गा बाड़ी की पूजा एक और खासियत यह है कि यहाँ की प्रतिमाएं एक ही नाप (एक चाला) की होती हैं। प्रतिमा का निर्माण पुरुलिया एवं कोलकाता के मूर्तिकार करते हैं। पहली प्रतिमा झालदा के जगन्नाथ लाहिड़ी ने बनायी थी। यहाँ बलि देने की भी परम्परा थी, जिसे 1927 के बाद खत्म कर दिया गया। दुर्गा बाड़ी में दशमी को होनेवाला सिंदूर खेला काफी प्रसिद्ध है। माँ की पूजा बंगाल से आये पुरोहितों द्वारा सम्पन्न कराया जाता है। प्रतिमा का विसर्जन भी अलग तरीके किया जाता है। माँ की प्रतिमा को कंधे पर रखकर तालाब किनारे ले जाया जाता है।

बंग समुदाय की भागीदारी : राजबाड़ी और मंदिर से बाहर निकलकर दुर्गा पूजा ने जब सार्वजनिक रूप लिया तो पंडालों की जरूरत पड़ी। प्रतिमाएं, पंडालों में सजने लगी। शुरुआती दौर के दुर्गा पूजा में बंग समुदाय की भागीदारी सबसे अधिक थी। आज भी दुर्गाबाड़ी के अलावा बंग समुदाय द्वारा करीब आधा दर्जन पंडालों में बंगला रीति रिवाज से पूजा होती है। पंडालों की साज-सज्जा और प्रतिमा बंगाल की पूजा के समतुल्य होता है। पूजा में बंगाल से ढाकिये मंगाये जाते हैं। विसर्जन के दिन इन पंडालों में सिंदूर खेला जाता है। सिंदूर खेला के दौरान महिलाएं माता को सिंदूर पहना कर विदा करती हैं और फिर आपस में एक दूसरे को सिंदूर लगा कर मां से अपने परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।

डोरंडा दुर्गा पूजा का आरंभ 1912 में किया गया। एजी ऑफिस में कार्यरत कर्मचारी, जो पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के विभिन्न जगहों से यहां आये थे, उन्होंने इसकी शुरुआत की थी। ये लोग नार्थ आफिस पाड़ा एवं साउथ आफिस पाड़ा में रहते थे। इनलोगों द्वारा डोरंडा में पूजा आयोजित करने का निर्णय लिया और दुर्गा पूजा कमेटी का गठन किया। छोटे स्तर पर परम्परागत ढंग से दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई। हाईकोर्ट के पीछे छोटे से परिसर में पूजा होती थी। एजी ऑफिस की ओर से पूजा के लिए जगह मिली थी, जहां बंगाली मंडप मंदिर की स्थापना की गयी थी। तब से यहां पूजा होती आ रही है। 1913 में हिनू दुर्गा पूजा कमेटी का गठन हुआ। गवर्नमेंट प्रेस और बोर्ड ऑफ रेविन्यू में कार्यरत बंगाली परिवार इससे जुड़ गये। वर्तमान में बंगाली मंडप मंदिर  को पुराने परिसर से हटाकर पार्क के सामने स्थापित किया गया है। 2013 में बंगाली मंडप की 102 वीं पूजा नये परिसर में हुई थी। मालूम हो कि अप्रैल, 1912 में बंगाल विभाजन के बाद  21 मई, 1912 को बिहार-उड़ीसा महालेखाकार, कार्यालय की स्थापना राँची में हुई थी। बंगाली मंडप की तरह बिहारी मंडप (हिनू यूनाइटेड क्लब श्री दुर्गा पूजा समिति) भी  शारदीय नवरात्र दुर्गा पूजा का आयोजन 102 साल से कर रहा है। बिहार से आये महालेखाकार कार्यालय के कर्मियों एवं उनके परिवार के सदस्यों ने हिनू में मंडप बनाकर पूजा शुरू की थी।  पूजा के साथ बिहारी मंडप जरूरतमंदों की सेवा भी करता है। लोअर हिनू में 1917 में पहली बार बैठक कर सार्वजनिक पूजा का निर्णय लिया गया। इंदिरा गांधी कुष्ठ कॉलोनी के लोगों और निवारणपुर के अनाथालय बच्चों की मदद की जाती है।

हरिमति मंदिर वर्धमान कंपाउंड, रांची की दुर्गा पूजा का इतिहास 81 साल पुराना है। शुरू में इस मंदिर का नाम ज्ञान मंदिर था। बाद में इसका नाम हरिमति मंदिर कर दिया गया। 1935 में मंदिर की स्थापना की गयी और पूजा 1936 से शुरू हुई। तब से यहां पारंपरिक तरीके से पूजा हो रही है। देशप्रिय क्लब द्वारा 1960 से सार्वजनिक पूजा का आयोजन किया जाता है। कांटा टोली चौक स्थित नेताजी नगर दुर्गा पूजा कमेटी कलात्मक एवं रचनात्मक साज-सज्जा के लिए प्रसिद्ध है। कमेटी 61 वर्षों से पूजा का आयोजन कर रही है।

