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झारखण्डी कौन है ?

आख़िरकार झारखण्ड में स्थानीयता नीति लागू हो गयी। राज्य बनने के 15 वर्षों बाद स्थानीय नीति घोषित की गई है। रघुवर सरकार का यह बड़ा फैसला है। स्थानीयता नीति के तहत विगत 30 jarkhandवर्षों से झारखण्ड में निवास करने वाले, झारखण्ड में जन्म लेने वाले या झारखण्ड में मैट्रिक तक की परीक्षा पूरी करने वाले लोग स्वतः स्थानीय माने जायेंगे। भूमिहीनों के लिए भाषा, संस्कृति को ही आधार माना जाएगा। सरकार ने इस नीति के तहत जिला स्तर के तृतीय व चतुर्थ वर्ग के पदों को स्थानीय निवासियों से ही भरने का संकल्प लिया है। हालांकि सरकार के इस फैसले पर विरोध के स्वर उठने लगे हैं। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, झारखण्ड विकास मोर्चा सरीखे राजनीतिक संगठनों ने रघुवर सरकार की स्थानीय नीति की आलोचना की है। विरोधी दाल के लोग इस पर सड़क पर उतरने की बात कर रहे हैं। झारखण्ड अलग राज्य के गठन के बाद से ही स्थानीयता के मुद्दे पर राजनीति होती रही है। कोई भी राजनीतिक पार्टी स्थानीयता को मुद्दा बनाने में पीछे नहीं रही।

राज्य गठन के 15 सालों के दौरान और  छह-छह मुख्यमंत्रियों के शासनकाल गुजर जाने के बाद भी स्थानीयता का प्रश्न हल नहीं हुआ था। कोई भी झारखण्ड नामधारी राजनीतिक दल इस मुद्दे को समाप्त नहीं करना चाहता है, ताकि वोट की राजनीति चलती रहे। झारखंड के आदिवासियों, मूलवासियों के हितों से ज्यादा चिंता इन नेताओं को अपने जनाधार की है। स्थानीयता का मसला ही वह मैदान है, जहां क्षेत्रीय दल भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को मात दे सकते हैं। हेमंत सोरेन स्थानीयता के मसले पर अतिवादी होते प्रतीत हो रहे हैं। वह स्थानीयता के लिए खतियानी आधार की वकालत कर रहे हैं। जबकि झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन भी कई दफा झारखंड में जन्मे और पले-बढ़े को झारखंडी मानने की बात करते रहे हैं।

सत्ता से हटने के बाद से ही हेमंत सोरेन अपनी पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों में बाहरी-भीतरी का राग अलाप रहे हैं। हेमंत सोरेन ने सरकार की स्थानीयता नीति के विरोध को अपना पहला एजेंडा बनाया है, उन्हें पहले खुद से पूछना चाहिए कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते इस दिशा में क्या किया। झामुमो की यहां सत्ता में अरसे तक भागीदारी रही। अर्जुन मुंडा की सरकार में स्थानीयता को भी मुद्दा बनाया गया, स्थानीयता के सवाल को आगे करते हुए झामुमो ने समर्थन वापस लिया। हेमंत सोरेन की सरकार बनी, लेकिन नीति नहीं बन सकी। झामुमो के नेतृत्व में संप्रग सरकार भी चली लेकिन उस दौरान स्थानीयता नीति पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया।

झामुमो ने स्थानीयता नीति को अपने आप में असमंजस से भरा और राज्य गठन की मूल भावना के विपरीत बताया है। झामुमो के मुताबिक राज्य सरकार द्वारा जो निर्णय लिया गया है उसमें खतियान को भी आधार माना गया है। 30 वर्ष पहले से रहनेवाले निवासियों को भी स्थानीय माना गया है, जो अपने आप में विरोधाभासी है। तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग के नियोजन में स्थानीय लोगों की प्राथमिकता की बात स्वीकार कर उसकी अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया है जिससे एक बार फिर बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति आसानी से हो सकेगी। झारखण्ड में बाहरी-भीतरी की राजनीति करनेवाले दल अंतिम सर्वे और भाषा एवं संस्कृति को आधार बनाना चाहते हैं, जो सही नहीं है। अंतिम सर्वे खतियान कोई ठोस आधार नहीं है। बहुत से आदिवासी, मूलवासियों के पास आज भी कोई भूखंड नहीं है और मजदूरी कर अपना जीवन यापन करते हैं, इन्हें कैसे इंसाफ मिलेगा। सर्वे रिकार्डस ऑफ राइट्स वर्ष 1932 में हुआ था। 1932 के बाद ज़मीन या अस्थांतरित सम्पत्ति ख़रीदने वाले झारखण्डी कहलाने योग्य नहीं है। दरअसल सवाल स्थानीयता और बाहरी का नहीं, सवाल अपने राजनीतिक आधार को दृढ़ करने का है।