दिलचस्प है जैप वन की पूजा : झारखंड आर्म्ड पुलिस (जैप वन) का दुर्गा पूजा मनाने का अन्दाज़ निराला है। 1980 से यहाँ माता की पूजा सार्वजनिक तौर पर की जा रही है। राइफ़लों के फ़ायरिंग के साथ माँ दुर्गा का आह्वान किया जाता है। यहाँ प्रतिमा की जगह कलश रखे जाते हैं। कलश के रूप में ही नौ दुर्गा की आराधना की जाती है। परिसर के मंदिर में बड़ा सा कलश रखा जाता है उसे चुनरी से सजाया जाता है। महानवमी के दिन जैप वन के शस्त्रागार में रखे गए हथियारों की पूजा होती है। यहाँ बकरे की बलि देने की प्रथा भी है। महासप्तमी के दिन भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। इसे फूल पाती यात्रा कहा जाता है। गाजे-बाजे व सलामी के साथ डोली में कलश रखा जाता है।  मंडप से बाहर आने के बाद बलि बेदी की तीन परिक्रमा करने के बाद जैप वन स्थित दुर्गा मंदिर से यह यात्रा शुरू होती है। जैप वन के मुख्य प्रवेश द्वार के समीप स्थित वृक्ष की पूजा अर्चना की जाती है। शोभायात्रा में शामिल भक्त रास्ते भर नाचते, गाते हैं और मां का जयकारा लगाते हैं। शोभा यात्रा वापस दुर्गा मंदिर में आकर समाप्त होती है। फूल पाती यात्रा के बीच में फ़ायरिंग भी की जाती है। सामूहिक कलश स्थापना अनुष्ठान से लेकर मूर्ति विसर्जन तक  गोरखा समुदाय की महिलाओं की हिस्सेदारी उत्सव को ख़ास बनाती है। गोरखा बुज़ुर्ग भी इसमें उत्साह के साथ शामिल रहते हैं।

अन्य सार्वजनिक पूजा पंडाल : बिहार क्लब दुर्गा पूजा समिति की ओर से सार्वजनिक पूजा का आयोजन पहली बार 1945 में किया गया था। कचहरी रोड में जहाँ विकास भवन है वहीं पर पहली बार पूजा पंडाल बनाया गया। कचहरी में ही संग्राम क्लब 1969 से पूजा का आयोजन कर रहा है। 1977 तक आपसी सहयोग से छोटे स्तर पूजा का आयोजन किया जाता था। इसके बाद पूजा पंडाल का आकार बढ़ाया गया। वहीं कचहरी रोड का त्रिकोण हवन कुंड 1935 से लगातार दुर्गा पूजा का आयोजन करता आ रहा है। मेन रोड में चंद्रशेखर आजाद क्लब द्वारा 1971 से दुर्गा पूजा की जा रही है। भव्य प्रतिमाएँ इस क्लब की पहचान है। चर्च रोड में 1968 में पहली बार पूजा का आयोजन किया गया तब 1200 रुपये खर्च हुए थे।

पुस्तक पथ में ज्योति संगम कमेटी 60 वर्षों से दुर्गा पूजा का आयोजन कर रही है। 2014 से मारवाड़ी स्कूल में परिसर में पूजा होने लगा। हरमू रोड में दुर्गा पूजा का आयोजन करनेवाली समिति सत्य अमर लोक इको फ्रेंडली पंडाल बनाती है। समिति द्वारा सार्वजनिक रूप से पहले सरस्वती पूजा का आयोजन किया जाता था। 1978 से 2013 तक सरस्वती पूजा करने का बाद दुर्गा पूजा मनाने का निर्णय लिया गया। 2014 से मारवाड़ी भवन में दुर्गा पूजा हो रही है। हरमू रोड के गाड़ीखाना में शक्ति श्रोत संघ 1938 से दुर्गा पूजा आयोजित कर रहा है। श्री बड़ा तालाब दुर्गा मंदिर में 186 वर्षों से माता की पूजा हो रही है। पालकोट के राजा ने बड़ा तालाब के पास जमीन दी थी। जिसपर मंदिर का निर्माण कराया गया। उसी जमीन पर दुर्गा पूजा में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है। लेक रोड के ओसीसी कम्पाउंड में ओसीसी क्लब एवं पूजा समिति द्वारा 1970 से दुर्गा पूजा का आयोजन किया जा रहा है। छोटे स्तर पर शुरू किये गये पूजा में पहली बार चार हजार रुपये खर्च हुए थे। वहीं पंच मंदिर दुर्गा पूजा समिति हरमू पिछले 57 वर्षों से पूजा कर रही है। बांधगाड़ी दुर्गा पूजा समिति दीपा टोली में 56 साल से पूजा कर रही है। समिति ने अपनी पहली पूजा वर्ष 1963 में की थी।

अपर बाजार के ढिबरी पट्टी का दुर्गा पूजा काफी भव्य और आकर्षक होता है। कला संगम द्वारा 1953 में सवर्प्रथम दुर्गा पूजा का आयोजन हरिनारायण कर्मकार के पहल पर शुरू की गयी थी। इसके संस्थापक अध्यक्ष स्व देवपति महुरी थे। विद्युत चालित प्रतिमा यहां की खासियत है। कला संगम लगातार 10 वर्षों तक विधुत चालित प्रतिमा की स्थापना की। अपर बाजार के बकरी बाजार में भारतीय नवयुवक संघ के द्वारा 1958 से दुर्गा पूजा का आयोजन किया जा रहा है। यह अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। वहीं अपर बाजार के महावीर चौक में 1976 से दुर्गा पूजा का आयोजन यूथ क्लब समिति द्वारा किया जा रहा है। अपर बाजार में ही राजस्थान मित्र मंडल के तत्वावधान में प्रत्येक वर्ष भव्य पूजा पंडाल का निर्माण किया जाता है। मित्र मंडल 40 वर्षों से दुर्गा पूजा का आयोजन कर रहा है। यह इको फ्रेंडली पंडाल और प्रतिमा बनाने के लिए प्रसिद्ध है। 1979 में पहली बार बड़ा लाल स्ट्रीट के लोगों ने सार्वजनिक पूजा के आयोजन का निर्णय लिया था। रांची रेलवे स्टेशन दुर्गा पूजा समिति 1947 से लगातार पूजा करती आ रही है़। यहां का पंडाल हर वर्ष आकर्षण का केंद्र बना रहता है। वहीं हटिया रेलवे स्टेशन पर 1964 से दुर्गा पूजा का आयोजन किया जा रहा है। रेलकर्मियों और स्थानीय लोगों ने मिलकर पूजा के आयोजन का निर्णय लिया था। कोकर के श्री दुर्गा पूजा समिति के विद्युत तोरण द्वार बहुत  मनोहारी होते हैं। हर वर्ष यहां की आकर्षक सज्जा इसे दूसरे पंडालों से अलग करती है। रातू रोड दुर्गा मंदिर के पास आरआर स्पोर्टिंग के द्वारा भव्य पूजा का आयोजन किया जाता है।

पहले दुर्गा पूजा सिर्फ एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि यह सांस्कृतिक और साहित्यिक महोत्सव भी था। दुर्गा पूजा के अवसर पर पूजा समितियों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता था। रातभर आर्केस्ट्रा का कार्यक्रम चलता था। कुछ पूजा स्थलों पर सोलह एमएम की फिल्म दिखायी जाती थी। उस जमाने में शहर में कुछ ही जगहों पर दुर्गा पूजा होती थी, लेकिन धीरे-धीरे पूजा पंडालों की संख्या बढती चली गयी। समय के साथ रांची की पूजा में काफी अंतर आ गया है। अब दुर्गा पूजा पर भव्य पूजा पंडाल तैयार होते हैं। कहीं ऐतिहासिक इमारतों का मॉडल नजर आता है, तो कहीं प्राचीन मंदिरों की तर्ज पर पंडाल बनाये जाते हैं। विगत कुछ सालों के दौरान थीम आधारित दुर्गोत्सव का चलन बढ़ा है। शहर और दूर गांवों से आकर शिल्पकार पंडालों का निर्माण करते हैं। इन भव्य पंडालों को बनाने में आने वाली लागत लाखों रुपए में होती है। पंडालों का सजावट और लाइट देखने लायक होती है। किसका पंडाल ज्यादा आकर्षक है, किसमें ज्यादा भीड़ होती है, इसके हिसाब से पुरस्कार भी दिया जाता है।

पूजा के दौरान कई पूजा समितियां मेले का भी आयोजन करती हैं। झूले, मीना बाजार के अलावा खान-पान के स्टॉल भी लगाये जाते हैं। बच्चों एवं महिलाओं के लिए विभिन्न प्रतियोगिताएं और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। राजधानी में अलग-अलग संस्थाओं की ओर से डांडिया का आयोजन भी किया जाता है।  फुटपाथ बाज़ार भी गुलज़ार रहता है।  वेल वरण के साथ मां का पट खुलता है। माँ के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पडती है। ग्रामीण इलाकों से भी लोग बड़ी संख्या में राजधानी पहुंचते हैं। सप्तमी, अष्टमी और नवमी को रांची पूरी रात जागती है। पंडालों में शारदीय नवरात्र की षष्ठी से विजयादशमी तक भोग का वितरण होता है।