राज्य गठन के बाद से ही स्थानीय नीति घोषित करने की मांग लगातार उठ रही थी। इसे लेकर कई बार आंदोलन हुए। गौरतलब है कि मरांडी ने 2001 मे डोमिसाइल लाने की कोशिश की थी। उन्होंने स्थानीय लोगों को खुश करने की रणनीति तो बनाई थी पर राज्य में इस मुद्दे को लेकर भारी उत्पात मचा था। हंगामें में कई लोगों की जान भी गई थी। डोमिसाइल के मुद्दे से ऐसी आग लगी कि बाबूलाल मरांडी को उस पर आज तक सफाई देनी पड़ती है। मरांडी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। भाजपा आलाकमान ने बाबूलाल मरांडी को हटाकर अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाकर राज्य की कमान सौंप दी थी। झारखंड के लोग आज तक उस आंदोलन को भूल नहीं सके हैं। मूलवासी, 32 का खतियान और बाहरी जैसे शब्द पहली बार उसी आंदोलन के दौरान सुनाई पड़े थे। इसके बाद से ही बाबूलाल मरांडी झारखंड में जन्मे, पले-बढ़े को वह झारखंडी मानने की बात करने लगे।

स्थानीयता का मुद्दा जितना जटिल झारखंड में है, उतना और कहीं नहीं। झारखंड सरकार के विभिन्न विभागों में काफ़ी रिक्तियों के बावजूद स्थानीय नीति तय नहीं होने के कारण नौजवानों को रोजगार के अवसर नहीं मिल सके। इन रिक्तियों के कारण राज्य का विकास प्रभावित हुआ है। स्थानीयता का मामला नियुक्तियों के समय गरमाता रहा। नियुक्ति के समय ही राजनीतिक दल हो-हल्ला मचाते रहे। स्थानीयता पर केवल बयानबाजी होती रही। स्थानीय नीति के नाम पर केवल राजनीति होती रही। नीति-नियम बनाने के समय सभी हाथ खींचते रहे। भारत के किसी भी नागरिक को भारतीय संविधान यह अधिकार देता है कि वो कहीं भी जीवन यापन कर सकता है। पूरे देश की डोमिसाइल नीति एक होती है। कोई भी कहीं भी नौकरी कर सकता है, रह सकता है।

भिन्नता में एकता बहुत वांछनीय है। इसमें विभिन्न तरह के लोग एक विशेष क्षेत्र या संघ में रहने, काम करने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहते हैं और सबकुछ साझा करते हैं। झारखण्ड में आदिवासी, मूलवासी और दिक्कू (बाहरी) हमेशा से साथ रहे हैं और साथ में पृथक राज्य के लिए संघर्ष किया है। झारखण्ड राज्य बनने के बाद राजनीतिक पार्टियाँ अपने फ़ायदे के लिए इनमें फूट डालना शुरू किया। बाहरी-भीतरी और स्थानीयता को मुद्दा गरमाने लगा। कैसी विडंबना है कि क्षेत्रवाद को राष्ट्रीयता व स्वस्थ राजनीति के लिए त्याज्य माना जाता है, लेकिन 15 सालों से झारखंड में स्थानीयता के मसले को लेकर रह-रह कर कोहराम मचता रहता है। झारखंड में राजनीतिक उठा-पटक के बीच बारी-बारी से यूपीए-एनडीए ने शासन किया। राज्य में 12 सरकारें बदल गयीं, लेकिन पहले नीति नहीं बन पायी। भाजपा, झामुमो, कांग्रेस सहित कई दल सरकार में रहे। स्थानीय नीति का विरोध जायज़ नहीं। पक्ष-विपक्ष के नेताओं की सलाह के बाद ही स्थानीयता की नीति लागू की गयी है।

लगातार पिछड़ते जा रहे इस राज्य में विकास को किसी भी पार्टी ने अपने एजेंडे में पहले स्थान पर नहीं रखा। झारखण्ड लगभग हमेशा आरक्षण, सीएनटी एक्ट, स्थानीयता, बाहरी-भीतरी की लड़ाई में उलझा रहा। जिसे भी नेतृत्व का मौका मिला उसने अपने-अपने तरीके से इस भावना को भड़काया। झारखंड के साथ गठित दोनों राज्य छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड विकास की राह पर काफी आगे निकल गए हैं। उस दौड़ में शामिल होने के लिए राजनीतिक नेतृत्व को परिपक्वता दिखानी होगी। 27 फीसदी आबादी को केन्द्र मानकर राज्य की 73 फीसदी आबादी की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

✍ हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

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