रावण दहन : विजयादशमी के दिन मोरहाबादी में रावण का दहन होता है। रावण के साथ मेघनाथ और कुम्भकर्ण का पुतला जलाया जाता है। पंजाबी हिंदू बिरादरी की ओर से पहली बार रावण दहन 1948 में किया गया था। पश्चिमी पाकिस्तान के कबायली इलाके (नार्थ वेस्ट फ्रंटीयर) के बन्नू शहर से रिफ्यूजी बन कर रांची आये 10-12 परिवारवालों ने रावण दहन के रूप में अपना पहला दशहरा मनाया था। तभी से यह परंपरा चली आ रही है। एकीकृत बिहार (बिहार-झारखंड) में सिर्फ रांची में ही रावण दहन का आयोजन होता था। पहले रावण का पुतला 12 फीट था। धीरे–धीरे पुतले का आकार बढ़ता गया। 1960 के आसपास रावण दहन एचइसी मैदान तथा अरगोड़ा में भी होने लगा।

 

✍ हिमकर श्याम

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झारखंड की नौ देवियाँ

IMG_20181014_134008महाशक्ति की आराधना का पर्व है नवरात्रि। नौ दिन तक चलने वाले पर्व नवरात्रि  के तीन-तीन दिन तीन देवियों को समर्पित होते हैं। ये तीन देवियां हैं- मां दुर्गा (शौर्य की देवी), मां लक्ष्मी (धन की देवी) और मां सरस्वती (ज्ञान की देवी)। झारखंड में शक्ति पूजा की प्रथा अनादि काल से है, जो मूलतः मातृ पूजा का ही एक प्रकार है। मातृ पूजा के प्रमाण और साक्ष्य सिन्धु घाटी की सभ्यता से भी मिले हैं। झारखंड के आदिवासी आदि काल से ही हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करते रहे हैं। गांव-गांव में विद्यमान प्राचीनतम देवी-मंडप इसके प्रमाण हैं। ग्राम देवी, वन देवी आदि की कथाएं इनसे जुड़ी हैं। काली या दुर्गा के पुजारी भी बहुत हैं।  प्रस्तुत है शक्ति की परम आराध्य देवी मां के सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध मंदिरों से जुड़े रोचक तथ्य, जिस पर लोगों की अपार श्रद्धा है।

मां उग्रतारा मंदिर : लातेहार के चंदवा प्रखंड के नगर गांव स्थित मां उग्रतारा मंदिर में दुर्गा पूजा का त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। यहां सोलह दिनों की नवरात्र साधना होती है। कैथी भाषा में लिखे पांच सौ वर्ष पुराने ग्रंथ का अनुसरण करते हुए पूजा अनुष्ठान कराया जाता है। मंदिर के मुख्य प्रकोष्ठ में उग्रतारा की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं, जो हमेशा वस्त्राच्छादित रहती हैं। श्वेत प्रस्तर से निर्मित मूर्तियों को शिल्प की दृष्टि से दक्षिणोत्तर शैली का सम्मिश्रण माना जाता है। मंदिर के प्रांगण में कुछ बौद्धकालीन प्रतिमाएं भी हैं। मंदिर के गर्भगृह के चबूतरे पर भक्त अपनी मनौती को लेकर फूल चढ़ाते हैं, अगर फूल तुरंत नीचे गिर जाए तो यह तय होता है कि आपने मन में जिस कार्य के पूर्ण होने की कामना को लेकर फूल चढ़ाया है, वह जल्द पूरा होने वाला है। मुस्लिम समाज के लोग भी यहां पूजा अर्चना कर मन्नत मांगने आते हैं। मंदिर के पश्चिमी भाग में स्थित मंदारगिरी पर्वत पर मदार साहब का मजार है। किंवदंतियों के मुताबिक मदार साहब मां भगवती के बहुत बड़े भक्त थे। दशहरा के विशेष पूजन के समय मंदिर का झंडा नियत समय पर मदार साहब के मजार पर चढ़ाया जाता है। श्रद्घालुओं को मंदिर के गर्भगृह में जाने की मनाही है। मंदिर के पुजारी गर्भगृह में जाकर मां भगवती को भोग लगाते हैं। मंदिर परिसर में ही श्रद्धालुओं द्वारा बकरे की बलि भी दी जाती है। मंदिर के निर्माण के संबंध में ‘पलामू विवरणिका 1961’ में लिखा गया कि मंदिर बनवाने का श्रेय प्रसिद्घ वीर मराठा रानी अहिल्याबाई को है।

छिन्नमस्तिके मंदिर : रांची से करीब 80 किमी दूर रामगढ़ के रजरप्पा में स्थित मां छिन्नमस्तिके मंदिर सिद्धपीठ माना जाता है। यहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल सात मंदिर हैं। नवरात्र के दौरान भक्तों की भीड़ बढ़ जाती है। मां छिन्नमस्तिके के रूप में मां दुर्गा भक्तों की समस्त मनोकामना पूरा करती हैं। भैरवी, भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित यह सिद्धपीठ तंत्र साधना का भी बड़ा केंद्र है। कहा जाता है कि दस महाविद्याओं की सिद्धि हासिल करने के लिए साधकों को यहां आना पड़ता है। क्योकि दस महाविद्याओं में पांचवी मां छिन्नमस्तिके ही हैं। महाशक्ति की दस महाविद्याएं क्रमश: काली, तारा, षोड्शी,  भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता,  भैरवी,  धूमावति,  बगलामुख,  मातंगी और कमला हैं। इस मंदिर का वास्तु असम के कामख्या मंदिर के जैसा ही है। गर्भगृह में मां छिन्नमस्तिके एक हाथ में खड्ग और दूसरे में खड्ग से कटा अपना सर थामे विराजती हैं। गले से निकलती तीन रक्त धाराओं में से दो माता की सहचरी डाकिनी और शाकिनी ग्रहण कर रही हैं, वहीं तीसरा स्वय उनके मुख में समा रहा है। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं। माता के पैरों के नीचे ब्रह्म कमल के अन्दर रति और कामदेव की विपरीत रति मुद्रा है। मां का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां नग्नावस्था में दिव्य रूप में हैं। यहां प्रतिदिन सुबह चार बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है। दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है। शारदीय दुर्गा उत्सव में महानवमी की पूजा सबसे पहले संथालों आदिवासी द्वारा की जाती है। उन्हीं के द्वारा प्रथम बकरे की बलि देने की भी परंपरा है। मंदिर के निर्माण काल को लेकर पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण छह हजार वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है।

महामाया मंदिर :  गुमला जिला मुख्यालय से से 30 किमी और घाघरा प्रखंड से आठ किमी दूर अवस्थित है हापामुनी गांव। यहां अति प्राचीन महामाया मंदिर है, जो हापामुनी गांव के बीच में है। महामाया मां की मूर्ति होने के कारण दुर्गापूजा में इसका महत्व बढ़ जाता है। यह अपने अंदर कई इतिहास समेटे हुए है। इस मंदिर की स्थापना विक्रम संवत 965 यानी 908 ई में हुई  थी। मंदिर की स्थापना महाराजा मोहन राय के बेटे गजघंट द्वारा की गई थी। वे नागवंश के 22 वें राजा थे। उन्होंने 869 से 905 ई के बीच शासन किया उन्होंने मंदिर की देखभाल अपने गुरु हरिनाथ, एक मराठी ब्राह्मण को सौंप दी थी। इस मंदिर से लरका आंदोलन का भी इतिहास जुड़ा हुआ है। 1831 में लरका आन्दोलन (कोल विद्रोह) के समय इस क्षेत्र के दो आदिवासियों के बीच लड़ाई के दौरान इसे बर्बाद कर दिया गया था। हापामुनी मंदिर के इतिहास के संबंध में बताया जाता है कि ग्यारह सौ साल पहले यहां एक मुनी आये थे। वे ज्यादा नहीं बोलते थे। मुंडा जाति के लोग उन्हें हप्पा मुनी कहते थे। मुंडा भाषा में हप्पा का अर्थ चुप रहना होता है। उन्हीं मुनी के नाम पर इस गांव का नाम हप्पामुनी पड़ा। मंदिर के अंदर में महामाया की मूर्ति है। परंतु महामाया मां को मंजूषा में बंद करके रखा जाता है। महामाया मां को खुले आंख से देखने की परंपरा नहीं है। चैत कृष्णपक्ष परेवा को जब डोल जतरा का महोत्सव होता है, तब मंजूषा को डोल चबूतरा पर निकालकर मंदिर के मुख्य पुजारी द्वारा महामाया की पूजा की जाती है। पूजा के दौरान पुजारी आंख में काले रंग का पट्टी लगा लेता है। मंदिर के बाहर में मां महामाया की एक दूसरी प्रतिमा स्थापित की गयी है। भक्तजन उसी की पूजा-अर्चना करते हैं। महामाया मंदिर एक तांत्रिक पीठ भी है।

मां भद्रकाली मंदिर :  चतरा के इटखोरी प्रखंड मुख्यालय से करीब डेढ़ किमी दूर स्थित भदुली गाँव में मां भद्रकाली मंदिर स्थित है। मंदिर में कमल के आसन पर मां भद्रकाली की आदमकद प्रतिमा वरदायिनी मुद्रा में है। माँ की चतुर्भुज प्रतिमा करीब साढ़े चार पीठ ऊँची और ढाई पीठ चौड़ी है और एक बेशकीमती काले पत्थर को तराश कर बनायी गयी है। प्रतिमा के चरणों के नीचे ब्राह्मी लिपि में यह अंकित है कि प्रतिमा का निर्माण नौवीं शताब्दी में राजा महेंद्र पाल द्वितीय ने कराया था। मंदिर का प्रांगण 196 एकड़ में है जिसमे एक विशाल यज्ञशाला का निर्माण कराया गया है। यज्ञशाला ले पूरब में एक संग्रहालय है जिसमें मंदिर परिसर से प्राप्त मूर्तियाँ और भग्नावशेष सुरक्षित हैं। बौद्ध धर्म के लोग प्रतिमा को मां तारा के रूप में पूजते हैं। तन्त्र साधना के लिए मां तारा की एक मूर्ति कुछ इस प्रकार निर्मित है कि मां के पैर का अंगूठा साधक के ठीक आज्ञाचक्र के समक्ष दिखता है। मंदिर परिसर में एक अनूठा बौद्ध स्तूप स्थापित है। माँ भद्रकाली मंदिर से दो सौ फुट की दूरी पर सहस्त्र शिवलिंग स्थापित है। मंदिर परिसर तीन धर्मों का संगम स्थल है। सनातन धर्मावलंबियों के लिए यह पावन भूमि मां भद्रकाली तथा सहस्त्र  शिवलिंग महादेव का सिद्ध पीठ के रूप में आस्था के केंद्र हैं, वही बौधिष्ठो के लिए भगवान बुद्ध की तपोभूमि के रूप में आराधना एवं उपासना का स्थल है। शांति की खोज में निकले युवराज सिद्धार्थ ने यहाँ  तपस्या की थी। जैन धर्मावलंबियों ने जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ स्वामी की जन्मभूमि की मान्यता प्रदान की है। प्राचीन काल में तपस्वी मेघा मुनि ने अपने तप से इस परिसर को सिद्ध करके एक सिद्धपीठ के रूप में स्थापित किया। पुरातात्विक महत्व वाली इस तीर्थ नगरी में मां भद्रकाली एवं अन्य देवी- देवताओं की प्रतिमाएं शिल्प कला के अद्भुत नमूने पेश करती हैं। माँ भद्रकाली के नाम पर ही गाँव का नाम भदुली पड़ा। नवरात्र शुरू होने के साथ ही मां भद्रकाली मंदिर में मां के दर्शन के लिए विभिन्न राज्यों से श्रद्धालुओं का आना शुरू हो जाता है।

मौलिक्षा मंदिर : दुमका जिले में शिकारीपाड़ा के पास बसे एक छोटे से गांव मलूटी को गुप्त काशी कहा जाता है। यहां पर मौलिक्षा माता का मंदिर है,  जिसकी मान्यता जाग्रत शक्तिपीठ के रूप में है। मां मौलिक्षा के मंदिर में मां के मस्तक के ही दर्शन किये जा सकते हैं। मंदिर के भीतर गर्भगृह एवं ऊंचे चबूतरा पर मां की सौम्य भव्य प्रतिमा स्थापित है। मां मौलिक्षा, मां तारा की बड़ी बहन के रूप में जानी जाती हैं। यद्यपि मां मौलिक्षा की पूजा देवी दुर्गा के सिंहवाहिनी के रूप में की जाती है।  इस छोटे से गांव मलूटी में हर तरफ सिर्फ प्राचीन मंदिर ही मंदिर नज़र आते हैं। यहां दुर्गा के अतिरिक्त भगवान शंकर, काली, धर्मराज, मनसा, विष्णु आदि देवी-देवताओं के भी मंदिर हैं। मलूटी के मंदिरों की यह खासियत है कि ये अलग-अलग समूहों में निर्मित हैं। इन मंदिरों का निर्माण 1720 से लेकर 1840 के मध्य हुआ था। पूर्व में मलूटी का नाम मल्लहारी था, जो बाद में मलूटी हो गया। मंदिरों के इस गांव को एक ही स्थान पर मंदिर, मस्ज़िद और गिरजाघर होने का भी सौभाग्य प्राप्त है। मलूटी का पश्चिम बंगाल की प्रसिद्ध तांत्रिक शक्तिपीठ तारापीठ से सीधा सम्बंध है। कहा जाता है कि वामाखेपा की जीवन लीला मां तारा से जुड़ी थी और उनकी समाधि तारापीठ में है। आज भी वामाखेपा का त्रिशूल मलूटी में स्थापित है। पूर्व में इस गांव में शिव, दुर्गा काली एवं विष्णु के 108 मंदिर एवं 108 तालाब हुआ करते थे। अब यहां मात्र 72 मंदिरों के अवशेष बचे हैं। बचे हुए मंदिरों, जिसमें सामान्य टेरा कोटा अलंकृत शिव मंदिरों की संख्या 14 है।  इसके अलावा पांच नये बामाखेपा, धर्मराज एवं रटंती काली आदि के मंदिर हैं। वास्तु कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना यहां  देखा जा सकता है। इन मंदिरों का निर्माण सुप्रसिद्व चाला रीति से किया गया है। मंदिरों का निर्माण पतली ईंट एवं चूना सुर्खी से किया गया है। इन मंदिरों की ऊंचाई सबसे अधिक 60 फीट एवं सबसे कम ऊंचाई 15 फीट है।

मां योगिनी मंदिर : गोड्डा जिले के पथरगामा प्रखंड में स्थित मां योगिनी मंदिर तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध है। कामख्या मंदिर की तरह यहाँ भी पिंड की पूजा होती है। दोनों मंदिरों में पूजा की प्रथा एक सामान है। दोनों मंदिरों में तीन दरवाजे हैं। यहाँ देश के कोने-कोने से श्रद्धालु आते हैं। यहाँ आकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। ग्रन्थों के अनुसार योगिनी स्थान द्वापर युग का है। यहां पांडवों ने अपने अज्ञात वर्ष के कई दिन बिताए थे। इसकी चर्चा महाभारत में भी है। तब यह मंदिर ‘गुप्त योगिनी’ के नाम से प्रसिद्ध था। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, पत्नी सती के अपमान से क्रोधित होकर भगवान शिव जब उनका जलता हुआ शरीर लेकर तांडव करने लगे थे तो संसार को विध्वंस से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने माता सती के शव के कई टुकड़े कर दिए थे। इसी क्रम में उनकी बायीं जांघ यहां गिरी थी। लेकिन इस सिद्धस्थल को गुप्त रखा गया था। विद्वानों का कहना है कि हमारे पुराणों में 51 सिद्ध पीठ का वर्णन है, लेकिन योगिनी पुराण ने सिद्ध पीठों की संख्या 52 बतायी है। बताया जाता है कि पहले यहां नर बलि दी जाती थी। लेकिन अंग्रेजों के शासनकाल में इसे बंद करवा दिया गया। मंदिर के सामने एक बट वृक्ष है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस बट वृक्ष पर बैठकर साधक साधना किया करते थे और सिद्धि प्राप्त करते थे। मंदिर का गर्भगृह आकर्षण का विशेष केंद्र है। मां योगिनी मंदिर के ठीक बायीं ओर से 354 सीढ़ी ऊपर चढ़ने पर मां का गर्भगृह मिलता है। गर्भगृह के अंदर जाने के लिए एक गुफा से होकर गुजरना पड़ता है। इसे बाहर से देखकर अंदर जाने की हिम्मत नहीं होती, क्योंकि इसमें पूरी तरह अंधेरा होता है। लेकिन जैसे ही आप गुफा के अंदर प्रवेश करते हैं, आपको प्रकाश नजर आता है, जबकि यहां बिजली की व्यवस्था नहीं है। मां योगिनी मंदिर के ठीक दाहिनी ओर पहाड़ी पर मनोकामना मंदिर है। जो लोग मां योगिनी के दर्शन के लिए आते हैं, वे मनोकामना मंदिर जाना नहीं भूलते।

दिउड़ी मंदिर : रांची-टाटा रोड पर तमाड़ से तीन किलोमीटर दूर स्थित है प्राचीन दिउड़ी मंदिर। इस मंदिर में सोलहभुजी मां दुर्गा विराजती हैं। नवरात्र के अवसर पर मां के दर्शन के लिए   श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ता है। मान्यता है की दिउड़ी मंदिर में जो भी सच्चे मन से माता से आशीर्वाद मांगता है उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है। दिउड़ी मंदिर दो एकड़ में फैला हुआ है, इस मंदिर में सोलहभुजी मां दुर्गा के अलावा भगवान शिव की मूर्ति भी स्थापित है। इस मंदिर को आदिवासी और हिन्दू संस्कृति का संगम कहा जाता है, क्योंकि इस मंदिर के पुजारी पाहन होते हैं, जो हफ्ते में छ: दिन माता की पूजा अर्चना करते हैं, सिर्फ मंगलवार को ब्राहमण देवी मां की पूजा अर्चना करते हैं। बताया जाता है कि इस मंदिर की स्थापना पूर्व मध्यकाल में तकरीबन 1300 ई. में सिंहभूम के मुंडा राजा केरा ने युद्ध में परास्त होकर लौटते समय की थी। देवी ने सपने में आकर राजा केरा को मंदिर स्थापना करने का आदेश दिया था, मंदिर की स्थापना होते ही राजा को उनका राज्य दोबारा प्राप्त हो गया था। ऐसी भी मान्यता है की सम्राट अशोक इस देवी के दर्शन के लिए आते थे। इस मंदिर में स्थापित देवी मां की मूर्ति ओड़िसा की मूर्ति शैली जैसी है। इस मंदिर को बनाने में  पत्थरों को काट कर बिना  जोड़े हुए एक दूसरे के ऊपर रखा गया है।

गढ़देवी : माँ गढ़देवी में भक्तों की असीम आस्था जुड़ी हुई है, यहां गढ़वा ही नहीं आसपास के राज्यों के श्रद्धालु प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। नवरात्र में भक्तों की काफी भीड़ होती है। मंदिर परिसर में गढ़ परिवार द्वारा सालों से माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर विशेष विधि विधान से पूजा किया जाता है, जिससे मंदिर पूरे नौ दिन असीम श्रद्धा का केंद्र बना रहता है। दुर्गा पूजा की यह परंपरा 1926 में शुरू हुई थी। गढ़देवी का यह मंदिर बहुत पुराना है। 1915 के सर्वे में इस मंदिर का प्रमाण मिलता है। गढ़वा गढ़ के महाराज द्वारा इस मंदिर का निर्माण कराया गया था। साथ ही देवी की प्रतिमा स्थापित की गयी थी। इसी गढ़देवी मंदिर के नाम पर शहर का नामकरण गढ़वा हुआ।

मां कौलेश्वरी मंदिर : चतरा के हंटरगंज प्रखंड से छः किलोमीटर दूर स्थित मां कौलेश्वरी मंदिर श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा और आस्था का केंद्र है। कोल्हुआ पहाड़ की चोटी पर बने इस प्राचीन मंदिर में मां कौलेश्वरी की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर दसवीं सदी में बनाया गया था। धार्मिक कथाओं के अनुसार राजा विराट ने माता के प्रतिमा को यहां स्थापित किया था। माता की प्रतिमा काले दुर्लभ पत्थर को तराश कर बनायी  गयी है। मंदिर के पुजारियों वह भक्तों के अनुसार माता यहां जागृत अवस्था में विराजमान हैं। कौलेश्वरी सिद्धपीठ के रूप में चिन्हित है। इस स्थल पर सती का कोख गिरा था। कौलेश्वरी का उल्लेख दुर्गा सप्तशती में मिलता है। दुर्गा सप्तशती में देवी भगवती को कौलेश्वरी कहा गया है। कौलेश्वरी देवी के मंदिर तक पहुंचना दुर्गम है। भक्तों को मंदिर तक पहुंचने के लिए खड़ी पहाड़ी की चढ़ाई करनी पड़ती है। नवरात्र के अवसर पर भक्तों की आस्था यहां उमड़ती है। मन्नत मांगने वाले भक्तों की हर मुराद पूरी करती हैं मां कौलेश्वरी। कोल्हुआ पहाड़ सनातन, बौद्ध एवं जैन धर्मों का संगम स्थल है। माता कौलेश्वरी के अलावा बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों का भी मंदिर है। आदिवासियों के देवता भी यहाँ निवास करते हैं। कोल (या मुंडा) आदिवासी की आराधना देवी कौलेश्वरी हैं। कोल्हुआ पहाड़ महाभारत कालीन पुराण कालीन प्रागैतिहसिक स्थल है। उस काल के कई  अवशेष यहां अब भी मौजूद हैं। किवदंती है कि राम, सीता और लक्ष्मण ने वनवास काल में यहां समय व्यतीत किया था। बताया जाता है कि जब पांडवों को कौरवों की ओर वनवास दिया गया था, तो उन्होंने कई महीनों तक यहां की गुफाओं में छिपकर अपना समय बिताया था। यह भी कहा जाता है कि अर्जुन के बेटे अभिमन्यु का विवाह मत्स्य राज की पुत्री उत्तरा से यहीं हुआ था। इतिहासकारों के अनुसार यहां पर दसवें र्तीथाकर शीतलनाथ स्वामी का जन्म हुआ था। उनके भक्तों ने मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के पास एक गुफा भी है जिसमें तेइसवें जैन तीर्थंकर पार्श्‍वनाथ की प्रतिमा देखी जा सकती है। इस प्रतिमा में उनके गलें में सांप है और वह साधना में लीन हैं। पहाड़ पर एक विशाल झील भी है जिसका पानी कभी नहीं सूखता। झील में लाल कमल खिलता है जो माँ के चरणों में चढ़ाया जाता है।

✍ हिमकर श्याम

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